Tuesday, March 15, 2011

अन्न का वैश्विक अकाल


हमारी खेती पर तेजी से पूंजी का दबाव बढ़ता जा रहा है और यह दबाव उत्पादन बढ़ाने के लिए नहीं, उत्पादन बे चने के लिए है। इसे खेती नहीं कहते हैं, खेती का व्यापार कहते हैं। व्यापार का गणित और जीवन का गठित अलग-अलग होता है और अलग-अलग चलता है। व्यापार के गणित से खेती चलाने की तमाम वैज्ञानिक कोशिशों ने हमें आज वैश्विक अकाल के दरवाजे पर ला खड़ा किया है

जापान लहूलुहान पड़ा है और दुनिया सकते में है। भूकंप और सुनामी जैसी आपदाएं हमारी स्थाई दुश्मन हो गई हैं। वे कभी दुनिया के इस कोने तो कभी उस कोने को उखाड़ते-पछाड़ते निकल रहे हैं और हम इनका वैज्ञानिक विश्लेषण भर करके, अगले संकट का इंतजार करने लगते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए कि हम अपने ही तथाकथित विज्ञान और विकास के बंदी बन गये हैं। जरूरत है कि हम इस दायरे के बाहर देखें और आसन्न अमंगल की वे आवाजें सुनें, जो हाहाकार करती हमारे कानों पर वार कर रही हैं। इसलिए कि जो लोग सूखते खेतों की, जलती-सड़ती फसलों की और दम तोड़ते किसानों की आवाज नहीं सुन पा रहे हैं वे शायद संयुक्तराष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑग्रेनाइजेशन की आवाज सुनें!

खेती-किसानी की बेहाल कहानी सारी दुनिया में कही जा रही है लेकिन सुनने वाले कान और देखने वाली आंखें कहीं हैं ही नहीं। संयुक्त राष्ट्रसंघ का फूड एंड एग्रीकल्चर ऑग्रेनाइजेशन हमें वही दिखाने व सुनाने की कोशिश में लगा है। सारी दुनिया पिछले कई सालों से आर्थिक मंदी की गर्द काटने में लगी है। बड़े उद्योगों, बैंकिंग व दूसरे बड़े निवेशों का खेल खेलने वाले संस्थानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ही विकास का आधार व विकास की कसौटी मानने वाली सरकारों ने माना कि इस मंदी का मुकाबला पैसे छापकर और पैसे उड़ेल कर ही किया जा सकता है। इसलिए ओबामा और अमेरिकी-वृत्त के दूसरे सारे देशों और हमने और चीन ने भी यही रास्ता अपनाया। सभी मंदी का मुकाबला कर रहे हैं फिर भी हम देख रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था लगातार लड़खड़ा रही है। बाजारों में कीमतें बढ़ती जा रही हैं। घरों में बेरोजगारी बढ़ रही है और समाज में अपराध व अशांति बढ़ती जा रही है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि मंदी का मुकाबला करने में सबसे पहले और सबसे अधिक जिसकी उपेक्षा हो रही है वह है आदमी यानी किसान और उसकी खेती! किसानों व दूसरे मध्यवर्गी पेशेवालों की आत्महत्या अब किसी का ध्यान नहीं खींचती, किसी सरकार की नींद हराम नहीं करती। लेकिन संयुक्तराष्ट्र का अध्ययन कहता है कि वैश्विक आर्थिक संकट के बाद सारी दुनिया जिस भयावह संकट की गिरफ्त में जा रही है वह है अन्न का संकट! रिपोर्ट कहती है कि 2008 की गिरावट के बाद से अनाज का बाजार दुनिया भर में कहीं भी स्थिर नहीं हुआ, बल्कि लगातार उठता-गिरता पहले से ऊंचे स्तर को छूता रहा है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि यह वृद्धि रुकने वाली नहीं है क्योंकि अन्न उत्पादन की लागत लगातार बढ़ती जा रही है, किसी भी किस्म की ईधन की मांग जोर पकड़ती जा रही है और बढ़ती जनसंख्या की भूखी चीखें बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि इन सबका कोई सार्थक मुकाबला करने की ताकत न वैश्विक अन्न-उत्पादन व्यवस्था के पास है और न पूंजी-व्यवस्था के पास। गेहूं, मक्का, कपास और शक्कर- आज इन चारों की कीमतें पिछले वर्ष के मुकाबले दुगनी हो गई है और इन पर ही सामान्य आदमी का पेट और धंधा निर्भर करता है। पिछले आठ महीनों से लगातार बढ़ रहा अन्न मूल्य-सूचकांक फरवरी महीने में बढ़कर 2.2 फीसद पर पहुंचा है। इसका परिणाम यह है कि आज दुनिया में सदा-सदा के भुक्खड़ों की संख्या एक बिलियन से ऊपर जा रही है। 2009 के बाद दुनिया में ऐसी भुखमरी कभी नहीं थी जैसी आज है और उसके दायरे में अधिकाधिक लोग आते जा रहे हैं। भूख से लड़ने वाले बुनियादी अन्नों की कमी इसका मुख्य कारण है। ऑक्सफैम की फूड पॉलिसी के सलाहकार कह रहे हैं कि किसानों को जिस तरह भूख के लिए अन्न की जगह बाजार के लिए अन्न की तरफ खींचा और मोड़ा गया, उसका दुष्परिणाम सामने है। जिसे हमने कैश क्रॉप या नकदी फसल कहा है वह अन्न के अकाल का नुस्खा साबित हुआ है। खेती-किसानी के अधिकांश अंतरराष्ट्रीय अध्येता इस बात पर एकमत हैं कि अनाज की खपत और अनाज की उपलब्धता के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। इस बात के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि इस दशक में अनाज की कीमतें इतनी ऊंची रहेंगी जितनी किसी एक दशक में नहीं रहीं। 2007 में अनाज उत्पादन का अंतरराष्ट्रीय सूचकांक 2.6 फीसद था जो 2008 में बढ़कर 3.8 फीसद हो गया था। 2010 में यह गिरकर 0.8 फीसद पर पहुंचा और आज तक वहीं घूम रहा है। बाजार में खेती-किसानी से जुड़े सारे संसाधनों की कीमतें जिस तरह बढ़ी हैं, उन्होंने किसानों को किस हद तक लाचार कर दिया है, ये आंकड़े इसकी गवाह देते हैं। दुनिया भर में अन्न की खपत आर्थिक मंदी के प्रारंभिक झटके के बाद भी 2 फीसद प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही थी। आर्थिक मंदी से पहले खपत की दर 4 से 6 फीसद तक पहुंच गई थी लेकिन 2010 से यह सिकुड़ने लगी है। जानकार बता रहे हैं कि पिछले वर्षो में अंतरराष्ट्रीय कीमतों में जैसी अस्थिरता बनी रही है उससे खेतीकि सानी से जुड़े सभी घटक आशंकित हुए हैं, इसलिए खेती में निवेश लगातार घटता जा रहा है। खेती में निवेश की जगह कृषि उत्पादों की बिक्री की बड़ी-बड़ी चेनें खोलने में निवेश का चलन चलाया गया है। सरकारी नीतियां भी खेती को नहीं, खेती के ऐसे व्यापार को बढ़ावा देने वाली रही हैं जिसने खेती में निवेश को बहुत कम किया है। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि कृषि उत्पादों की बिक्री की आलीशान दुकानें वैसी कमाई नहीं कर पा रही हैं जिसके आधार पर वे लंबी दौड़ की तैयारी कर सकें। कई बड़ी चेनों ने दम तोड़ दिया है, कई ने धंधा बदल लिया है। आखिर खेत में जो पैदा नहीं होगा, उसे आप कैसे और कहां बेचेंगे? पर्यावरण में लगातार जैसे परिवर्तन हो रहे हैं और उसके स्वास्थ्य में जैसी गिरावट हो रही है, उसने भी अन्न बाजार को सशंकित कर दिया है। लगातार सूखा, अतिवृष्टि, असमय वर्षा या सूखा के साथ-साथ भूकंप, बाढ़, सुनामी का जैसे अटूट सिलसिला चल रहा है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में ही नहीं, चीन में भी खेती को व्यापक नुकसान हुआ है। अंतरराष्ट्रीय बाजार पर इसका ऐसा दबाव बना हुआ है कि 1981-2002 के बीच प्रतिवर्ष 5 एशियाई देश अन्न संकट के शिकार हो रहे थे जिनकी संख्या 2003-2009 के बीच बढ़कर प्रतिवर्ष 10 हो गई है। इस तरह दुनिया तेजी से अन्न के अकाल की तरफ बढ़ जा रही है और कहीं, कोई सरकार नहीं है जो कर रही हो कि वह इसे थामेगी और मरतों को बचायेगी। विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर विकासशील देशों में अन्न उत्पादन 2.5 से लेकर 4 फीसद तक भी बढ़े तो हम 100-150 मिलियन अतिरिक्त भूखों का पेट भर सकेंगे। लेकिन यह कैसे संभव होगा? एक जवाब तो यह कि दुनिया भर की सरकारें खेती में अपना निवेश बढ़ायें। सार्वजनिक पूंजी का झुकाव उद्योगों से थोड़ा हटाकर खेती व किसानों की तरफ लाया जा सके तो कुछ जवाब मिलता है। यह भी देखना चाहिए कि खेती के काम में महिला व पुरुषों की हिस्सेदारी का आंकड़ा क्या बनता है। महिलाओं को खेती में बराबरी की हिस्सेदारी दी जाए। लेकिन हमारी खेती पर तेजी से पूंजी का दबाव बढ़ता जा रहा है और यह दबाव उत्पादन बढ़ाने के लिए नहीं, उत्पादन बेचने के लिए है। इसे खेती नहीं कहते हैं, खेती का व्यापार कहते हैं। व्यापार का गणित और जीवन का गठित अलग-अलग होता है और अलग-अलग चलता है। व्यापार के गणित से खेती चलाने की तमाम वैज्ञानिक कोशिशों ने हमें आज वैश्विक अकाल के दरवाजे पर ला खड़ा किया है। यह खतरा अगर हमें जीवन के गणित से जोड़ सके और हम जीने के लिए जरूरी खेती का संकल्प ले कर चल सकें तो इस आसन्न संकट से जो नुकसान होना है वह तो होगा लेकिन आगे के लिए हम अपनी सुरक्षा-बाड़ मजबूत कर लेंगे। क्या संकट को अवसर बनाने की ऐसी प्रतिभा आज भी हममें शेष है?

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