Monday, March 7, 2011

उद्योगों पर संकट का साया


 केंद्रीय बजट आने के साथ ही हंगामा शुरू हो गया। पंजाब के औद्योगिक शहर लुधियाना के कई क्षेत्रों के उद्यमियों ने हड़ताल शुरू कर दी है। होजरी, टेक्सटाइल और सिलाई मशीन तथा जालंधर के खेल उद्यमियों ने तो हड़ताल करके साफ तौर पर अपना विरोध जता दिया। साइकिल उद्यमी भी अपना विरोध जता चुके हैं। अगर सरकार ने अपने फैसले पर पुनर्विचार न किया तो आगे वे भी हड़ताल पर जा सकते हैं। यह विरोध केवल लुधियाना या पंजाब में ही हो ऐसा नहीं है। विरोध के ये सुर कर्नाटक और महाराष्ट्र के अलावा दिल्ली से भी सुनाई दे रहे हैं। यह विरोध केंद्रीय बजट के उस प्रस्ताव के विरुद्ध है जिसमें केंद्रीय उत्पाद शुल्क के दायरे में 130 नए उद्योगों को लाए जाने की बात की गई है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि संविधान ने सरकार को अपने खर्चे पूरे करने के लिए कर और शुल्क लगाने के अधिकार दिए हैं, लेकिन सवाल यह है कि संविधान ने उन्हें यह अधिकार क्यों दिए हैं? यह बात हमें कभी नहीं भूलनी चाहिए कि किसी भी लोकतांत्रिक देश का संविधान हमेशा जनोन्मुख होता है। उसमें सरकार की हैसियत कोई राजा या तानाशाह जैसी नहीं होती है। वह कुल मिलाकर जनता की एक प्रतिनिधि भर होती है, जनता की इच्छा और सुविधानुसार देश की व्यवस्था देखने और शासन चलाने के लिए। बेहद शर्मनाक बात यह है कि जब भी देश का बजट आता है तो जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों पर अनाप-शनाप कर और शुल्क लगाए जाते हैं, उससे यह साबित हो जाता है कि हमारे राजनेता अभी भी सामंती मानसिकता से उबरे नहीं हैं। करों के प्रावधान देखकर उन राजाओं की याद आ जाती है जो किसी भी बात के लिए जनता पर कर थोप देते थे। कहने के लिए यह बजट महंगाई से पहले से ही पीडि़त आम जनता के घावों पर मरहम रखने को ध्यान में रखकर बनाया गया है। यही वजह है कि जनता पर प्रत्यक्ष कर लगाने से सरकार बची है, लेकिन वहीं सरकार अप्रत्यक्ष रूप से कर भी थोप दिए हैं। आखिर इसका भुगतान किसे करना होगा? जाहिर है जो अप्रत्यक्ष कर उद्यमियों पर लगाए हैं, आखिरकार इनका बोझ जनता की जेब पर ही पड़ेगा। जब उद्यमियों पर कर लगाए जाएंगे तो उनके तैयार माल की लागत बढ़ जाएगी। इससे सामान की कीमत बढ़ेगी और वह बढ़ी हुई कीमत जनता से ही वसूलेंगे। उद्यमियों का कहना है कि कच्चे माल की कीमत बढ़ी होने के कारण चीजों के दाम पहले से ही बढ़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में उनके लिए और अधिक दाम बढ़ाने की कोई गुंजाइश नहीं बची है। उनके लिए अपने सामानों के दाम बढ़ाने की गुंजाइश इसलिए भी नहीं रह गई है, क्योंकि दुनिया भर के कई दूसरे देशों के लिए भारतीय बाजार के दरवाजे सरकार पहले ही खोल चुकी है। चीन से हर तरह के सामान हमारे देश में आ रहे हैं और दाम कम होने की वजह से खूब बिक भी रहे हैं। बेहद सस्ते दाम पर आने के लिए चीनी माल दुनिया भर के उद्यमियों के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। काफी हद तक वे भारतीय उद्यमियों के लिए भी परेशानी के कारण बन चुके हैं। अगर भारतीय उद्यमियों पर इसी तरह बिना सोचे-समझे कर या शुल्क लगाए जाते रहे तो आने वाले दिनों में इनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा। आखिर मामूली मुनाफे पर या घाटा बर्दाश्त करके कोई उद्योग कितने दिनों तक चल सकेगा? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उद्योगों से केवल उद्यमियों का जीवन जुड़ा हुआ नहीं है। इनसे बड़ी संख्या में मजदूरों की रोजी-रोटी का सवाल भी जुड़ा है। अगर उद्योग संकट में पड़ गए तो उन तमाम मजदूरों की रोजी-रोटी का क्या होगा जो इन पर आश्रित हैं? यह प्रश्न इसलिए भी अत्यंत प्रासंगिक है, क्योंकि बेरोजगारी पहले से ही पूरे देश में एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में मौजूद है। इस समस्या को हल करने के नाम पर नाटक चाहे जितना भी क्यों न हो रहा हो, लेकिन सच्चाई यह है कि वास्तव में किसी भी प्रयास का कोई असर दिख नहीं रहा है। अब अगर उद्योग भी संकट में फंस गए तो फिर रोजगार की स्थिति देश में क्या होगी यह आसानी से समझा जा सकता है। इस तरह अगर देखा जाए तो सरकार नए रोजगार सृजन के बजाय देश में पहले से मौजूद रोजगार को भी खत्म करने पर तुल गई सी लगती है। इसी सोच के तहत लुधियाना के मजदूर संगठन भी उद्यमियों के साथ आ गए हैं। वे इस हड़ताल को अपना पूरा समर्थन दे रहे हैं। उद्यमियों और मजदूरों की इस मुश्किल को समझा जाना चाहिए। सरकार को इसके दूरगामी परिणामों की ओर भी देखना चाहिए। यह एक स्थापित तथ्य है कि जिस किसी भी समाज में बेरोजगारी और महंगाई बढ़ी है, वहां अपराध भी बढ़े हैं। वस्तुत: अपनी आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समाज के एक बड़े वर्ग की यह मजबूरी हो जाती है। चिंताजनक बात यह है कि भारत में महंगाई और बेकारी दोनों ही समस्याएं बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही हैं। क्या सरकार आने वाली स्थितियों के लिए तैयार है? यह सही है कि सरकार के खर्चे बढे़ हैं, लेकिन क्या इन खर्चो में सभी वाजिब हैं? यह कौन नहीं जानता कि जनकल्याण पर किए जाने वाले खर्चो में से एक बहुत बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है! इस पर अंकुश लगाने का इंतजाम क्यों नहीं किया जाता है? सरकार जनता को तो अपने खर्चे सीमित करने के उपदेश देती है, लेकिन उस पर वह स्वयं अमल करने की कोशिश क्यों नहीं करती? अफसरों और मंत्रियों के अनाप-शनाप खर्चो में कटौती क्यों नहीं की जाती है? पहले से ही तबाह जनता अपने खर्चे किस हद तक सीमित करेगी? जिसके लिए अपनी रोटी-दाल का इंतजाम भी मुश्किल हो वह अपने खर्चे और किस हद तक सीमित करेगा? दूसरी तरफ, लाखों करोड़ों रुपये के घपले की जो बातें सामने आ रही हैं, उनकी ईमानदारी से जांच क्यों नहीं कराई जाती है? अपने चहेते लोगों को तरह-तरह से उपकृत करने और अनुत्पादक कार्यो पर सरकार के मंत्री जो खर्चे कर रहे हैं, उन पर नियंत्रण के उपाय क्यों नहीं किए जाते हैं? सच तो यह है कि अगर केवल इतने ही उपाय ईमानदारी से कर लिए जाएं तो सरकार के खर्चे बहुत हद तक घट जाएंगे। ठीक इसी तरह विकास कार्यो में भी अगर पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी लाई जाए तो बहुत खर्चे घट जाएंगे। कम लागत में वास्तविक और प्रभावी विकास हो सकते हैं। बार-बार कर लगाने और नए-नए शुल्क थोपने की प्रवृत्ति से सरकार को बचना चाहिए, क्योंकि इससे पहले जनता, फिर उद्यमियों और अंतत: रोजगार पर इसका बहुत बुरा असर पड़ता है। इससे एक-एक करके क्रमश: सभी तबाह होते हैं और यह किसी भी देश या समाज के लिए अच्छी स्थिति नहीं होती है। अगर ऐसे ही बिना सोचे-समझे कर लगाए जाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जबकि उद्यमों की स्थिति भी खेती जैसी हो जाएगी। ऐसी स्थिति की कल्पना भी भयावह है। अगर सरकार वास्तव में ऐसी स्थिति से बचना चाहती है तो बेहतर होगा कि वह अभी से इसके लिए सतर्क हो जाए और कराधान की अपनी वर्तमान प्रणाली पर पुनर्विचार करे। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)

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