Tuesday, December 28, 2010

लुभाते रहे आंकड़े, रुलाती रही महंगाई

आप किसी अर्थशास्त्री से भारतीय अर्थव्यवस्था का हालचाल पूछिए तो वह उत्साह से उछल पड़ेगा और एक से बढ़कर एक आंकड़े देगा, जो साबित करेंगे कि भारत की अर्थव्यवस्था वाकई पूरी दुनिया के लिए चीन के बाद सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र क्यों है? जब यूरोप में या तो अर्थव्यवस्थाएं नकारात्मक हो रही हों या मंदी से उबरने के लिए जूझ रही हों, उस माहौल में भारतीय अर्थव्यवस्था का औद्योगिक उत्पादन 10 फीसदी के ऊपर लगातार बने रहना, विनिर्माणबिजली तथा दूसरे फास्ट मूविंग गुड्स कैरिअर्स के संदर्भ में 11 फीसदी से ऊपर की विकास दर। यह सब अगर चमत्कारिक नहीं तो बेहद आकर्षक तो लगता ही है। सिर्फ ये आंकड़े ही नहीं, अर्थव्यवस्था से संबंधित और भी कई आंकड़े चमत्कृत करते हैं। जैसे, प्रति 10 ग्राम 21,050 रुपये में पहुंचने के बावजूद सोने की मांग देश में न सिर्फ बरकरार है, बल्कि पिछले साल के मुकाबले इस साल यह 10 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है। मतलब यह है कि भारत में इतना महंगा सोना खरीदने वाले भी न सिर्फ मौजूद हैं, बल्कि बढ़ रहे हैं। यही बात चांदी की कीमतों के संदर्भ में भी लागू होती है। चांदी भी इस साल 45,200 रुपये प्रति किलो का एवरेस्ट जैसा दिखने वाला शिखर पार कर गई। अगर अर्थव्यवस्था को वसूले गए अप्रत्यक्ष करों की कसौटी में कसकर देखें तो भी देश की तरक्की चमत्कृत करती है, क्योंकि इस साल अप्रत्यक्ष कर संग्रह में 42.3 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2009 में जहां 1,45,958 करोड़ रुपये का परोक्ष कर वसूला गया था, वहीं वर्ष 2010 में यह बढ़कर 2,07,756 करोड़ रुपये हो गया है, जो इस बात का सबूत है कि देश में कर वसूली में भी काफी तेज बढ़ोतरी हुई है। हालांकि इस साल यानी 2010-2011 के लिए अप्रत्यक्ष कर वसूली का लक्ष्य 3,13,471 करोड़ रुपये का रखा गया है और वित्तीय वर्ष खत्म होने तक इसके हासिल होने की उम्मीद है। अगर आंकड़ों से ही खुश होना हो तो यह भी जान लें कि इस साल हमने जीडीपी ग्रोथ रेट के मामले में चीन को पछाड़ दिया है। हमारे यहां सरकारी और निजी दोनों ही मांगों में इस साल बढ़ोतरी दिखी है। हां, आयात और निर्यात को अगर तुलनात्मक कसौटी में रखें तो अभी भी हमारा आयात, निर्यात के मुकाबले काफी ज्यादा है। 2009-10 के वित्तीय वर्ष में 176.5 फीसदी निर्यात के मुकाबले आयात का प्रतिशत 278.7 रहा। निवेश के मामले में भी भारतीय अर्थव्यवस्था ने पूरे के पूरे अंक हासिल किए हैं। 2010 में निवेश के मोर्चे पर दहाई के अंक में बढ़ोतरी हुई है और औसत 13 से 15 फीसदी के बीच रहा है। कृषि उत्पादन की दर में भी बढ़ोतरी हुई है और कई दूसरे पहलू भी अर्थव्यवस्था की चमक बिखरते नजर आएंगे। मसलन, यह पहला साल है जब सर्राफा बाजार और शेयर बाजार एक साथ आसमान छू रहे हैं। शेयर बाजार 21,000 के ऊपर का शिखर छुआ तो सोना भी उसी के साथ 21,000 प्रति 10 ग्राम के पार पहुंच गया। लेकिन ये तमाम आंकड़े जितने लुभावने हैं, उतने ही भ्रामक भी हो सकते हैं। दरअसल, ये आंकड़े सच तो हैं, लेकिन ये बात को पूरी सच्चाई के साथ नहीं कहते या यों समझ लीजिए कि देश में अर्थव्यवस्था की जो सुनहरी धूप है, वह सिर्फ थोड़े से या कहें मुट्ठीभर हिंदुस्तानियों के खाते में ही आ रही है। देश का बड़ा हिस्सा इस चमत्कारी विकास दर को सिर्फ दूर से ही देख और सुन रहा है, पर अपनी जिंदगी में महसूस नहीं कर पा रहा है। आम लोगों की नजर में तो यह साल बाकी कई सालों की तरह ही महंगाई के मामलों में रुलाने वाला साल रहा। इस समय जब साल के आखिर में मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं, बाजार में प्याज 60 रुपये किलो बिक रहा है। पेट्रोल के दामों में पूरे साल में पांचवीं बार बढ़ोतरी हो चुकी है। सरकार चाहे दिल्ली की हो, केंद्र की हो या किसी राज्य की, भले कुछ भी दावा करे, मगर खाने पीने की चीजों में एक बार जो महंगाई बढ़ी है, वह महंगाई लौटकर न कम हुई और न पूरी तरह से कम हो सकती है। भले 100 रुपये किलो आज अरहर की दाल न हो, लेकिन 70 से 75 रुपये प्रति किलो बिक रही है। आम लोगों के लिए अरहर की दाल खाना अब लग्जरी हो गया है। वर्ष 2010 आम लोगों के लिए महंगाई के मामले में हाहाकारी साल रहा। महंगाई हर गुजरते दिन के साथ आम भारतीय का जीना दुश्वार करती रही, वहीं आंकड़े भले कुछ और कहते रहे हों। दूध, आटा, मसाले, सब्जियां, फल जैसी रोजमर्रा की इस्तेमाल वाली चीजें साल में बार-बार महंगी होकर आम लोगों को रुलाती रहीं। लेकिन आंकड़े यहां भी कुछ और ही कहते रहे, जैसे मुद्रास्फीति की दर और थोक मूल्य सूचकांक तो घटते दिखे, लेकिन बाजार में चीजें महंगी मिलीं। अब इसके लिए लगाते रहिए अंदाजा कि क्या-क्या वजहें जिम्मेदार हैं? मगर असली बात यही है कि इस देश में आम लोगों को अर्थशास्त्र के विशेषज्ञों का अर्थशास्त्र कतई समझ में नहीं आता। अर्थव्यवस्था के कुछ कुदरती कारक होते हैं, जिनसे वह घटती बढ़ती है यानी हमारे खुश होने और परेशान होने में कुदरत का भी योगदान कम नहीं होता। हालांकि इस साल मानसून की बारिश पिछले कई सालों के मुकाबले भरपूर हुई और इससे खेती की पैदावार में चार फीसदी की बढ़ोतरी का भी अनुमान लगाया गया, लेकिन जहां मानसून की बारिश ने हमें यह खुशी दी, वहीं गैर मौसमी बारिश ने काफी दुख दिया। फिलहाल जो प्याज की कीमतें नए रिकार्ड बना रही है, उनके पीछे भी यह मानसून की बारिश ही है। यही नहीं, इस साल की मानसूनी बारिश के चलते देश के अधिकांश इलाकों में बाढ़ आई और वह बाढ़ अर्थव्यवस्था की नजर में काफी कुछ खलनायक जैसी भी रही। जैसे, पंजाब में एक बड़े रकबे की धान की खेती बर्बाद हो गई। उत्तराखंड के तराई इलाकों में पूरी तरह से फसल चौपट हो गई। वहीं दक्षिण के प्रांतों में नवंबर-दिसंबर के महीनों में हुई बारिश ने फसलों को काफी नुकसान पहुंचाया। देश में अर्थव्यवस्था की दिशा ही तय करती है कि हमारे लक्ष्य क्या हैं? जिस तरह से देश की अर्थव्यवस्था में आयात का चलन बढ़ रहा है, उससे सरकार की कई आर्थिक नीतियों पर सवालिया निशान लगते दिख रहे हैं। 2010 में खाद्य तेलों पर 35 फीसदी से ज्यादा हमारी निर्भरता आयातित तेलों पर हो गई है। कुछ इसी तरह का माजरा दालों के मामले में भी दिखने लगा है। दालें भारतीय अर्थव्यवस्था की बहुत महत्वपूर्ण खाद्य सामग्री हैं और दालों के पैदावार में लगातार कमी आ रही है। 2010 दालों की पैदावार के लिहाज से एक और बुरा साल रहा। 15 से 25 फीसदी तक दालों की पैदावार में कमी देखी गई। दालों के मामले में हमारी सबसे नाजुक स्थिति अरहर की दाल से होती है और इसकी पैदावर में बाकी दालों के मुकाबले और भी ज्यादा कमी आई है। बर्मा, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमेरिका से आयात करने के बावजूद हम जरूरी और पर्याप्त दालों का जुगाड़ नहीं कर पा रहे, क्योंकि अरहर की दाल इन देशों में भी कम पैदा होती है। इसलिए अरहर की दाल खाने वालों के लिए विशेषकर उत्तर भारतीयों के लिए यह साल थोड़ा स्वाद खराब करने वाला रहा। मगर उम्मीद है कि अगले कुछ सालों में ये तमाम स्थितियां नई करवट लेंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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