Monday, December 5, 2011

खुदरा व्यापार थोक चुनौती


इसी का अंदेशा था। मनमोहन सिंह की सरकार ने विरोध की आवाजों को अनसुना करने और खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की इजाजत देने के अपने एजेंडे को लागू करने का फैसला कर लिया है। हालांकि संसद का सत्र चल रहा था, फिर भी कैबिनेट ने बैठक कर के बहु- ब्रांड खुदरा व्यापार में अब तक चली आ रही रोक को हटाकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत दे दी। इस तरह के निवेश के लिए 51 फीसद हिस्सा पूंजी की सीमा लगाई गई है, जो विदेशी निवेशकर्ता के लिए स्वामित्व का बहुमत सुनिश्चित करती है। इसके साथ ही एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में विदेशी हिस्सा पूंजी की सीमा बढ़ाकर 100 फीसद कर दी गई है यानी विदेशी निवेशकों को पूर्ण स्वामित्व का अधिकार होगा।
खुदरा श्रृंखलाओं की ताकत
यह तय है कि भीमकाय अंतरराष्ट्रीय खुदरा व्यापार कंपनियां विशाल भारतीय खुदरा व्यापार का एक हिस्सा हथियाने के लिए इस मौके का इस्तेमाल करेंगी। याद रहे दूसरे देशों में बिक्री से होने वाली आय, इस तरह की अनेक कंपनियों के राजस्व के प्रमुख स्रेतों में एक रही है। मिसाल के तौर पर 2007 में नीदरलैंड्स की कंपनी अहोल्ड का 74 फीसद राजस्व, फ्रांस की केरफोर का 52 फीसद राजस्व, जर्मनी की मैट्रो का 53 फीसद राजस्व, यूनाइटेड किंगडम की टेस्को का 22 फीसद राजस्व तथा अमेरिका की वॉल मार्ट का 20 फीसद राजस्व, दूसरे देशों में बिक्री के कारोबार से ही आ रहा था। याद रहे कि वॉल मार्ट का 20 फीसद भी, दूसरों के मुकाबले काफी ज्यादा था। 2007 में उसका राजस्व 379 अरब डालर का था, जो केरफोर से बहुत आगे था, जो 123 अरब डालर के राजस्व के साथ इस कारोबार में दुनिया भर में दूसरे नंबर पर थी। इन खुदरा बिक्री श्रृंखलाओं की ताकत, दूसरे देशों में जहां भी वे कारोबार करती रही हैं, खुलकर सामने आई है। अपने विराट संसाधनों तथा दुनिया में कहीं से भी सामग्री खरीदने की अपनी ताकत के बल पर ये श्रृंखलाएं खरीदी, भंडारण तथा वितरण के स्तर पर बड़े पैमाने से होने वाली बचत का पूरा-पूरा फायदा उठाती हैं और घरेलू बिचौलियों को प्रतियोगिता में पीटकर मैदान से बाहर कर देती हैं। याद रहे कि ऐसा किसी एक शहर में या कुछ केंद्रों में ही नहीं होता है क्योंकि ऐसी हरेक खुदरा व्यापार श्रृंखला अलग-अलग क्षेत्रों तथा शहरों में खरीदी, भंडारण तथा वितरण की सुविधाएं खड़ी करने की कोशिश करेगी। एक बार जब अपेक्षाकृत छोटे बिचौलियों को प्रतिस्थापित कर दिया जाता है, उसके बाद तो पूरा ताना-बाना मुट्ठी भर बड़ी फर्मो तथा उनके एजेंटों तक सिमट जाता है।
दोनों सिरों पर मार
उत्पादकों के साथ इन श्रृंखलाओं का रिश्ता मुट्ठीभर खरीददारों के तंत्र का होगा, जहां मुट्ठीभर खरीददार होंगे और बेचने वालों की विशाल संख्या होगी। अपनी संरचना में ही इस तरह की व्यवस्था, उत्पादकों को दी जाने वाली कीमत घटाने तथा उपभोक्ताओं से वसूल की जाने वाली कीमत बढ़ाने के जरिए व्यापार के मुनाफे बढ़ाने का आधार तैयार करती है। नए बिचौलिए इन बढ़े हुए लाभों को हड़प रहे होंगे। हो सकता है कि इस बढ़े हुए मुनाफे में से एक छोटा सा हिस्सा, खुदरा कारोबार में अपना हिस्सा बढ़ाने या कारोबार का कुल परिमाण बढ़ाने के लिए उत्पादक या खरीददार को भी मिल जाए, लेकिन इससे यह सच बदल नहीं जाएगा कि आपूर्ति की श्रृंखला में शक्तियों के संतुलन में इस तरह का बदलाव, बड़े बिचौलियों को ही लाभ पहुंचाने का काम करेगा। मध्य अवधि में इन भीमकाय खिलाड़ियों की प्रभुत्वशाली स्थिति ही, व्यापारिक मुनाफों के आकार तथा
दिशा, दोनों को ही तय कर रही होगी। इस तरह, उत्पादन के सिरे पर इसका वास्तविक खतरा है कि खुदरा कारोबार में मुट्ठीभर इजारेदाराना खरीददारों का बोलबाला होने के चलते, खासतौर पर खेती के मामले में, छोटे आपूर्तिकर्ताओं को दिए जाने वाले दाम तथा उन्हें मिलने वाले लाभ नीचे धकेल दिए जाएंगे। चूंकि पहले ही किसानी उत्पादन की आर्थिक वहनीयता बहुत ही कमजोर है, इस तरह का बदलाव खेती में लगे लोगों की आजीविकाओं के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। दूसरी ओर, एक बार जब खुदरा व्यापार चंद फर्मो के हाथों में सिमट जाएगा, खुदरा व्यापार के मुनाफे भी बढ़ सकते हैं और इसका अर्थ यह है कि उपभोक्ताओं से वसूल किए जाने वाले दाम बढ़ सकते हैं।
रोजगार पर भारी हमला
खुदरा आपूर्ति के ताने-बाने में, किराना स्टोरों से लेकर पटरी-रेहड़ी दूकानदारों तक, छोटे खुदरा व्यापािरयों को ही बाहर नहीं धकेला जा रहा होगा बल्कि मझोले तथा बड़े थोक व्यापारियों को भी बाहर धकेला जा रहा होगा, जो इन भीमकाय कंपनियों की सीधे उत्पादकों से खरीदी करने की सामथ्र्य के सामने अप्रासंगिक हो जाएंगे। इसका तत्काल तथा सीधा असर तो यही होगा कि छोटे व असंगठित खुदरा व्यापार में भी और बड़ी-बड़ी खुदरा बिक्री श्रृंखलाओं द्वारा प्रतिस्थापित किए जाने वाले थोक व्यापार के हलकों में भी, भारी संख्या में रोजगार छिन रहे होंगे। यह आघात कितना भारी हो सकता है, इसका अंदाजा हमारे देश में रोजगार मुहैया कराने में खुदरा तथा थोक व्यापार की भूमिका को सामने रखकर लगाया जा सकता है। राष्ट्रीय नमूना सव्रे के रोजगार तथा बेरोजगारी संबंधी सव्रेक्षण के अनुसार, 2009-10 में देश की कुल 45 करोड़ 90 लाख की श्रमशक्ति में से 4 करोड़ 40 लाख को सेवाओं के क्षेत्र में ही काम मिला हुआ था, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा थोक व खुदरा व्यापार का ही है। इसके अलावा इस श्रेणी में ऑटोमोबाइल तथा निजी व घरेलू उपयोग की वस्तुओं की मरम्मत के काम में लगे लोगों का अपेक्षाकृत छोटा हिस्सा शामिल है। यह सही है कि विदेशी निवेश से संचालित खुदरा कारोबार का सीधा असर तो शहरी इलाकों तक ही सीमित रहेगा क्योंकि इस तरह के कारोबार की इजाजत सिर्फ ऐसे शहरों में दी जा रही है, जिनकी आबादी दस लाख से ज्यादा हो। लेकिन यहीं तो खुदरा व्यापार में सबसे ज्यादा लोगों को काम मिला हुआ है। इस क्षेत्र में काम में लगे कुल 4 करोड़ 40 लाख लोगों में से 2 करोड़ 60 लाख तो इन शहरी इलाकों में ही हैं। वास्तव में इनमें से बहुत से लोग तो सेवाओं के (खासतौर पर खुदरा व्यापार के) क्षेत्र में इसीलिए पहुंच गए हैं कि उनके लिए खेती तथा विनिर्माण के क्षेत्रों में रोजगार के समुचित अवसर उपलब्ध नहीं थे। शहरी इलाकों में सेवाओं के क्षेत्र में जो 7 करोड़ 10 लाख रोजगार उपलब्ध हैं, उनमें से करीब 36 फीसद खुदरा व थोक व्यापार और मरम्मत की सेवाओं के क्षेत्र में ही हैं। कुल मिलाकर यह कि रोजगार के लिहाज से यह क्षेत्र, हमारे देश में आम लोगों की आजीविकाओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह दूसरी बात है कि इस क्षेत्र में उपलब्ध रोजगार का एक हिस्सा, बहुत ही कमजोर हैसियत के रोजगार का है। यह वास्तव में सामाजिक सुरक्षा के ताने-बाने के अभाव में बहुत ही दरिद्र विकल्प है।
संदिग्ध दावे
सरकार के इस तरह के दावे पूरी तरह से संदिग्ध हैं कि बहुराष्ट्रीय फर्मो के माध्यम से बड़ी खुदरा श्रृंखलाओं के प्रवेश से, हमारे देश में खुदरा व्यापार से मिलने वाले रोजगार पर कोई असर नहीं पड़ेगा बल्कि रोजगार में खासी बढ़ोतरी ही होगी। सरकार की ओर से किए जा रहे ये दावे, बड़ी खुदरा व्यापार श्रृंखलाओं के आने से मिलने वाले प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रोजगार को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं और उनके आने से खत्म होने वाले रोजगारों को अनदेखा ही करते हैं। विदेशी निवेशकर्ताओं के लिए कम से कम 10 करोड़ डॉलर के निवेश की जो शर्त लगाई गई है, उसका अर्थ यह है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ऐसी इकाइयों के लिए आमंत्रित किए जा रहे हैं, जो ज्यादा प्रौद्योगिकी सघन होंगे और कम श्रम-सघन। दूसरी ओर, इस कारोबार का प्रवेश दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों तक सीमित रखने के जरिए, रोजगार पर इसके विनाशकारी प्रभाव को कम करने की उम्मीद झूठी है। इस तरह की सीमा लगाने से न तो छोटे शहरों में खुदरा कारोबार को वॉल मार्ट आदि की प्रतियोगिता से मुक्ति मिलेगी और न इस तरह की प्रतियोगिता का जिन ठिकानों पर ज्यादातर सामना करना पड़ेगा उनमें ही कोई बदलाव आएगा। इसके बावजूद, वाणिज्य मंत्री का दावा है कि इस नीति पर अनोखी भारतीय छापहै और इसके चलते हमारे देश में इसका असर बहुत ही अलग किस्म का रहेगा। इस अनोखी भारतीय छाप के एक पहलू पर नजर डाल लें। यह शर्त लगाई गई है कि विदेशी खुदरा व्यापार श्रृंखलाओं को, विनिर्मित या प्रसंस्कृत उत्पादों की अपनी जरूरत का 30 फीसद, लघु तथा मंझोले उद्यमों से खरीदना होगा। इस शर्त को, जिसे सेल्फ सर्टिफिकेशन के आधार पर तथा इस प्रक्रिया की निगरानी के जरिए चलाया जाना है, भारत में भी व्यवहार में लागू हो पाना मुश्किल है। लेकिन, यह शर्त चूंकि दुनिया में कहीं के भी ऐसे उत्पादकों से खरीद की इजाजत देती है, निर्थक ही हो जाती है। वाणिज्य मंत्रालय के इससे संबंधित ब्रीफिंग पेपर में यह दर्ज किया गया है कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि वि व्यापार संगठन के नियमों का कोई उल्लंघन न हो, ‘30 फीसद खरीदी अति-लघु व लघु उद्यमों से करनी होगी, जो दुनिया में कहीं से भी की जा सकती है और भारत तक ही सीमित नहीं है।इस शर्त को लागू करना नामुमकिन होगा और वास्तव में यह शर्त तो घरेलू उत्पादकों की कीमत पर अंतरराष्ट्रीय स्रेतों से खरीदी को ही बढ़ावा देगी।
जल्दबाजी का फैसला
हमारे देश में खुदरा व्यापार का तानाबाना ठीक-ठाक तरीके से काम करता आया है, कोई उल्लेखनीय तंगियां भी नहीं हैं। एक सरकार ही है जो इस तरह की दलील दे रही है कि खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, देश के सामने खड़ी लगातारी मुद्रास्फीति की समस्या का उपचार कर सकता है। हमारे यहां अपूर्ति के ताने-बाने की अगर कोई कमजोर कड़ी है, तो वह है सार्वजनिक वितरण पण्राली। याद रहे कि इस पण्राली को यह सुनिश्चित करने के लिए खड़ा किया गया था कि किसान को अपनी पैदावार के लाभकारी दाम मिलें और उपभोक्ता को, उचित दाम पर अपनी जरूरत की चीजें मिलें। वास्तव में जरूरत इसकी थी कि सरकार इस सार्वजनिक वितरण पण्राली पर और उत्पादकता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक निवेश पर ही ध्यान देती। अचरज नहीं है कि बहु ब्रांड खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने के फैसले को देश में शायद ही कोई खास समर्थन मिल रहा है। विपक्ष ने, जो पहले ही मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार तथा काले धन पर अंकुश लगाने में सरकार की विफलता के खिलाफ पहले ही आवाज उठा रहा था, इस फैसले पर भारी नाराजगी जताई है। संसद ठप पड़ी है। इस तरह दूसरे महत्वपूर्ण विधेयकों व मुद्दों का भविष्य अधर में है। यूपीए में कांग्रेस के कुछ सहयोगियों ने भी इस कदम पर अपना विरोध जताया है। यह तो वक्त ही बताएगा कि यूपीए की आर्थिक नीतियां तय करने वाले अपने इस कदम से पीछे हटने के लिए तैयार होते हैं या नहीं। सरकार को इसका अंदाजा तो जरूर रहा होगा कि उसके कार्यपालिका के स्तर के फैसले का विरोध होगा। लेकिन, शायद उसने सोचा होगा कि वह अपने रुख पर कायम रह सकेगी और आखिर में अपनी मर्जी चला सकेगी। इसलिए, यह रस्साकशी लंबी चलेगी और सामाजिक रूप से नुकसानदेह ही साबित होगी।

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