किराना सेक्टर में 24 नवम्बर, 2011 को विदेशी निवेश से जुड़े जो फैसले लिए गए उसका गहरा असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। मोटे तौर पर ये फैसले इस प्रकार हैं-मल्टी ब्रांड किराना में 51 प्रतिशत का विदेशी निवेश मंजूर किया जाएगा, सिंगल ब्रांड किराना में सौ प्रतिशत का विदेशी निवेश मंजूर किया जाएगा। किराना सेक्टर में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की मंजूरी का मतलब है कि अब वालमार्ट जैसी बड़ी रिटेल कंपनियां भारत में अपना कारोबार पूरे तौर पर स्थापित कर सकती हैं। नई शर्तों के मुताबिक भारत के करीब पचास शहरों में वालमार्ट जैसी कंपनियां अपना कारोबार स्थापित कर सकती हैं, जहां की आबादी दस लाख से ज्यादा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दिलचस्पी यूं भी महानगरों और बड़े शहरों में ज्यादा होती है। गांव से उनके मुनाफे के रिश्ते अगर नहीं बनते, तो वे गांवों की ओर जाना आम तौर पर पसंद नहीं करतीं। यूं कैबिनेट ने ये फैसला ले तो लिया है पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और करुणानिधि की पार्टी डीएमके इसके समर्थन में नहीं हैं। पर सरकार इस समय कु छ बड़े फैसले करते हुए दिखना चाहती है। सो, उसने किराना सेक्टर में यह कदम उठा लिया है। लेफ्ट एक अरसे से इस तरह के कदम के विरोध में है। भाजपा राजनीतिक और आर्थिक कारणों से इसके विरोध में है। मोटे तौर पर देखा जाए, तो ग्लोबलाइजेशन की धुआंधार वकालत करने वाले राजनीतिक दलों को छोड़कर कोई भी बड़ा राजनीतिक समूह किराना में विदेशी निवेश के समर्थन में नहीं है। इस फैसले के समर्थन में दिए जाने वाले तर्क कुछ इस प्रकार हैं- एक तो यह है कि इससे विदेशी निवेश बहुत बड़ी मात्रा में आ जाएगा। दूसरा तर्क यह है कि इससे भारतीय उपभोक्ताओं को बहुत फायदा होगा। वालमार्ट जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां सस्ते और बढ़िया उत्पाद उपभोक्ताओं के सामने लाएंगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। एक तर्क यह है कि इससे महंगाई को घटाने में मदद मिलेगी। एक आम बात अकसर बड़े रिटेल स्टोरों के बारे में कही जाती है कि उनके यहां कीमतें कम होती हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक बड़े रिटेल स्टोरों पर तमाम साजो सामान करीब छह प्रतिशत सस्ते मिलते हैं यानी इस तरह से सस्ता और बढ़िया माल बेचकर वो ग्राहकों को खींच सकती हैं। इस तर्क की मजबूती के पीछे कई कारण हैं। लोकल, छोटे- मनचंदा और भाटिया रिटेल स्टोर्स अगर एक बार में सौ किलो चीनी खरीदते हैं तो वालमार्ट जैसी कंपनियां हजारों किलो चीनी खरीदने की क्षमता रखती हैं। ज्यादा खरीदेंगे, तो प्रति किलो लागत भी कम होगी। ज्यादा खरीदेंगे, तो बेचने वाले पर दबाव भी डाल सकते हैं कि और सस्ता बेचो, नहीं तो हम दूसरी जगह से खरीदेंगे। बड़ा खरीदार बेचने वाले पर दबाव बना सकता है। वालमार्ट इस तरह के दबाव बनाने के लिए पूरे वि में कुख्यात है। वालमार्ट का फंडा बहुत साफ है कि अपनी बड़ी ताकत का प्रयोग करो सस्ता खरीदने के लिए और लागत कम रखो। वालमार्ट के यहां काम करने वाले कर्मचारियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं बताई जाती। यूनियन बनाने और चलाने पर वहां तमाम तरह के दबाव हैं। कम खर्च पर कर्मचारियों को रखो, लागत कम रखो, फिर फायदा अधिक कमाओ और फायदे का एक हिस्सा ग्राहकों के साथ शेयर करो। इस फंडे के साथ वालमार्ट सस्ते आइटम बेचने में समर्थ हो जाती है। कायदे से ग्लोबलाइजेशन के दौर में कंपटीशन हो, इससे किसी को भी ऐतराज नहीं होना चाहिए। यानी भारतीय किराना कारोबारियों को विदेशी किराना कारोबारियों से मुकाबला करने को तैयार रहना चाहिए। कंपटीशन से उपभोक्ताओं को राहत मिलती है। पर मसला यह है कि यह कंपटीशन, यह मुकाबला बराबरी का नहीं है। वालमार्ट का जो साइज है, वह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इस साइज का मुकाबला कोई नहीं कर सकता। इसलिए यह चिंता का विषय है। वालमार्ट किसी भी मनचंदा स्टोर या भाटिया स्टोर के मुकाबले वित्तीय तौर पर ज्यादा सक्षम है। यों कहने को यह कहा जा सकता है कि वालमार्ट अपने यहां जिन लोगों को कर्मचारी रखेगी, वो तो उनकी मर्जी से ही रखेगी। इसलिए वालमार्ट पर शोषण का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। पर भारत जैसे देश में जहां, बेरोजगारों की फौज बहुत बड़ी है, यह तर्क निहायत ही बेहूदा है। लोग शोषण करवाते हुए भी रोजगार हासिल करने की कोशिश करेंगे। शोषण मजबूरी की उपज है। जो भारत में बहुत ज्यादा है। यह तर्क कि वालमार्ट के आने से किसानों को उनकी उपज की ज्यादा कीमत मिलेगी, बिल्कुल ठीक नहीं है। वालमार्ट कोई किसान सहकारी समिति नहीं है, अमूल की तरह, जिसका उद्देश्य किसानों को लाभ पहुंचाना हो। वालमार्ट का सारा हित इस बात में ही है किस तरह से माल सस्ता लिया जाए और वालमार्ट ऐसे ही कामों के लिए पूरे वि में जानी जाती है। किसानों की बेहतर भाव तब ही मिल सकते हैं, जब उनकी अपनी मार्केटिंग की व्यवस्थाएं हों। अमूल जैसी व्यवस्था अगर पूरे देश में लागू किया जा सके, तो ये किसानों के हित में होगा। पर वालमार्ट उनका भला करेगी, यह बात सोचना भी ठीक नहीं है। वालमार्ट निश्चय ही भारतीय अर्थव्यवस्था का भला करने के लिए नहीं आ रही है। वो अपना और अपने शेयरधारकों का भला करने के लिए आ रही है। जो अधिकाधिक मुनाफा कमा कर ही हो सकता है। फिर किराना कारोबार का भारत में एक अलग चरित्र है। वह अर्धबेरोजगारी और लगभग बेरोजगारी को छिपाने की व्यवस्था के तौर पर भी काम करता है। जिसके पास ज्यादा पूंजी नहीं है, ज्यादा ज्ञान नहीं है, वो कम पूंजी में ही किराना स्टोर स्थापित कर सकता है। इस तरह से बहुत से लोग जीवनयापन कर रहे हैं। इस तरह के किराना स्टोर अगर बंद हुए, तो उनके सामाजिक-राजनीतिक परिणाम भी गंभीर होंगे। इस सारे मसले को सिर्फ आर्थिक मसले के तौर पर नहीं लिया जा सकता। उम्मीद थी कि सरकार महंगाई कम करेगी, पर महंगाई कम करने के लिए सरकार के पास सिर्फ आासन हैं। पर कई लोगों के रोजगार को चोट पहुंचाने के लिए सरकार के पास ठोस योजना है। कुल मिलाकर यह साफ है कि आने वाले आम चुनावों में जिन मसलों पर यूपीए को जवाब देने पड़ेंगे, यह मुद्दा उनमें से एक है। देश को आने वाले दिनों में तमाम किस्म के आर्थिक उपद्रवों के लिए तैयार हो जाना चाहिए। |
Monday, November 28, 2011
यह मुकाबला बराबरी का नहीं है
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment