Monday, December 5, 2011

दरवाजा नहीं, खिड़की खोलिए


देश के खुदरा व्यापार क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोल कर सरकार ने असामान्य साहस और दृढ़ता को दिखाया है। हालांकि एक नीतिगत इंतजाम शक-सुबहा को हटाने में मददगार हो सकता था लेकिन इसने राजनीतिक गर्द-गुब्बार को और घना तथा व्यापक कर दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि उदारीकरण के तहत खुदरा क्षेत्र में मल्टी ब्रांड के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सरकार का सालों से एजेंडा रहा है लेकिन संसद के शीत सत्र के जारी रहते कैबिनेट का इतना बड़ा फैसला लेने का समय एकदम ही गलत है। इसने खंडित विपक्ष को एक जुट होने का अवसर दे दिया है। आश्चर्यजनक रूप से एफडीआई का समर्थन करने वाली सत्ताधारी पार्टी और विरोध करने वाले इस दूरगामी फैसले के पक्ष और विपक्ष में लचर तर्क दे रहे हैं। दोनों पक्षों के पास मसले पर युक्तियुक्त बात कहने के लिए बेहद कम विसनीय अथवा प्रासंगिक अनुभव हैं। केंद्र सरकार की तरफ से दिये गए बयानों और राष्ट्रीय अखबारों में पूरे के पूरे पेजों के विज्ञापनों के जरिये यह समझाने की कोशिश की गई है कि खुदरा क्षेत्र में मल्टी ब्रांड में 51 फीसद की एफडीआई की इजाजत देने के फायदे ही फायदे हैं-इससे उपभोक्ताओं को ज्यादा से ज्यादा ब्रांडों में से चुनाव करने और उन्हें सस्ती दरों पर खरीदारी का अवसर मिलेगा, किसानों को उनकी पैदावार के अच्छे दाम मिलेंगे और छोटे उद्यमियों के लिए बड़े स्रेत बनेंगे। इन सबके साथ रोजगार बढ़ने के मौके मिलेंगे। इन परिणामों को हासिल करने के लिए ब्राजील, चीन, चिली और इंडोनेशिया के अनुभवों को हवाला दिया जा रहा है। इसके समर्थन में न तो उन उल्लिखित देशों के वैज्ञानिक अध्ययनों और विश्लेषणों के हवाले दिये जा रहे हैं और न ही भारत के, जिसके तहत बड़े फायदे होने के दावे किये जा रहे हैं। किसी भी मामले में ये दावे महज अनुमान हैं और वास्तविकता मेजबान देश के अन्य संबद्ध उपायों पर निर्भर करती है। जब तक कृषि उत्पाद विपणन कमेटी अधिनियमों में संशोधन नहीं किया जाता, खुदरा व्यापारी किसानों से सीधी खरीद नहीं कर सकते। छोटे-मंझोले उद्यमियों से 30 प्रतिशत मालों की खरीद अनिवार्य करने का आासन स्थानीय उत्पादकों तक सीमित नहीं है बल्कि इस बारे में वैिक नियमों का पालन ज्यादा बाध्यकारी बनाया गया है। निवेश का 50 फीसद हिस्सा आधारभूत ढांचे में लगाने की शर्त के अनेक मायने लगाये जा रहे हैं और इस पर वास्तविकता में अमल करना कठिन होगा; चूंकि निवेश अन्य व्यवसायों के मातहत करना होगा, जो केवल विपणन से ही वाकिफ नहीं होगा। तेजी से बनी विपक्षी एकता मजबूत धरातल पर टिकी नहीं दिखती। विपक्षी पार्टी भाजपा 2004 तक (कुछ सूत्रों के मुताबिक तो एनडीए वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री मुरासोली मारन ने 2002 में सौ फीसद एफडीआई का मसौदा तैयार कर लिया था) खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेश निवेश की इजाजत देने में फायदे देख रही थी और यहां तक कि इंडिया शाइनिंगघोषणापत्र में इसे शामिल भी किया था। इस मुद्दे पर उसका हृदय परिवर्तन तभी हो सका, जब उससे सत्ता छीन गई। एफडीआई को लेकर उसकी चिंता मोटे तौर पर 80 लाख किराना दुकानदारों की है, जिन्हें उसका समर्थक बताया जाता है, हो सकता है यह बात या आरोप सही हो, लेकिन भाजपा की आशंका सही तरीके से स्थापित तथ्यों पर आधारित नहीं है। देसी बड़े घरानों के आधुनिक तौर-तरीके और सुविधाओं से लैस भारी-भरकम खुदरा दुकानें अपने देश में कोई नहीं बात नहीं है, यह पिछले 15 वर्षो से चलन में हैं। इसका परम्परागत किराना स्टारों पर सकारात्मक असर पड़ा है कि वह अपने व्यापार में पहले की तुलना में ज्यादा चुस्त और उपभोक्ता सम्बन्धी सेवाओं में ज्यादा रचनात्मक हुए हैं। लगभग सभी ने अपने को प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में बनाये रखने का गुर सीख लिया है। इसका फायदा अंतत: उपभोक्ताओं को ही मिल रहा है। विदेशी घरानों द्वारा भारतीय बाजारों में निवेश और कामकाज का परम्परागत ढांचे पर बड़ा असर नहीं डालेगा जबकि यह तेजी से विकसित हो रहे घरेलू वित्तपोषित और आधुनिक स्टोरों के लिए उनके धन को प्रवाह देगा। वास्तव में यह वे हैं, जो पड़ोस के स्टोरों के प्रति सरोकार रखने वाला और उनका संरक्षक हैं।
आश्चर्यजनक रूप से इस वर्ग के भागीदारों ने सरकार की पहल का स्वागत किया है। संभवत: उन्हें उम्मीद है कि वह अपने ऊपर के अतिरिक्त भार की एक किस्त नये खिलाड़ी पर डाल देंगे। चूंकि एफडीआई देश के 53 शहरों-नगरों में, जिनकी आबादी 10 लाख से ज्यादा है, खोले जाने हैं। इस वजह से ग्रामीण इलाके और लगभग 8000 नगरों/शहरों में आबादी के आसपास चल रही दुकानें महफूज रहेंगी। लिहाजा, किसी भी तरह से एफडीआई का देश के 80 फीसद परम्परागत किराना दुकानों पर विपरीत असर नहीं पड़ने जा रहा है। हालांकि सरकार को अपने सहयोगियों के साथ-साथ वाम और दक्षिण पंथ के असहज गठजोड़ के सामने एक सुचिंतित रणनीति अपनानी चाहिए थी। इसकी आवश्यकता थी। इसलिए कि सरकार के गठित आयोग आईसीआरआईईआर ने 2007 में रिपोर्ट में चेताया था कि आधुनिक बड़े मॉलों के खुलने से देश का खुदरा क्षेत्र तत्काल अरक्षित हो जाएगा। इसमें चीन के अनुभवों के उदाहरण भी दिये गए थे। उसने एफडीआई की इजाजत देने में 14 साल लगाए थे। 2003 में डब्ल्यूटीओ की मेम्बरशिप पाने के लिए एफडीआई को हरी झंडी दिखाई थी। विदेशी निवेश को एक करोड़ या इससे ज्यादा आबादी वाले तीन नगरों और 50 लाख या इससे ज्यादा आबादी वाले आठ शहरों में ही इजाजत देने का विकल्प खुला रखा था। वह उदारीकरण के प्रभावों को देखना चाहता था। चीन ने इसकी प्रक्रिया 1989 में ही शुरू कर दी थी और प्रारंभ में इसे बीजिंग और शंघाई में अनुमति दी थी। उसने अन्य शहरों में स्टोरों की संख्या और इसके खोले जाने की संभावना सीमित रखी थी। उसी तरह हमारे लिए एक रास्ता हो सकता है कि हम विदेशी निवेश वाले स्टोरों की तादाद सीमित कर दें, जो 10 लाख से ज्यादा आबादी वाली जगहों पर ही खोले जाएं और नये खिलाड़ियों के चयन के मानक भी तय कर दिये जाएं। एक सरल तरीका यह हो सकता है कि उदारीकरण को समयबद्ध करते हुए इसे दो वर्षो तक के लिए इजाजत दी जाए। परिणाम के आधार पर इन स्टोरों की मियाद पांच साल तक बढ़ाई जा सकती है और तब एक सुचिंतित नीति अपनायी जा सकती है। (इंडियन एक्सप्रेस से साभार)

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