Wednesday, December 7, 2011

सुस्त पड़ती कारवां की चाल

भारत भी वर्तमान वैिक मंदी की चपेट में आ रहा है, इसमें कोई शक नहीं। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी कह दिया है कि अब 9 प्रतिशत वृद्धि दर पाने की उम्मीद खत्म हो गई है। इस वित्त वर्ष की छमाही व दर 7.3 प्रतिशत है। साफ है कि अर्थव्यवस्था की गति 7.5 प्रतिशत से आगे नहीं जा पाएगी। यह गति पिछले दो सालों में सबसे कम है। 2010-11 में वृद्धि दर 8.5 प्रतिशत थी। पिछले वर्ष की पहली छमाही में वृद्धि दर 8.6 प्रतिशत थी। अब 2012-13 के लिए भी विकास की गति घटाकर 7.3 प्रतिशत कर दी गई है। इसका मतलब है कि हमारे आर्थिक कारवां की सुस्त चाल चिंताजनक है। इसकी उपेक्षा करना संकट के बड़े खतरे को नजरअंदाज करना होगा। आर्थिक गति मंद पड़ने का अर्थ है; खजाने पर दबाव और बढ़ना। करों से आमदनी घट रही है तो राजस्व के दूसरे स्रेत छीज रहे हैं। वर्तमान वित्त वर्ष में सरकार ने 6 लाख 64 हजार 457 करोड़ रुपये के राजस्व आय का अनुमान किया था। इनमें से 3 लाख 15 हजार 816 करोड़ रुपए केन्द्रीय उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क से आने की उम्मीद थी। उद्योगों की चाल सुस्त होने की अवस्था में इतनी आय संभव नहीं होगी। विनिवेश से 40 हजार करोड़ रुपये जुटाने की उम्मीद भी धूमिल हो रही है। इसलिए राजकोषीय घाटे को बजट लक्ष्य के अनुसार जीडीपी के 4.6 प्रतिशत तक सीमित करने का लक्ष्य नहीं पाया जा सकता है। सीएजी के आंकड़े बता रहे हैं कि राजकोषीय घाटा सितम्बर के अंत में 2.92 लाख करोड़ रुपया था, जो पूरे वर्ष के बजट अनुमान का 71 प्रतिशत है। गत वर्ष इस अवधि में गैर कर राजस्व मद में 1 लाख 8 हजार करोड़ रुपया आया था। इस वर्ष गैर कर राजस्व वसूली अनुमान का 54.4 प्रतिशत है। अप्रैल- अक्टूबर तक राजस्व घाटा 2 लाख 43 हजार करोड़ रुपया हो चुका है, जो बजट अनुमान के 79 प्रतिशत है। खजाने में धन की कमी का असर पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख पहलू शेयर बाजार है। शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा लगातार अपना निवेश निकालने की खबरें आ रही हैं। बंबई शेयर बाजार के अनुसार दूसरी तिमाही में 19 शेयरों में विदेशी निवेशकों यानी एफआईआई ने निवेश घटाया और बढ़ाया केवल 11 में। पहली तिमाही में एफआईआई ने 16 कम्पनियों में निवेश थोड़ा बढ़ाया था और 14 कम्पनियों में कम किया था। कहा जा रहा है कि आर्थिक हालात और रुपये की कमजोरी के कारण एफआईआई ऐसा कर रहे हैं। शेयर निवेश पर अनुसंधान करने वाली रिपोर्ट्स बता रही हैं कि एफआईआई भारतीय कम्पनियों में निवेश करने से बच रहे हैं। विदेशी मुद्रा भंडार लगातार गिर रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा पिछले कुछ सप्ताहों से दिया जा रहा आंकड़ा विदेशी मुद्रा में रिकॉर्ड कमी का प्रमाण दे रहा है। उम्मीद की एक किरण निर्यात व्यापार हो सकता था लेकिन भारत का व्यापार घाटा अप्रैल-अक्टूबर तक 93.7 अरब डॉलर हो गया है यानी वष्रात तक यह 150 अरब डॉलर पार कर जाएगा। यह भी रिकॉर्ड होगा। ये स्थितियां एक-दो दिन या एक-दो साल में निर्मित नहीं हुई हैं। वृद्धि दर के धूमकेतु और विदेशी निवेशकों के शेयर से धन कमाने के रुझान से बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडार के इन्द्रधनुष में अर्थव्यवस्था के मूल आधारों की लगातार अनदेखी हुई। विनिवेश के नाम पर कम्पनियों को बेचने, संचार क्षेत्र की निविदाओं, प्रवासियों की आय और दुनिया के प्रमुख देशों के संकट के कारण पूरा माहौल ऐसा बना मानो भारत विकासशील देशों के साथ सबसे अलग और तेज गति से विकास कर रहा है। दुर्भाग्यवश आज भी इनके लिए वर्तमान वैिक आर्थिक ढांचे के तहत बताए गए सतही कारणों को ही उद्धृत किया जा रहा है। मसलन, कहा जा रहा है कि महंगाई कम करने के लिए जिस तरह लगातार ब्याज दरें बढ़ाई गई, उससे उद्योगों पर विपरीत असर पड़ा। सरकार इसके लिए वैिक हालात को जिम्मेवार मानती है। भारतीय उद्योग परिसंघ एवं एसोचैम कह रहा है कि हर क्षेत्र में निवेश तथा स्थायी पूंजी का निर्माण लगभग रुक गया है। इनका सुझाव है कि मंदी से निकलने के लिए ब्याज दरों को घटाएं और फैसले लेने में देरी न करें। प्रश्न है कि अगर अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां विकट हैं, प्रमुख देश मंदी के दूसरे भयावह दौर के कगार पर हैं, तो निवेश कहां से आएगा? वित्तमंत्री ने कहा कि वैिक संकट के विपरीत प्रभावों से बचने के लिए मध्यमकालीन रणनीति के तहत हमें घरेलू मांग आधारित विकास दर पर फोकस करना होगा। साथ ही समावेशी विकास के लिए कृषि के उत्पादन को बढ़ावा देना आवश्यक है। घरेलू मांग आधारित विकास से प्रणब दा का अभिप्राय क्या है? अगर वे बाजार अभिमुख अर्थव्यवस्था के आलोक में मांग और उत्पादन के सिद्धांत के तहत विचार कर रहे हैं तो जाहिर है, संकट के मूल कारण को समझा नहीं गया। दुनिया के संकट का कारण ही मांग, आपूर्ति और बिक्री के सीमाहीन चक्र पर अर्थव्यवस्था को जबरन आधारित कर देना है। अगर देशों की अर्थव्यवस्था घरेलू आवश्यकताओं के अनुसार उत्पादन एवं बाजार पर आधारित होती तो यह नौबत ही नहीं आती। मांग, आपूर्ति और बिक्री के चक्र को तेज गति देने के कदमों से हमने सामान्य घरेलू आवश्यकताओं के इर्द-गिर्द अर्थव्यवस्था के विकसित होने की संभावना का ही क्षय कर दिया है। इसमें मुक्ति का रास्ता कठिन हो गया है। अब खनन आवश्यकता के अनुसार न्यनूतम होना चाहिए लेकिन यह आधारभूत संरचना के मूल उद्योगों में से एक हो गया। अंधाधुंध खनन के कारण पर्यावरण चरमरा गया। कृषि को देखिए। भारत के पास तीन फसलों वाली मौसमी खेती की पर्याप्त जमीनें और उससे जुड़े श्रम एवं ज्ञान की सशक्त परंपरा थी। उद्योगों, कारोबारों तथा सरकारों के नासमझ लोकप्रिय कार्यक्रमों की आग में वह भस्म हो रही है। खेती की जमीनें कम हो गईं, योग्य मजदूरों तथा खेती के आधार पशुओं का अभाव हो गया। मनरेगा का एक दुष्प्रभाव खेती श्रमिकों का अभाव है और खेती दुष्कर हो गई है। किसानों की कोशिश अनाज की जगह खेतों में ऐसी नकदी फसलें लगाने की हैं, जिनमें मजदूरों की कम आवश्यकता हो। इससे अन्न उत्पादन में कमी आना निश्चित है। 2 दिसम्बर 2001 को तत्कालीन कृषि मंत्री के अनुसार 11 वीं पंचवर्षीय योजना के पहले चार वर्ष में खाद्यान्न उत्पादन में 2.90 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह 2008- 09 में 23 करोड़ 44 लाख 70 हजार टन से बढ़कर 24 करोड़ 15 लाख 60 हजार टन हो गया लेकिन 2009-10 में यह 21 करोड़ 81 लाख 10 हजार टन तक सिमट गया। ये आंकड़े ही संदेहास्पद हैं पर इन्हें स्वीकार कर लें तो भी भविष्य के संकट का अहसास हो जाता है।

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