प्रधानमंत्री जी, यहां तक तो ठीक था कि आपके महंगाई संग विकास के फार्मूले को यह देश बीते डेढ़ साल से भुगत रहा था, लेकिन अब अपने सपने को इस पर मत लादिए। पहले ही महंगाई से टूट चुके आम-आदमी की इस बार आह भी नहीं निकल पाएगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने सपने का खुलासा बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लाए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर किया और हमेशा की तरह न विपक्ष का ध्यान गया, न मीडिया का और न ही जनता का। प्रधानमंत्री ने अपने सपने का संकेत बजट भाषण से कुछ दिन पहले टीवी संपादकों के साथ बातचीत में भी दिया था, लेकिन इसका खुलासा उन्होंने लोकसभा में ही किया। उन्होंने कहा कि वे जब भी बाहर जाते हैं तो लोग ताज्जुब करते हैं कि मंदी के इस दौर में भी वे (प्रधानमंत्री) कैसे एक अरब की आबादी को 8 फीसदी की विकास दर के साथ रख पा रहे हैं। लोग पूछते हैं कि वे कैसे इतने बड़े लोकतांत्रिक देश को कानून एवं व्यवस्था, मानवाधिकार, सर्वधर्म सम्भाव, आर्थिक और सामाजिक समानता के साथ इस ऊंची विकास दर के साथ चला रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि पूरी दुनिया भारत की सवा अरब जनता की ओर आस और उम्मीद भरी नजरों से देखती है, क्योंकि हम आगे बढ़ेंगे तो दुनिया की 1/6 मानवीय नस्ल आगे बढ़ेगी। पूरी दुनिया में संदेश जाएगा कि एक लोकतांत्रिक देश कैसे सबको साथ लेकर आगे बढ़ सकता है। इसलिए वे यहां के आम-जन खासतौर पर मीडिया से आग्रह करते हैं कि वे देश की छवि ऐसी नहीं दिखाएं, जिससे यहां यह दिखे कि यहां चारों ओर महंगाई और भ्रष्टाचार है। प्रधानमंत्री ने जब अपने को मानवीय नस्ल का संवाहक बताया। इसका सपना देखा। तभी माथा ठनक गया कि प्रधानमंत्री अपने सपने को पूरा करने के लिए देश की एक अरब आबादी की बलि लेने पर तुल आए हैं। वे अब दुनिया में क्या साबित करना चाहते हैं कि कैसे 20 रुपये की दिहाड़ी के साथ जीवन मयस्सर करने वाली 80 फीसदी श्रमिक आबादी के साथ 8 से 10 फीसदी की विकास दर लाई जा सकती है। कैसे 50 करोड़ गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों के रहते हुए भी 8 से 10 फीसदी की विकास दर हासिल की जा सकती है। साथ ही वे यह भी बताने से नहीं चूकेंगे कि देश में गरीबी को दूर करने के लिए देश में दुनिया की सबसे बड़ी राशन वितरण प्रणाली है। दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार गारंटी योजना है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना है। किसान क्रेडिट कार्ड योजना है। इंदिरा आवास योजना है। वृद्धावस्था पेंशन है। विधवा पेंशन है। सब्सिडी है और अब सब्सिडी के बदले नकद राशि योजना है यानी 50 करोड़ गरीब जनता को अपने कंधे पर लादकर प्रधानमंत्री वाशिंगटन में 10 फीसदी की विकास दर से दौड़ लगाने का अपना सपना पूरा कर सकेंगे। यह पूरी मानवीय नस्ल के लिए संदेश होगा, जो युगों-युगों तक याद रखा जाएगा। दरअसल, इस सपने को पूरा करने की उनकी आस नवंबर 2009 में बनी, जब अपनी अमेरिकी यात्रा के दौरान व्हाइट हाउस में भोज के दौरान राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उनकी समझदारी और शान में कसीदे पढ़े। ओबामा ने बाद में ऐसा कई मौकों पर कहा। फिर एक पश्चिमी पत्रिका ने भी उन्हें दुनिया का सबसे समझदार और बुद्धिमान नेता का तमगा दे दिया। फिर क्या था, प्रधानमंत्री को इसे साबित करना था और दुनिया को बताना था कि मंदी में भी 6.5 फीसदी की विकास दर और बाद में 8.6 फीसदी की विकास दर कोई इत्तेफाक नहीं है। इस विकास दर को वे अगले कई वर्षो तक 9 से 10 फीसदी तक बनाए रखने का हौसला रखते हैं। मई 2009 में जब प्रधानमंत्री ने दोबारा से सत्ता संभाली थी तो उन्होंने सोचा नहीं था कि वे भारत की आम-जनता को दुनिया की मानवीय नस्ल का हिस्सा मानने लगेंगे। शुरुआत में वे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के एक अदद सिपाही की ही तरह थे, जो श्रीमती गांधी के गरीबोन्मुखी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए संकल्पबद्ध था। इसी के तहत प्रधानमंत्री ने जुलाई 2009 में पेट्रोल-डीजल के दामों में बढ़ोतरी कर संकेत दे दिए थे कि वे आम जनता खासतौर पर मध्यम वर्ग पर महंगाई को बोझ लादकर उससे मिल रहे पैसे को गरीबों के उत्थान की योजनाओं में लगाएंगे, लेकिन नवंबर 2009 के बाद प्रधानमंत्री की खुद को वैश्विक नेता के रूप में स्थापित करने की ख्वाहिश बलवती होने लगी। इसका खुलासा उन्होंने कभी किसी से नहीं किया। मन ही मन चुपचाप अपने सपने में मौजूदा महंगाई बनाम गरीबी उत्थान की योजनाओं के माध्यम से रंग भरने लगे। जब स्थितियां उनके अनुकूल चलने लगीं और लाख विरोध के बावजूद पार्टी और सोनिया गांधी उनके साथ खड़ी दिखाई दीं तो मौजूदा बजट सत्र में राष्ट्रपति अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर उन्होंने इसका खुलासा कर दिया, लेकिन हमेशा की तरह प्रधानमंत्री के इस सपने की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। जब भी पत्रकारों ने उनसे मध्यावधि चुनाव या राहुल के प्रधानमंत्री बनने का सवाल पूछा तो वे बड़ी अडिगता से कहते आए कि उन्हें अभी बहुत से अधूरे काम पूरे करने है। उनका वक्तव्य साफ था, लेकिन कोई इसके पीछे उनकी मंशा को नहीं पढ़ पाया। दूसरे, हाल में जारी आर्थिक सर्वे 2011-12 की रिपोर्ट में सरकार ने साफ उल्लेखित कर दिया है कि आने वाले कई सालों यानी दशक तक महंगाई और विकास का साथ चोली-दामन की तरह रहने वाला है। यानी कि इस देश की जनता खासतौर से मध्यवर्ग को अब निम्न मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग को गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की पायदान पर खिसकने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। रही बात गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तो सरकार ने उसकी कभी परवाह नहीं की, क्योंकि एक पूरी बीपीएल नस्ल भी खत्म हो जाए तो निम्न मध्यम वर्ग की एक पूरी नस्ल उसकी जगह भरने के लिए इस देश में हमेशा तैयार रहती है। सरकार के लिए गरीब आंकड़े भर होते हैं, जिनके लिए सरकारी योजनाएं चलाई जाती हैं और अपनी पीठ थपथपाई जाती है कि इतने लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर ले आया गया है। यह बात दूसरी है कि देश में 6.5 करोड़ परिवार (केंद्र सरकार के मुताबिक) गरीबी रेखा से नीचे हैं या 10.5 करोड़ परिवार (राज्य सरकारों के मुताबिक)। सुरेश तेंदुलकर भले ही कहें कि 27.5 करोड़ लोग (जैसा कि केंद्र सरकार कहती है) नहीं, देश में 37.6 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। या एनसी सक्सेना के मुताबिक 52 करोड़ बीपीएल लोग या अर्जुन सेन गुप्ता के मुताबिक 80 फीसदी आबादी बीपीएल में आती हो। सरकार को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे बस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष सोनिया गांधी को बताना है कि वह गरीबी उत्थान की योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के साथ-साथ राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के लिए क्या कर रही है। राहुल गांधी को यह बताना है कि उसने इस बार पूर्वी उत्तर प्रदेश के बुनकरों के सिर चढ़े 3 हजार करोड़ रुपये के ऋण माफ कर दिए हैं। बीते बजट में राहुल गांधी बुंदेलखंड के लिए 1100 करोड़ और 7200 करोड़ रुपये (विशेष पैकेज) के रूप में ले गए थे। जो भी हो, सरकार खासतौर पर प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी अपने इस महंगाई संग विकास के मॉडल से पीछे हटने वाले नहीं हैं, क्योंकि सोनिया गांधी को लगता है कि सरकारी योजनाओं में लग रही राशि (जो महंगाई से आ रही है), वोट बैंक में तब्दील हो जाएगी। यह बात दूसरी है कि यह हकीकत से कोसों दूर है। संप्रग-1 के समय सरकार ने किसानों को 70 हजार रुपये के ऋण माफ किए थे। वनाधिकार अधिनियम लागू किया था और तो और, मनरेगा था। लेकिन इसके बद भी मई 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को गरीब प्रदेश बिहार, उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ की 86 लोकसभा सीटों में से मात्र 10 सीटें मिलीं। अगर इसमें राजस्थान को छोड़कर बीमारू प्रदेश मध्य-प्रदेश और उत्तर प्रदेश को भी जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा 208 में से मात्र 48 सीटों पर आकर रुकता है, लेकिन इस हकीकत को कोई मानने को तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री तो खैर मानेंगे ही नहीं, क्योंकि इसे मान लिया तो फिर उनके सपने का क्या होगा। इसलिए आने वाले दो-चार दिनों में पेट्रोल-डीजल, दूध या दवाओं के दाम बढ़ें तो आम-आदमी चिल्लाए नहीं, क्योंकि इससे दुनिया में देश की छवि खराब होती है। उसे तो चाहिए कि वह प्रधानमंत्री के अदद सपने को पूरा करने करने के लिए चुपचाप अपनी जान दे दे। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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