Thursday, March 3, 2011

खाद्यान्न सुरक्षा, कानून से भी दूर


लगातार ऊंची खाद्य मुद्रास्फीति की दर की पृष्ठभूमि में किसी भी सरकार से कम से कम इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है कि वह, खाद्य सहायता में वास्तविक बढ़ोतरी करेगी। हां! अगर खाद्य सुरक्षा कानून का मकसद वास्तव में खाद्य सुरक्षा कम करना हो, तो बात दूसरी है
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बजट भाषण में यह एलान किया है कि उनकी सरकार खाद्य सुरक्षा कानून बनाएगी। उन्होंने इसी साल संसद में खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने का भी भरोसा दिलाया है। वैसे इसके अर्थ को भी अनदेखा करना मुश्किल है कि खाद्य सुरक्षा कानून के वादे के साथ चुनाव में उतरे यूपीए सरकार के तीसरे बजट में भी, इसी साल में खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वादा ही किया जा रहा था। यानी सरकार के कार्यकाल का पूर्वार्ध तो यह कानून बनाने का मन बनाते-बनाते ही निकल गया है। बहरहाल, इस मामले में सरकार की नीयत का पता देने वाला और भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि 2011-12 के बजट में खाद्य सब्सिडी के लिए जो रकम रखी गयी है, पिछले वित्त वर्ष के संशोधित बजट अनुमानों के मुकाबले, कुछ न कुछ कटौती को ही दिखाती है। 2010-11 का खाद्य सब्सिडी का संशोधित बजट अनुमान, 60,599.53 करोड़ रुपये है। 2011-12 के बजट में खाद्य सब्सिडी की मद में आवंटन, इससे करीब 27 करोड़ रुपये घटाकर रखा गया है। बेशक, कटौती की रकम बहुत ज्यादा नहीं है। फिर भी कम से कम दो कारणों से इस कटौती का महत्व कहीं ज्यादा है। पहली तो यही कि जब हम लगभग लगातार दो अंकों में बनी रही खाद्य मुद्रास्फीति को हिसाब में लेते हैं, वास्तविक कटौती रुपया मूल्य में की गयी इस कटौती से बहुत ज्यादा और उल्लेखनीय होगी। दूसरे, पिछले दो वर्षो में कमोबेश लगातार ऊंची खाद्य मुद्रास्फीति की दर की पृष्ठभूमि में जब खाद्य सुरक्षा व्यवस्था की बढ़ती जरूरत सभी स्वीकार करते रहे हैं, खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के प्रति गंभीर किसी भी सरकार से कम से कम इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है कि वह, खाद्य सहायता में वास्तविक बढ़ोतरी करेगी। हां! अगर खाद्य सुरक्षा कानून का मकसद वास्तव में खाद्य सुरक्षा कम करना हो, तो बात दूसरी है। बहरहाल, खाद्य सुरक्षा की मद में ताजातरीन बजट में की गयी कटौती से तो यही लगता है कि मौजूदा सरकार, खाद्य सुरक्षा कानून की आड़ में खाद्य सहायता में कमी ही करने की उम्मीद लगाए हुए है। खैर, इतना तय है कि यह किसी भूल-चूक का मामला नहीं है। श्री मुखर्जी ने ही 2010-11 के बजट में खाद्य सब्सिडी में पूरे 600 करोड़ रुपये की कटौती का प्रस्ताव किया था। याद रहे कि खाद्य सहायता में कटौती के प्रयास उस देश में किये जा रहे हैं, जो वैसे भी ग्लोबल हंगर इंडैक्स के अनुसार भुखमरी के चौंकाने वालेस्तर पर है। और जहां दुनिया भर में सबसे बड़ी संख्या में भूख के शिकार रहते हैं। इस मामले में हमारा देश 88 विकासशील देशों की सूची में भी 66 वें स्थान पर है। यह कटौती उस देश में हो रही है जहां 46 फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, 30 फीसद बच्चे जन्म के समय ही कम वजन के पैदा होते हैं और हर साल 15 लाख बच्चे, सीधे-सीधे कुपोषण से जुड़े कारणों से दम तोड़ देते हैं। बेशक, सरकार का इस तरह का रुख, खाद्य सब्सिडी पर खर्चा, हालात के तकाजों के उलट घटाए जाने तक ही सीमित नहीं है। एक और हरित क्रांति की बतकही के बावजूद, इसी बजट में आम तौर पर कृषि तथा खास तौर पर खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी के पहलू सेभविष्यदृष्टि तथा रणनीतिके अभाव की सचाई खुद प्रोफेसर एम एस स्वामीनाथन ने बयान की है। सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय कृषक आयोग के अध्यक्ष ने इसेदुर्भाग्यपूर्णबताया है कि एक ऐसे वर्ष में जब विश्व खाद्य संकट उभर रहा है और ऊंची खाद्य मुद्रास्फीति बराबर बनी हुई है, ‘कृषि की प्रगति तथा कृषिगत खुशहाली का अवसर गंवा दिया गया है।
यह विडंबनापूर्ण किंतु सच है कि खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की कोई सुसंगत रणनीति अपनाने से वह सरकार बचती रही है, जो खाद्य मुद्रास्फीति की ऊंची दरों को, जनता की खुशहाली तथा उसके चलते उपभोग की बढ़ी हुई मांग के ही सबूत के रूप में चलाने की कोशिश कर रही है। वैसे यह पूरी की पूरी दलील ही तथ्यों से मेल नहीं खाती है। सचाई यह है कि नव्बे के दशक से शुरू हुए, नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के दौर में, एक ओर अगर संवृद्धि दर ऊपर चढ़ती गयी है, तो दूसरी ओर प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता करीब-करीब लगातार ही, नीचे खिसकती गयी है। इस प्रक्रिया में हमारे देश में वास्तव में हरित क्रांति के पूरे दौर में खाद्यान्न उपलब्धता में हुए सुधार को पलट ही दिया गया है और देश को एक बार फिर, आजादी से ठीक पहले और ठीक बाद के दौर के स्तर पर पहुंचा दिया गया है। वास्तव में यह किस्सा सिर्फ हमारे देश का ही नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि अस्सी के बाद से सारी दुनिया को मिलाकर खाद्यान्न उत्पादन में, कुल मात्रा के लिहाज से उल्लेखनीय गिरावट आयी है। 1980-85 की अवधि में, अनाज का औसत प्रति व्यक्ति सालाना उत्पादन 335 किलोग्राम रहा था। लेकिन, 2000-05 में यही आंकड़ा 310 किलोग्राम रह गया था। ऐसे में अगर उपभोग के घटने यानी भूख के बढ़ने के बावजूद, दुनिया 2008 के बाद एक बार फिर विश्व खाद्य कीमतों में तेजी तथा खाद्य संकट की ओर खिसक रही है तो यह हमारे जैसे देशों में आम आदमी के बदहाल होने की ही निशानी है। लेकिन, इस सचाई को स्वीकार करने का मतलब यह स्वीकार करना भी होगा कि इन हालात में खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के लिए सहायता का दायरा उल्लेखनीय रूप से बढ़ाए जाने की जरूरत है। इसके लिए, खाद्य सब्सिडी में भी बढ़ोतरी करने की जरूरत होगी। लेकिन, सरकार के सोच की समग्र दिशा तो खाद्य सब्सिडी में ज्यादा से ज्यादा कटौती करने की ही दिशा है। अचरज नहीं कि प्रणब मुखर्जी की सरकार खाद्य सुरक्षा कानून तो देने के लिए तैयार है, लेकिन किसी वास्तविक अर्थ में भारतीयों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के लिए तैयार नहीं है। इसीलिए, खाद्य सुरक्षा विधेयक पर यूपीए की सरकार और सोनिया गांधी के नेतृत्ववाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के बीच साल भर से ज्यादा से जारी रस्साकशी का, कहीं कोई अंत नजर ही नहीं आ रहा है। जहां एनएसी खाद्य सुरक्षा के प्रावधान के लिए, वर्तमान सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का विस्तार किया जाना अपरिहार्य मानती है, वहीं यूपीए सरकार कथित गरीबी की रेखा के नीचेवालों को छोड़कर, शेष तबकों के लिए खाद्यान्न मुहैया कराने की कोई जिम्मेदारी स्वीकार ही नहीं करना चाहती है। इसका सीधे-सीधे अर्थ है, पहले से चले आ रहे प्रावधानों में भी काट-छांट। एनएसी के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए, मनमोहन सिंह की सरकार ने रंगराजन के नेतृत्व में जो कमेटी गठित की थी, उसने सार्वजनिक वितरण पण्राली के विस्तार के सभी प्रस्तावों को हिकारत से ठुकरा दिया था। इसी पृष्ठभूमि में, एनएसी की इस बजट से ऐन पहले हुई बैठक में अपना रुख कड़ा करते हुए यह फैसला लिया गया कि सरकार की मजबूरियों की परवाह न कर, वह अपनी सिफारिशें पेश करेगी! उन्हें मंजूर करे या नामंजूर, यह सरकार की मर्जी। अगर ताजा बजट कोई संकेत है तो इसके आसार कम ही हैं कि यह टकराव, बढ़ते विश्व खाद्य संकट के दौर में भी देशवासियों को कोई वास्तविक खाद्य सुरक्षा मुहैया कराएगा। हां! देश को खाद्य सुरक्षा कानून जरूर दिला सकता है, लेकिन उसे एनएसी तक का आशीर्वाद हासिल नहीं होगा; फिर एक कारगर कानून के रूप में उसकी विश्वसनीयता कितनी होगी, इसका आसानी से अंदाज लगाया जा सकता है।



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