Monday, December 20, 2010

अर्थव्यवस्था की नई चाल

लेखक  शेयर बाजार और सोने-चांदी के वैश्विक मूल्य एक साथ बढ़ने का मतलब समझा रहे हैं ....

पूर्व में शेयर बाजार और सोने-चांदी के भाव उलटे चलते थे। अर्थव्यवस्था में तेजी आने पर शेयर बाजार उछलता था। साथ-साथ प्रापर्टी के दाम भी बढ़ते थे। लोग तिजोरी में रखे सोने-चांदी को बेचकर शेयर एवं प्रापर्टी में निवेश करते थे। बेचने से सोने का दाम गिरता था। जब अर्थव्यवस्था में मंदी छाई होती थी तब निवेशक शेयर बेचकर सोना-चांदी खरीदते थे। इस प्रकार सोना-चांदी तथा शेयर के मूल्य उलटे चलते थे, परंतु इस समय दोनों का मूल्य ऊंचा है। मुंबई शेयर सूचकांक हाल में 21,000 के ऐतिहासिक उच्च स्तर पर बंद हुआ था। सोना-चांदी भी ऐतिहासिक ऊंचे स्तर पर चल रहे हैं। प्रापर्टी के दाम भी पुन: चढ़ने लगे हैं। वर्तमान समय में शेयर के साथ-साथ सोने के मूल्य में वृद्धि का कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण है। 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले वैश्विक परिस्थितियों का हमारी अर्थव्यवस्था पर कम प्रभाव पड़ता था। सोने के आयात तथा विदेशी पूंजी के निवेश पर सरकार ने प्रतिबंध लगा रखे थे। विश्व बाजार में सोने के मूल्य में उतार-चढ़ाव का भारत में प्रभाव नहीं पड़ता था, जैसे कमरे में बंद व्यक्ति पर बाहर चल रहे अंधड़ का प्रभाव कम पड़ता है। अब सोने का आयात खोल दिया गया है। फलस्वरूप, भारत में सोने का मूल्य वैश्विक मूल्य के साथ उतरता-चढ़ता है। अत: वर्तमान तेजी को समझने के लिए वैश्विक परिदृश्य को समझना होगा। विश्व के निवेशक सदा सुरक्षित निवेश करने के स्थान की खोज में रहते हैं। गृहिणी अपनी बचत को सरकारी बैंक में फिक्स डिपॉजिट में रखती हैं। वे शेयर या प्रापर्टी नहीं खरीदतीं। इसी प्रकार विश्व के तमाम निवेशक सुरक्षित निवेश की खोज में लगे रहते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के पहले ब्रिटिश पाउंड को सुरक्षित माना जाता था। विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी डॉलर ने विश्व मुद्रा का स्थान ले लिया। दस साल पहले तक निवेशक मानते थे कि अमेरिकी सरकार के ट्रेजरी बांड में निवेश की गई रकम सुरक्षित रहेगी। अमेरिका की अर्थव्यवस्था विशाल होने के साथ-साथ तेजी से बढ़ रही थी। लोगों को इसके टूटने का तनिक भी भय नहीं था। अत: सुरक्षा की चाह रखने वाले निवेशक अमेरिकी कंपनियों के शेयर, अमेरिकी प्रापर्टी अथवा अमेरिकी सरकार द्वारा जारी बांड खरीद लेते थे। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता के तीन कारण थे। पहला यह कि अमेरिका में नई तकनीकों का तेजी से आविष्कार हो रहा था, जैसे एटमी ऊर्जा, जेट हवाई जहाज, पर्सनल कंप्यूटर इत्यादि। यह हाईटेक माल बेचकर अमेरिका भारी लाभ कमा रहा था। दूसरा यह कि प्राकृतिक संसाधनों की खोज और उपयोग में वह आगे था, जैसे प्रथम विश्व युद्ध के पहले विश्व में ईंधन तेल मुख्यत: अमेरिका के टेक्सास राज्य में पाया जाता था। अरब देशों की धरती के नीचे पड़े तेल का इन्हें ज्ञान नहीं था। तीसरा कि अमेरिका में बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था थी। कठोर प्रतिस्पर्धा की मारकाट में अमेरिकी कंपनियां उच्च गुणवत्ता का माल बनाती थीं। इन्हीं गुणों के कारण अमेरिकी कंपनियों को बेहतर माना जाता था। पिछले चार-पांच वषरें में परिस्थिति में मौलिक बदलाव हुआ है। नए हाईटेक उत्पादों के आविष्कार में ठहराव-सा आ गया है। 90 के दशक में इंटरनेट के बाद कोई प्रभावी आविष्कार नहीं हुआ है। दूसरे देश भी अपने प्राकृतिक संसाधनों की खोज में लगे हुए हैं, जैसे भारत ने आफशोर तेल के कुएं स्थापित किए हैं। बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था भी तमाम देशों ने अपना ली है। इस प्रकार अमेरिका की विशेषताओं का विस्तार हो गया है। तदानुसार अमेरिका की श्रेष्ठता ढीली पड़ गई है। साथ-साथ अमेरिका भारी मात्रा में कर्ज लेता जा रहा है। अमेरिकी ट्रेजरी बांड की मांग अधिक होने से अमेरिका बड़ी मात्रा में इन्हें छापता गया और विदेशी निवेशकों से रकम लेता गया। कई विश्लेषकों का मानना है कि इस कर्ज के भार से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पस्त हो सकती है। साथ-साथ डॉलर के टूटने की संभावना बनती है। इसलिए वर्तमान में विश्व के निवेशक अमेरिकी शेयर, प्रापर्टी अथवा बांड खरीदने में हिचक रहे हैं। दूसरी स्थिर और प्रभावशाली मुद्रा दिख नहीं रही है। फलस्वरूप वे सुरक्षा की दृष्टि से सोने और चांदी की खरीदारी कर रहे हैं। इसीलिए इन धातुओं का मूल्य चढ़ रहा है। सोने के मूल्य में यह वृद्धि टिकना या टूटना इस बात पर निर्भर करेगी कि दूसरी वैश्विक मुद्रा का उदय होता है या नहीं? वर्तमान में किसी दूसरी मुद्रा के प्रभावशाली होने की संभावनाएं कम दिखती हैं। चीन की अर्थव्यवस्था में खुलापन और पारदर्शिता नहीं है। यूरोप संकट में है, जैसा ग्रीस, आयरलैंड और पुर्तगाल की समस्याओं में दिखता है। भारत में सामाजिक स्थिरता नहीं है। रूस खंडित हो चुका है। अत: मेरा अनुमान है कि निवेशक सोना-चांदी में निवेश करते रहेंगे और इनका ऊंचा मूल्य टिकेगा। हमारे शेयर बाजार में आ रहे उछाल का भी वैश्विक आधार है। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद हमारी कंपनियों को खुली सांस लेने का मौका मिला है। स्वदेशी जागरण मंच एवं वाम पार्टियों के विरोध के कारण कांग्रेस एवं भाजपा सरकारें विदेशी कंपनियों को ताबड़तोड़ प्रवेश की छूट नहीं दे सकीं थीं। इससे भारतीय कंपनियों को वैश्विक कार्यप्रणाली, क्वालिटी कंट्रोल तथा तकनीकों को हासिल करने का अवसर मिल गया था। आज भारतीय कंपनियां भारी लाभ कमा रही हैं, जबकि अमेरिकी कंपनियां संकट में हैं। हमारे पास सस्ते श्रम और उच्च तकनीकों का विजयी संयोग उपलब्ध है। भारतीय श्रमिकों के वेतन में विशेष बढ़त होने की संभावना भी कम ही है। चुनिंदा बड़े शहरों में श्रम की मांग बढ़ने से सामान्य वेतन नहीं बढ़ता है। विकसित देशों की तुलना में हमारे श्रमिकों का वेतन लंबे समय तक कम रहेगा। इसलिए हमारा माल सस्ता पड़ता रहेगा और हमारी कंपनियां भारी लाभ कमाती रहेंगी। मूल बात है कि अमेरिकी डालर के टूटने से सुरक्षा चाहने वाले निवेशक सोना-चांदी खरीद रहे हैं और इनका दाम बढ़ रहा है। निवेशक भारतीय कंपनियों के शेयर खरीद रहे हैं और हमारा शेयर बाजार उछल रहा है। यह सुखद परिस्थिति टिकेगी। एकमात्र खतरा आंतरिक विस्फोट का है। सस्ते श्रम और बढ़ती अमीरी से गरीब का मन उद्वेलित होता है। आने वाले समय में नक्सलवाद सरीखे आंदोलन जोर पकड़ सकते हैं। इससे हमारी अंतरराष्ट्रीय साख पर आंच आएगी और हमारा शेयर बाजार टूट सकता है। हमें तत्काल ऐसी आर्थिक नीतियां बनानी चाहिए कि आर्थिक विकास का लाभ गरीबतम व्यक्ति तक पहुंचे और अमीरी का अभद्र एवं उत्तेजक प्रदर्शन न किया जाए। (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

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