Friday, December 2, 2011

बढ़ती ही रहेगी महंगाई

शीत सत्र की शुरुआत से ही संसद ठप है। गतिरोध की वजहों में महंगाई का मुद्दा भी शामिल है। सवाल उठता है कि क्या संसद सत्र को ठप करके मंहगाई पर काबू पाया जा सकता है? क्या बहस से मंहगाई काबू में आ जाएगी? पिछले अनुभवों से तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन यह बात शायद विपक्षी नेताओं की समझ में नहीं आ रही है। सचाई यह है कि विकास के पायदान पर ऊपर की ओर अग्रसर देश में बढ़ती मंहगाई पर काबू पाना लगभग नामुमकिन है। खुली अर्थव्यवस्था में बाजार ही सब कु छ तय करता है जो मांग और आपूर्ति के बहुत ही आधारभूत सिद्धांत पर चलता है । पिछले दो दशकों में हमारे देश में हर चीज की मांग में जबरदस्त इजाफा हुआ है आपूर्ति में बढ़ोतरी नहीं हुई। लिहाजा वस्तुओं के दाम बढ़े हैं। इस अवधि में भारतीयों की खर्च करने की क्षमता में भी तकरीबन दो गुना इजाफा हुआ है। भारत में एक नए मध्यवर्ग का उदय हुआ है जिसके पास पैसा हैं। मैंकेजी के एक सर्वे के मुताबिक अगर भारत की विकास दर भविष्य में वर्तमान स्तर पर कायम रहती है तो भारतीय बाजार और उपभोक्ताओं के नजरिए में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है। एक मजबूत और नए मध्यवर्ग का उदय संभव है जिसकी आय अगले दो दशकों में लगभग तिगुनी हो जाएगी। इसका फायदा सिर्फ शहरी मध्यवर्ग को नहीं होगा बल्कि ग्रामीण क्षेत्र के हाउसहोल्ड आय में भी बढ़ोतरी होगी। जिस ग्रामीण हाउसहोल्ड की आय अभी 2.8 प्रतिशत है उसके अगले दो दशकों में बढ़कर 3.6 प्रतिशत हो जाने की उम्मीद है। जाहिर है, शहरी और ग्रामीण दोनों उपभोक्ताओं की खर्च करने की क्षमता में वृद्धि होगी। नतीजा यह कि खाद्य पदाथरे व अन्य जरूरतों पर लोगों का खर्च बढ़ेगा। यदि उस अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ता तो मूल्य बढ़ोतरी को कतई रोका नहीं जा सकता। गौरतलब है कि महंगाई सिर्फ भारत में ही नहीं बढ़ रही है। वि के कई अन्य देशों में जहां लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो रहा है, उनकी आय और क्रयशक्ति में बढ़ोतरी हो रही है। वहां हर तरह की कमोडिटी के दामों में इजाफा हो रहा है। एक अनुमान के मुताबिक अगले दो दशकों में वि में खाद्य पदाथरे से लेकर बिजली, पानी, पेट्रोल और गाड़ियों की मांग बेहद बढ़ जाएगी। हर तरह के कमोडिटी की खपत बढ़ने से कीमतों पर भारी दबाव पड़ सकता है। अंतराष्ट्रीय एजेंसी मैकेंजी की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कैलोरी खपत के बीस फीसद तक बढ़ जाने का अनुमान लगाया जा रहा है जिसका असर साफ तौर पर खाद्य महंगाई दर पर पड़ेगा और इस सेक्टर की कमोडिटी महंगी हो जाएगी। इसी तरह चीन में भी प्रति व्यक्ति मांस कीखपत में 60 फीसद तक बढ़ोतरी का अनुमान लगाया गया है। वहां मांस की खपत प्रति व्यक्ति 80 किलोग्राम तक सालाना होने का अनुमान है। अगले बीस सालों तक भारत में बुनियादी ढांचे पर भी खासा जोर दिए जाने की योजना है। अगर वह योजना परवान चढ़ती है तो निर्माण कार्य में इस्तेमाल होने वाली चीजों की खपत बढ़ेगी और अगर उस अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ा तो उसका दबाव भी मूल्य पर पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि कमोडिटी की खपत में इस तरह की बढ़ोतरी से भारत और वि का पहली बार पाला पड़ा है। बीसबीं शताब्दी में भी इस तरह का दबाव महसूस किया गया था जब पूरी सदी के दौरान वि की जनसंख्या तिगुनी हो गई थी और तमाम तरह की चीजों की मांग में भारी बढ़ोतरी देखने को मिली थी। लेकिन उस वक्त कीमतों पर यह दबाव इस वजह से ज्यादा महसूस नहीं किया गया था क्योंकि उस सदी के दौरान बहुत सारी वैकल्पिक वस्तुओं की खोज के अलावा पूरे वि में कृषि क्षेत्र में जबरदस्त बदलाव हुआ था। नतीजे में खाद्य उत्पादन में हुई बढ़ोतरी ने मूल्य के दबाव को थाम-सा लिया था और कीमतें बेकाबू नहीं हो पाई। लेकिन इस सदी में पिछली सदी के मुकाबले तीन तरह की दिक्कतें सामने आ रही हैं। कार्बन उत्सर्जन के चलते मौसम पर पड़ने वाले असर को लेकर जिस तरह से पूरे वि में जागरूकता आई है, उससे किसी भी प्रकार का अंधाधुंध उत्पादन संभव नहीं है। दूसरा यह कि अब कमोडिटी आपस में इस कदर जुड़ गए हैं कि एक-दूसरे को प्रभावित करने लगे हैं। मसलन, डीजल की कीमतों में इजाफा होता है तो उसका दबाव खाद्य पदाथरे के मूल्य पर भी पड़ता है । जरूरत इस बात की है कि सरकारें मूल्य रेगुलेट करने की बजाए कमोडिटी के उत्पादन और मांग के मुताबिक सप्लाई बढ़ाने की नीति बनाएं। इसमें आनेवाली बाधा दूर करें तभी महंगाई पर काबू पाया जा सकता है। अन्यथा हर तीन महीने पर बयान आते रहेंगे लेकिन कीमतें बढ़ती ही रहेंगी ।

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