Wednesday, March 2, 2011

महिला व बाल केंद्रित बजट की दरकार


इधर अमेरिका के कारपोरेट जगत ने भारत सरकार के आम बजट से अपनी अपेक्षाओं की सूची वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को भेजी है तो उधर देश के कुछ महिला संगठनों ने वित्तमंत्री को ज्ञापन देकर आधी दुनिया की आगामी बजट से अपेक्षाओं के बारे में अवगत करा दिया है। बहरहाल, इस बार बजट में जेंडर कम्पोनेंटको बढ़ाने की मांग पर खास जोर दिया गया है। खाद्य पदाथरे की कीमतों में वृद्धि के मद्देनजर घर का जो बजट बिगड़ा है, उससे महिलाएं और बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। महिला कामगारों की सुध लेते हुए सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया गया है कि देश में असंगठित क्षेत्र के कुल कार्यबल में महिलाओं की तादाद करीब 96 फीसद है और इसमें अधिकांश को न्यूनतम दिहाड़ी भी उपलब्ध नहीं है। बहुत बड़ी संख्या में महिला कामगार ऐसे काम करती हैं जो घरों से संचालित होते हैं पर उनके नियोक्ता उन्हें कर्मचारी नहीं मानते। वे मातृत्व लाभ तथा बाल देखभाल सुविधा से भी वंचित हैं। यही नहीं, असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 सिर्फ बीपीएल तक ही सीमित है। लिहाजा सरकार से मांग की गई है कि इस बजट में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले सभी कामगारों की सामाजिक सुरक्षा के लिए संसाधन सुनिश्चित करने चाहिए व घरों में ठेकेदारों के लिए काम करने वाली महिलाओं के वास्ते खास योजना बनाने की जरूरत है। नेशनल कमीशन ऑफ इंटरप्राइसेस अनआग्रेनाइजड रिपोर्ट- 2007’ के अनुसार 1999 और 2005 के बीच रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में बढ़ा है। यहां काम करने वालों में से अधिकांश को बहुत ही बुरी परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। वे न तो न्यूनतम दिहाड़ी के हकदार हैं, और न ही सामाजिक सुरक्षा और वैतनिक अवकाश के। सरकार खुद भी इस संदर्भ में कटघरे में खड़ी है। सरकार 41.39 लाख महिलाओं की सेवाएं लेती है। इनमें से ज्यादातर आंगनवाड़ी वर्कर, मिड डे मील वर्कर व आशानाम से पहचान रखने वाली स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं। इनके काम असंख्य और औसतन मिलते हैं, महज 50 रुपये। इनके साथ हो रहे अन्याय को खत्म करने के लिए आगामी बजट में पर्याप्त फंड आवंटित करने की मांग की गई है। सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसद शिक्षा व स्वास्थ्य पर खर्च करने की मांग की गई है क्योंकि ये दोनों सेक्टर महिलाओं के लिए खास महत्व रखते हैं। स्कूल में जाने वाली लड़कियों का ड्रॉप-आउट रेट कम करने के लिए विशेष ध्यान देना होगा। उनके लिए अलग शौचालय जिसमें पानी की सुविधा उपलब्ध हो, का बंदोबस्त करना होगा व यह भी ध्यान में रखना होगा कि ऐसी व्यवस्था सिर्फ कागजों पर ही न हो बल्कि काम करने की हालत में हो। सुरक्षा के मद्देनजर स्कूलों की चारदीवारी बनाना भी प्राथिमकता हो। शिक्षा का अधिकार कानून लागू तो हो गया है पर पर्याप्त फंड की कमी आड़े आ रही है। सरकार को इस अधिनियम का लाभ उठाने के लिए बजट में खास फंड का प्रावधान रखना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लड़कियां इससे लाभान्वित हो सकें। एक महत्वपूर्ण मांग यह की गई है कि महिला किसानों और कृषि पैदावार से जुड़ी महिलाओं को सरकार संस्थागत कर्ज देते समय विशेष रियायतें दें। जमीन का पट्टा उनके नाम नहीं होने के कारण उनकी मुसीबतें बढ़ जाती हैं और ऐसे में बैंक उन्हें कर्ज देने में आना-कानी करते हैं। स्वयं सहायता समूह को मिलने वाली बैंकीय मदद के विस्तार की मांग के साथ-साथ स्पष्ट कहा गया है कि सरकार बजट के जरिये यह सुनिश्चित करे कि सभी महिलाएं कम ब्याज दर पर कर्ज ले सकें और ब्याज दर 4 फीसद से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। दलित, आदिवासी व अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं को दो फीसद की ब्याज दर पर बैंकों से कर्ज मिलना चाहिए। अगर सरकार ऐसा करती है तो गरीब महिलाएं लाभान्वित हो सकती हैं। समेकित बाल विकास योजना के विस्तार की मांग के साथ इसे हेल्थ केयर डिलीवरी का असरकारक औजार बनाने की बात भी कही गई है। बाल देखभाल सुविधाएं न दिए जाने पर भी ध्यान दिलाया गया है। अधिकांश राज्य मनरेगा के तहत मिलने वाली बाल देखभाल सुविधा वाले प्रावधान पर अमल नहीं कर रहे हैं। अधिकांश निजी संस्थान भी अपने यहां इस सुविधा को उपलब्ध कराने से मना कर देते हैं। इस बार भी सरकार को याद दिलाया गया है कि वह बाल विकास पर खर्च होने वाली रकम को महिलाओं पर खर्च होने वाले मद के साथ न मिलाए। गौरतलब है कि 6 साल पहले लैंगिक असंतुलन को पहचानते हुए सरकार ने पहली बार वित्त वर्ष 2005-2006 में जेंडर के आधार पर बजटीय आवंटन की शुरुआत तो कर दी मगर अभी तक यह एक सीमित एक्सरसाइज ही साबित हुई है। तीन साल पहले तत्कालीन महिला एंव बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने कहा था कि आर्थिक विकास के मामले में आज भी कोई महिलाओं को समझने के लिए तैयार नहीं है। कमावेश यह तस्वीर हर बजट में दिखाई देती है। क्या 28 फरवरी को संसद में पेश होने वाला बजट महिलाओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा?


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