Friday, December 16, 2011

अर्थव्यवस्था की असलियत


आर्थिक मोर्चे की विफलता का कोई विकल्प नहीं होता। अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का ज्ञान भारत के किसी काम नहीं आया। वह डीजीपी का नाम जपते नहीं अघाते थे, लेकिन विकास दर लुढ़कनी शुरू हुई तो फिर लुढ़कती ही चली गई। यह 2010 की पहली तिमाही जनवरी-मार्च में 9.4 थी, दूसरी तिमाही में 9.3 प्रतिशत हुई और साल के आखिर में 8.3 प्रतिशत ही रह गई। चालू बरस 2011 में घटकर लगभग 7.6 फीसदी पर पहुंच गई है। अर्थव्यवस्था की मध्यावधि समीक्षा में आर्थिक विकास दर का लक्ष्य 7.5 प्रतिशत रखे जाने के संकेत हैं। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने 9 प्रतिशत विकास दर हासिल करने में नाकामी के लिए यूरोपीय आर्थिक संकट को दोषी बताया है। भारतीय मुद्रा रुपया पहले से ही कमजोर थी। वह अब 54 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर है। इस वजह से आयात महंगा होगा। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के राज में देश महंगाई डायन के जबड़े में है। रिजर्व बैंक ने 2010 से लेकर कोई 13 दफा ब्याज दरें बढ़ाई हैं, लेकिन महंगाई का कोप खाद्य वस्तुओं का घेरा तोड़कर उपभोक्ता वस्तुओं तक जा पहुंचा है। रसोई गैस सहित पेट्रो पदार्थों की मूल्यवृद्धि से कोहराम है। बावजूद इसके केंद्र अपनी विफलता का ठीकरा विपक्ष और विश्व अर्थव्यवस्था पर फोड़ रहा है। अर्थव्यवस्था अर्थशास्त्र से नहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति से चलती है। अर्थशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार ज्यादा मांग और कम पूर्ति के कारण दाम बढ़ते हैं और ज्यादा पूर्ति तथा कम मांग के कारण घटते हैं। सरकार ने महंगी वस्तुओं के पूर्ति पक्ष की उपेक्षा की। उसने बिचौलियों द्वारा पैदा कृत्रिम अभाव पर ध्यान नहीं दिया। अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा। रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें बढ़ाकर महंगाई रोकने का फैसला किया। बैंक कर्ज की ब्याज दरें महंगी हो गईं। ये मार्च 2010 में 5 प्रतिशत थीं, लेकिन बार-बार की बढ़त से नवंबर 2010 में 6.25 प्रतिशत हो गईं। चालू बरस 2011 की जनवरी के 6.50 प्रतिशत से बढ़ते हुए अक्टूबर में 8.50 प्रतिशत हो गईं। इससे मध्यम वर्ग की कठिनाई बढ़ी। उद्योग वर्ग को निवेश में दिक्कतें आईं। सरकार ने सीधी सी अर्थशास्त्रीय बात की उपेक्षा की, बाजार में धन नहीं होगा तो मांग कहां से आएगी। मांग नहीं होगी तो औद्योगिक उत्पादन क्यों होगा? सो औद्योगिक उत्पादन में भारी गिरावट आई। बीते साल 2010 के अक्टूबर में औद्योगिक उत्पादन वृद्धि की दर 11.3 प्रतिशत थी। पिछले साल की तुलना में इस वर्ष 2011 के अक्टूबर में यह दर 5.1 प्रतिशत ही रह गई। औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के लिए भी सरकार ने स्वयं को जिम्मेदार नहीं माना। इस गिरावट के लिए भी यूरोपीय अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं के प्रभाव को ही जिम्मेदार बताया जा रहा है। आखिरकार यूरोपीय अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं की सुस्ती के विरुद्ध भारतीय नेताओं की चुस्ती क्या थी? प्रधानमंत्री और संपूर्ण सरकार पर ही अर्थव्यवस्था को कल्याणकारी बनाने की जिम्मेदारी है, लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की सरकार का राजकोषीय घाटा भी स्वयं उनके अपने अनुमान से छलांग लगाकर आगे निकल गया। 2011-12 के बजट में 4.6 प्रतिशत के राजकोषीय घाटे का अनुमान था, लेकिन बीते अक्टूबर तक ही यह 3.07 लाख करोड़ रुपये हो गया था। उद्योग क्षेत्र पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। ढेर सारे अर्थशास्त्री हैं। आंकड़ों की चतुराई और बाजीगरी है। ऊंची विकास दर का ऐलान हो रहा है, बावजूद इसके समूची अर्थव्यवस्था का पहिया आगे बढ़ने के बजाय बैक मार रहा है। सकल घरेलू उत्पाद, विकास दर और विदेशी मुद्रा की बढ़त के नाम लेकर ही भारत आर्थिक महाशक्ति का दावा ठोंक रहा था। विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है। विकास दर घट रही है। निर्यात के आंकड़ों में भी त्रुटियां हैं। सरकार ने अपनी गलती स्वीकार की है। अर्थनीति ही राष्ट्र की रिद्धि, सिद्धि और समृद्धि का प्रमुख उपकरण है, लेकिन भारत की मुख्य समस्या राजनीति है। सत्तारूढ़ संप्रग का नेतृत्व सोनिया गांधी करती हैं। अर्थनीति के संचालन से उनका कोई लेना-देना नहीं है। अर्थनीति का नियंत्रण राजनीतिक इच्छाशक्ति से होता है, लेकिन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का राजनीतिक इच्छाशक्ति से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी वरिष्ठ राजनेता हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़े सरकारी फैसलों से उनका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। संप्रग-तंत्र में आर्थिक नीतियों को लेकर घोर अराजकता है। कोई महंगाई के लिए राजग को दोषी ठहराता है तो कोई इसे वैश्विक अर्थव्यवस्थओं का दुष्प्रभाव बताता है। अर्थशास्त्र के ज्ञानी प्रधानमंत्री महंगाई को तेज रफ्तार को विकास का परिणाम बता चुके हैं। वित्तमंत्री प्रणब के मुताबिक महंगाई घट गई है। यही स्थिति विकास दर को लेकर भी है। प्रधानमंत्री विकास दर को लेकर खुश थे। वित्तमंत्री ने फरवरी 2011 के बजट भाषण में विकास दर के 9 प्रतिशत रहने का ऐलान किया था, लेकिन अब कहा है कि विकास दर 7.5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगी। विकास दर के दावे थोथे साबित हुए हैं। मनमोहन अर्थव्यवस्था की तस्वीर घोर निराशाजनक है। उनके अपने आकलन और मूल्यांकन ही ध्वस्त हो गए हैं। जमीनी हालत बद से बदतर हैं। वह कहते हैं कि महंगाई घटी है, लेकिन चीनी महंगी है, दूध महंगा है, दवाइयां महंगी हैं, शिक्षा और चिकित्सा की महंगाई आसमान पर है। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस महंगे हैं। औद्योगिक उत्पाद महंगे हो रहे हैं। रोटी, कपड़ा की महंगाई के साथ मकान भी महंगे हैं। प्रधानमंत्री की मानें तो महंगाई भारी समृद्धि का नतीजा है। कृष्णपक्ष दूसरे भी हैं। भवन निर्माण क्षेत्र सहित अधिकांश औद्योगिक उत्पादनों में गिरावट है। औद्योगिक क्षेत्र केंद्र पर अनिर्णयग्रस्त होने का आरोप लगा चुका है। औद्योगिक क्षेत्र से प्रोत्साहन पैकेज की मांग उठी है। केंद्र 2008 में उन्हें तमाम सहूलियतें दे चुका है। कुछेक विमान कंपनियां भी राहत चाहती हैं, लेकिन इसके ठीक उलट खाद सब्सिडी, गरीबों के इस्तेमाल वाले केरोसिन व बीपीएल के खाद्यान्न पर होने वाले सरकारी खर्च पर अर्थशास्ति्रयों की नजर टेढ़ी है। पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है। गहन अर्थचिंतन जरूरी है। प्रधानमंत्री का अर्थशास्त्र समझ के परे है। वह मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक हैं, विदेशी पूंजी के संरक्षक हैं, स्वदेशी पूंजी के विरोधी हैं। राष्ट्रीय समृद्धि से निरपेक्ष हैं। आश्चर्य है कि विकास दर घटी है, औद्योगिक उत्पादन की दर घटी है, मुद्रास्फीति बढ़ी है। महंगाई बढ़ी है, आमजन की क्रय शक्ति घटी है, भ्रष्टाचार बढ़ा है, ब्याज दरें बढ़ी हैं, नौकरियां घटने की संभावनाएं हैं, अनाज सड़ रहा है, लेकिन भुखमरी से मौतें बढ़ी हैं। अर्थव्यवस्था घोर निराशाजनक है। बावजूद इसके संप्रग मनमोहन अर्थशास्त्र की गाड़ी पर सवार हैं। आगे मंदी की खाई है, गाड़ी दुर्घटना बहुल क्षेत्र में फंस चुकी है। (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

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