Monday, December 5, 2011

सरकारी मिथक : जमीनी हकीकत


खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की इजाजत देने के मुद्दे पर संसद में गतिरोध बना हुआ है और संसद के पूरे शीतकालीन सत्र में ही काम न हो पाने का खतरा पैदा हो गया है। याद रहे कि खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के विरोध की शुरुआत तो उसी समय हो गई थी, जब 2004-05 के बजट भाषण में पहली बार इस तरह के प्रस्ताव की घोषणा की गई थी। बहरहाल, उस समय वामपंथी पार्टियों के दृढ़ विरोध के सामने इस प्रस्ताव को उठाकर ताक पर रख दिया गया क्योंकि यूपीए-एक सरकार के चलने के लिए वामपंथी पार्टयिों का समर्थन बहुत जरूरी था। बहरहाल, इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए वामपंथी पार्टियों ने 2005 के अक्टूबर में तत्कालीन यूपीए-वामपंथ समन्वय समिति को दिए अपने नोट में इस तथ्य को रेखांकित किया था कि अनुदार अनुमानों के अनुसार भी, खुदरा व्यापार का हमारे कुछ घरेलू उत्पाद में करीब 11 फीसद अंशदान रहता है और इस क्षेत्र में 4 करोड़ से ज्यादा लोग काम में लगे हुए हैं। 1998 में आई चौथी आर्थिक जनगणना के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में कुल गैर-कृषि, खुद-मिल्कियत के कामों में खुदरा व्यापार का हिस्सा 42.5 फीसद बैठता है और शहरी इलाकों में स्वरोजगारों में 50.5 फीसद। गरीबी की दलदल : देश की बदहाली इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रामीण इलाके में कुल रोजगार का 38.2 फीसद और शहरी इलाकों में कुल रोजगार का 46.2 फीसद हिस्सा, ऐसे स्वरोजगार का ही है। इस तरह, आज करोड़ों की संख्या में भारतीय अपनी आजीविका के लिए खुदरा व्यापार पर ही निर्भर हैं। इस क्षेत्र में भीमकाय बहुराष्ट्रीय निगमों को घुसने की इजाजत देने से इतने लोगों की आजीविका का आधार कमजोर होगा और इस तरह करोड़ों लोग गरीबी की दलदल में धकेले जाएंगे। जाहिर है कि इससे उस असली भारत की बदहाली और भी बढ़ जाएगी, जिसमें आने वाले 80 करोड़ से ज्यादा लोग वैसे भी 20 रुपये रोजाना या उससे भी कम में ही गुजारा करने पर मजबूर हैं। विभिन्न अध्ययन दिखाते हैं कि यह एक मिथक ही है कि भीमकाय सुपर मार्केट श्रृंखलाओं के हमारे जैसे देशों में आने से कीमतें घटती हैं और रोजगार बढ़ता है। सचाई यह है कि 2004 में ही अमेरिकी प्रतिनिधि सदन में पेश की गई एक रिपोर्ट में यह नतीजा पेश किया गया था कि, ‘वॉल-मॉर्ट की सफलता का अर्थ निकला है, मजदूरी व लाभों में कमी के लिए दबाव का बढ़ना, मजदूरों के बुनियादी अधिकारों का खुला उल्लंघन तथा देश भर में समुदायों के जीवनस्तर में गिरावट का खतरा। यह जरूरी नहीं है कि व्यापार की सफलता, मजदूरों तथा उनके परिवारों की कीमत पर ही हासिल की जाए। इस तरह की अदूरदर्शी मुनाफा-बटोरू रणनीतियां, अंतत: हमारी अर्थव्यवस्था को ही कमजोर करती हैं।
साफ है कि इस फैसले में इस आशंका की गंध आती है कि शायद बाली में पिछले ही दिनों ओबामा से हुई अपनी मुलाकात में प्रधानमंत्री ने ऐसा वादा कर दिया होगा। इस समय चल रहे गंभीर वि आर्थिक संकट और दुहरी डुबकी की मंदी को देखते हुए, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी अपने मुनाफे बनाए रखने के लिए नए-नए रास्ते तलाश कर रही है। ऐसे में भारत का खुदरा व्यापार का बाजार, उसके लिए बहुत ही आकषर्क विकल्प हो सकता है। दूसरे शब्दों में, यह फैसला अंतरराष्ट्रीय पूंजी को इसका ही मौका मुहैया कराने जा रहा है कि भारत की जनता तथा भारतीय अर्थव्यवस्था की कीमत पर, अपने मुनाफों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ा लें। सारा जतन वैिक पूंजी के फायदे के लिए पुन: इसे एक भ्रम ही कहा जाएगा कि इस फैसले से रुपये के विनिमय मूल्य में इस समय जारी भारी गिरावट को रोकने में मदद मिलेगी क्योंकि इस तरह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा घरेलू पूंजी को भी इसके लिए सकारात्मक संकेत दिया जा रहा होगा कि संचय के लिए सुरक्षित मुद्रा के रूप में डॉलर की ओर पलायन के मौजूदा रुझान को पलटे। सचाई यह है कि इस तरह का रुझान अंतरराट्रीय घटनाक्रम के चलते सामने आया है और इसमें यूरोपीय संघ में आए गंभीर संकट, एक साझा मुद्रा के रूप में यूरो का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाना और जापान में गंभीर आर्थिक मंदी के चलते येन का मूल्य उल्लेखनीय रूप से गिर जाना भी शामिल है। इसलिए सरकार की इस तरह की दलीलें वास्तव में अंतरराष्ट्रीय पूंजी को अपने मुनाफे ज्यादा से ज्यादा करने का मौका देने के लिए, भारतीय खुदरा व्यापार के क्षेत्र को खोलने के लिए बहाने गढ़ने के सिवा और कुछ नहीं हैं। विभिन्न अध्ययन यह भी बताते हैं कि जहां तक खाद्य मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से संचालित बहुराष्ट्रीय सुपर मार्केटों की भूमिका का सवाल है लैटिन अमेरिका (मैक्सिको, निकारागुआ, अज्रेंटीना), अफ्रीका (केन्या, मैगाडास्कर) और वियतनाम, थाईलैंड आदि के अनुभव यही दिखाते हैं कि इन स्टोरों में खाद्य, सब्जियों तथा अन्य बुनियादी खाद्य सामग्री की कीमतें, परंपरागत बाजारों के मुकाबले ज्यादा ही रहती हैं। खुदरा में रोजगार और मुनाफा दोनों ज्यादा इस भीमकाय खुदरा व्यापार श्रृंखलाओं के रोजगार बढ़ाने के दावों की कलई तो वियतनाम के अनुभव से ही खुल जाती है। जितने उत्पाद की बिक्री के लिए रेहड़ी-पटरी की दुकानदारी 18 लोगों को रोजगार मुहैया कराती है, परंपरागत खुदरा व्यापारी 10 लोगों को रोजगार मुहैया कराता था तथा दुकान के जरिए बिक्री करने वाला 8 लोगों को रोजगार देता है, उतने ही माल की बिक्री पर सुपरमार्केट में सिर्फ चार लोगों की जरूरत होती है। मिसाल के तौर ये सुपरमार्केट एक टन आलू की बिक्री पर 1.2 व्यक्ति रखते हैं जबकि परंपरागत बाजार में इतने ही आलू के व्यापार के लिए 2.9 श्रमिक लगाए जाते थे। वास्तव में सारी दुनिया के यही अनुभव हैं। यह भी एक मिथक ही है कि बाजार में ऐसे भीमकाय खुदरा बहुराष्ट्रीय निगमों के उतरने से, उन्हें अपना माल बेचने वाले उत्पादकों को कहीं बेहतर दाम मिल रहे होंगे। जैसाकि यूपीए-प्रथम के समय में दिए एक सीपीआई (एम) के एक नोट में कहा गया था, एक अध्ययन में यह पता चला था कि घाना में कोको उत्पादकों को एक सामान्य मिल्क चॉकलेट की कीमत में से सिर्फ 3.9 फीसद हिस्सा मिल रहा था, जबकि कीमत का करीब 34 फीसद हिस्सा खुदरा व्यापार के मुनाफे के रूप में बटोरा जा रहा था। इसी प्रकार, केला उत्पादक को उत्पाद की अंतिम कीमत का सिर्फ 5 फीसद के करीब मिल रहा था जबकि करीब 34 फीसद हिस्सा खुदरा श्रृंखला द्वारा मुनाफे के रूप में हड़पा जा रहा था। इसी तरह, एक जीन्स की अंतिम कीमत का 54 फीसद हिस्सा खुदरा व्यापारी के हिस्से में आता है जबकि उसका निर्माण करने वाले मजदूरों के हिस्से में सिर्फ 12 फीसद हिस्सा आता है। मनमोहन सिंह की सरकार अब यह दलील पेश कर रही है कि यह फैसला, जमीनी स्तर पर लागू तो तभी होगा जब राज्य सरकारें इसके लिए इजाजत देंगी। इस तरह, यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि राज्य सरकारें इसके लिए स्वतंत्र हैं कि चाहे तो इसके लिए इजाजत दें या न दें। क्या मनमोहन सिंह की सरकार इस देश को यह समझाने की कोशिश कर रही है कि यह फैसला अंडमाननिको बार तथा लक्षदीप जैसे केंद्र-शासित प्रदेशों में ही लागू किए जाने के लिए किया गया है? जाहिर है कि इस फैसले के संबंध में तमाम तथ्यों पर संसद में समुचित बहस होनी चाहिए और ऐसी बहस तो तभी हो सकती है, जब पहले सरकार इस संबंध में कैबिनेट के फैसले को वापस ले और इस मुद्दे पर सार्थक बहस होने दे। जाहिर है कि इसके लिए सरकार को यह वादा करना होगा कि इस बहस के फलस्वरूप सदन की जो राय निकलकर आती है, उसे बनाए रहते हुए फैसला लिया जाएगा। जनतंत्र का तो यही तकाजा है लेकिन क्या यह सरकार को मंजूर होगा?

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