Wednesday, December 14, 2011

फुल स्पीड से मंदी की ओर

बात अब तक सरकारी हलकों में दबे-छिपे स्वर में कही जा रही थी, वरिष्ठ मंत्री, वरिष्ठ अफसर जिसे दबे-छिपे स्वीकारते थे- अब ऑफिशयिल हो गयी है। अर्थव्यवस्था तेजी से मंदी की ओर जा रही है। जिस अर्थव्यवस्था को ग्रोथ स्टोरी बताया जा रहा था, तमाम स्टॉक बाजारों के चैनल/एंकर यह बताते नहीं थकते थे कि भारतीय अर्थव्यवस्था शेर हो गयी है, दहाड़ रही है, शेयर बाजार छलांग लगाकर बहुत ऊपर जाने वाला है, उन्हीं तमाम स्टॉक बाजारों के चैनल/एंकर अब यह बताने में समय लगा रहे हैं कि मंदी चाहे जितनी हो, ज्यादा दिनों तक नहीं रुकेगी। पर मंदी चैनल/एंकरों के हिसाब से नहीं चलती। वह अपने हिसाब से चलती है। हाल में आये आंकड़ों के मुताबिक देश की औद्योगिक अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। अक्टूबर 2011 में अक्टूबर 2010 के मुकाबले औद्योगिक क्षेत्र में 5.1 प्रतिशत की गिरावट हुई है। कैपिटल गुड्स सेक्टर की हालत बहुत ज्यादा खराब है। कैपिटल गुड्स सेक्टर का मतलब वह सेक्टर है, जो बड़ी मशीनें बनाता है। अर्थव्यवस्था की फैक्टरियां जिन मशीनों के दम पर चलती हैं, उन्हें यही सेक्टर बनाता है और इसमें अक्टूबर 2011 में अक्टबूर 2010 के मुकाबले करीब पचीस प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है। कैपिटल गुड्स सेक्टर की एक बड़ी कंपनी एलएंडटी के मुखिया आईएम नायक का कहना है कि हो सकता है इस साल अर्थव्यवस्था छह प्रतिशत की दर से भी विकास न करे। हालांकि पहले कह रहे थे कि सात प्रतिशत के हिसाब से विकास होगा। जबकि तमाम सरकारी आकलन आठ से नौ प्रतिशत विकास दर की बात कर रहे हैं। कुछ महीनों पहले तक बात हो रही थी कि विकास दर दस प्रतिशत से ऊपर जायेगी। पर अब अनुमान बदल गये हैं। अर्थव्यवस्था लगभग हर जगह से कमजोर दिखायी दे रही है। मुंबई स्टाक बाजार का सूचकांक सेंसेक्स इन आंकड़ों से डरकर 343 अंक तक गिर गया। 16 दिसम्बर को रिजर्व बैंक की एक महत्वपूर्ण बैठक होने जा रही है। उम्मीद की जा रही है कि इस बैठक में कुछ ऐसे फैसले नहीं लिये जाएंगे, जिनसे ब्याज दरें महंगी हो जायें। रिजर्व बैक ने हाल में ऐसे अनेक कदम उठाये हैं जिनसे ब्याज दरें महंगी हुई हैं और इस कारण कार खरीदना, मकान खरीदना आदि महंगा हुआ है। मार्च, 2010 से अब तक रिजर्व बैंक करीब चार प्रतिशत के आसपास ब्याज दरें बढ़ा चुका है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मकान के कर्जों की ईएमआई बढ़ गयी। कार के कर्जों की ईएमआई बढ़ गयी। इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि जो कार कंपनियां पहले ग्राहकों को कह रही थीं कि कारों के लिए इंतजार करो, उनकी ग्राहक लिस्ट एकदम सिकुड़ गयी। तमाम कार कंपनियों ने बताया कि उनकी बिक्री लगातार कम हो रही है। कार खरीदने वालों को किश्तें इतनी ज्यादा लग रही हैं कि उन्होंने कार खरीदने का इरादा या तो स्थगित कर दिया है या त्याग ही दिया है। सवाल है कि अर्थव्यवस्था का यह सीन बदला कैसे? जो अर्थव्यवस्था कुछ महीनों पहले तक गुलाबी-गुलाबी दिखायी दे रही थी, अब उसमें कांटे ही कांटे क्यों दिखायी पड़ रहे हैं? इसकी कुछ खास वजहें हैं। एक वजह तो यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का एक खास सेक्टर सॉफ्टवेयर पूरे तौर पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था से जुड़ा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी का मतलब है कि भारतीय सॉफ्टवेयर सेक्टर की कमाई भी ढीली होगी और वही हुआ। इस बीच तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियां अमेरिकी मंदी से जूझ रही थीं और उस कारण यूरोप के देशों में नया बाजार तलाशने की कोशिश में थीं पर यूरोप और भी विकट मंदी का शिकार हो गया। आज यूरोप में कई अर्थव्यवस्थाएं गिरने के कगार पर हैं। पूरे वि में कोई ऐसी मजबूत अर्थव्यवस्था नहीं है, जो दुनिया को सहारा दे सके। अमेरिकन मंदी ग्लोबल मंदी में तब्दील हो चुकी है। भारत में स्थितियां थोड़ी अलग रही हैं। भारत में तमाम वजहों से खाने-पीने की चीजों की कीमतें लगातार बढ़ती रही हैं। रिटेल के हिसाब से देखें तो खाने-पीने की चीजों में 2010-11 में पिछले साल के मुकाबले करीब पचास प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इस महंगाई की कई वजहें रही हैं। खाने-पीने की चीजों की मांग में बढ़ोत्तरी एक वजह है। तमाम रोजगार योजनाओं की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में आय बढ़ी है। इस वजह से तमाम चीजों की मांग में बढ़ोत्तरी हुई है। इसके अलावा एक मसला यह है कि सस्ते खाद्यान्न को पब्लिक तक पहुंचाने वाला पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम यानी राशन की दुकान जैसी की व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। कोई भी सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं रही। इस वजह से दिक्कतें ज्यादा हैं। इसलिए खाने-पीने की चीजों के भाव बढ़े तो महंगाई भी बढ़ी। इससे रिजर्व बैंक की चिंताएं बढ़ीं। रिजर्व बैंक की एक जिम्मेदारी यह भी है कि वह महंगाई को नियंत्रित करे। किताबों में, थ्योरी में एक सबक समझाया जाता है कि अगर चीजों की महंगा कर दिया जाये तो उनकी मांग कम हो जाएगी और मांग कम हो जायेगी तो उनकी कीमतें स्वत: कम हो जाएंगी। इस तरह से महंगाई थम जायेगी। इसी आधार पर रिजर्व बैंक ने लगातार ब्याज दरें महंगी कीं पर यह किताबी थ्योरी वास्तव में परिणाम दिखाती नहीं दिखती। इसका नतीजा यह है कि कार, मकान कर्ज सब कुछ महंगा हो गया। मकान कर्ज महंगा हुआ तो मकान खरीदने वालों ने मकान खरीदने कम कर दिये। यानी कंस्ट्रक्शन सेक्टर में त्राहि-त्राहि मची। वहां मंदी की आहटें सुनायी दीं। उधर कार कंपिनयों ने शिकायतें शुरू कीं कि कार कर्ज महंगा हो गया है और लोगों ने कार खरीदना कम कर दिया। मंहगाई आलू-प्याज चावल-आटे को कष्ट दे रही थी। पर नतीजा यह हुआ कि रिजर्व बैंक ने मकान और कार खरीदना भी महंगा कर दिया। उनकी मांग कम हो गयी। मतलब स्थिति यह हुई कि ब्लड प्रेशर का इलाज किया, तो शुगर की प्राब्लम हो गयी। मसले उलझे हुए हैं। अब कई स्तर पर काम करना होगा, तब हालात में सुधार होगा। उद्योग जगत शिकायत कर रहा है कि ब्याज दरें इतनी ज्यादा बढ़ गयी हैं कि लोग सामान खरीदने में हिचक रहे हैं। रोजगार की बढ़ोत्तरी सिमट रही है। सरकार को कई स्तरों पर कदम उठाने होंगे। रिजर्व बैंक को सुनिश्चित करना होगा कि आगे ब्याज दरें ना बढ़ें। यह काम आसान नहीं है पर पटरी से उतरी हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना भी आसान नहीं है। कुल मिलाकर मसला यह है कि शेयर बाजार के निवेशकों को भी तैयार हो जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार की मंदी लंबी चलेगी।

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