Wednesday, March 9, 2011

तेल की धार


हम तेल के लिए अरब देशों पर दयनीय रूप से निर्भर हैं
लीबिया और उसके आस-पड़ोस वाले इलाके में आग लगी हुई है। लगभग पूरी अरब दुनिया और उत्तरी अफ्रीका में दशकों से चली आ रही तानाशाहियों को जबर्दस्त झटका लगा है। मिस्र, ट्यूनीशिया और सूडान में कमोबेश सत्ता परिवर्तन हो चुका है, तो बहरीन, यमन और जॉर्डन में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर जारी है।
भारत की मध्य पूर्व अथवा पश्चिम एशिया परक नीति ऊर्जा सुरक्षा के साथ जुड़ी हुई है। भारत अपनी तमाम ऊर्जा जरूरतों में से 70 प्रतिशत की आपूर्ति फिलहाल तेल और गैस के आयात से करता है। अनुमान है कि निकट भविष्य में यह आंकड़ा 85 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा। हमारे यहां कोयले का विशाल भंडार है और बड़े पैमाने पर पनबिजली उत्पादन के स्रोत भी सुलभ हैं। पर इन सब का सुखद संभावनाओं में बदलना बहुत बड़े पूंजी निवेश की अपेक्षा रखता है। बड़े बांधों को लेकर उठे सवाल आसानी से हल नहीं किए जा सकते। रही बात परमाणु ऊर्जा की तो, हमारी ऊर्जा जरूरत का महज दो प्रतिशत हिस्सा इससे पूरा होता है।
देश में तेल की जितनी खपत होती है, उसका सिर्फ 30 प्रतिशत ही हमारे अपने तेल भंडार से पूरा होता है। शेष 70 प्रतिशत में सबसे बड़ा भाग सऊदी अरब से आता है, लगभग एक चौथाई यानी 23 प्रतिशत। दूसरा सबसे बड़ा देश ईरान है, जो हमारी जरूरत का लगभग 17 प्रतिशत देता है। नौ प्रतिशत तेल हम संयुक्त अरब अमीरात से खरीदते हैं। करीब 11 प्रतिशत के लिए हम नाइजीरिया पर निर्भर हैं और चार फीसदी हमें मलयेशिया से प्राप्त होता है। तेल की खोज में भारत वेनेजुएला तक पहुंच चुका है और इसी कारण पड़ोस म्यांमार में अपने गांधीवादी अहिंसक सत्याग्रही विरासत को भुलाकर आंग सान सू की को नजरबंद बनाने वाली फौजी तानाशाही को गले लगाया है।
मध्य पूर्व के मौजूदा संकट को इस संदर्भ में देखें, तो कई चीजें सामने आती हैं। भारत ने बड़े पैमाने पर साइबीरिया के तेल गैस भंडार में निवेश किया है। पर अब तक वहां से कुछ हासिल नहीं हुआ है, जो अरबों और पश्चिम एशिया पर हमारी निर्भरता घटा सके। वेनेजुएला बहुत दूर है और नाइजीरिया में एक ऐसी तानाशाही है, जिसके बारे में भारत निश्चिंत नहीं बैठा रह सकता।
इसके अलावा कुछ और चिंताजनक बातें हैं। मध्य एशिया के कुछ ऐसे गणराज्य हैं, जो कभी सोवियत साम्राज्य का हिस्सा थे। कजाकिस्तान और अजरबैजान जैसे ये गणराज्य विपुल तेल संपदा के मालिक हैं। कभी एक ऐसी महत्वाकांक्षी परियोजना का जिक्र किया जाता था, जो ईरान से बरास्ता अफगानिस्तान और पाकिस्तान तेल और गैस पहुंचाती। आगे चलकर मध्य एशिया के इन तेल भंडारों से भी इसको जोड़ने की योजना थी। अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार के कारण जब से हमारे प्रधानमंत्री ने इसे अव्यावहारिक करार दिया है, तब से इसे प्रस्तावित करने वाले ऊर्जा विशेषज्ञों को सांप सूंघ गया है। यह इस बात का सुबूत है कि आज की तारीख में अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए हम अरबों पर किस दयनीय तरीके से निर्भर हैं। अमेरिकी हिदायत के अनुसार अपनी विदेश नीति और राजनय का संचालन करने के कारण ईरान के साथ हमारे रिश्ते बीच-बीच में तनावग्रस्त होते रहते हैं।
यह सच है कि लीबिया से बहुत थोड़ी मात्रा में ही हमें तेल प्राप्त होता है, पर हमारी स्थिति बूंद-बूंद से घड़ा भरने जैसी है। अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में हमारा सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी चीन है। म्यांमार हो या नाइजीरिया, अंतरराष्ट्रीय नीलामी में वह कई बार भारत को पछाड़ चुका है। भू-राजनीतिक कारणों से उसकी निगाह दक्षिण पूर्व एशिया के तेल भंडार पर भी है और साइबेरिया पर भी।
सवाल सिर्फ तेल आयात तक सीमित नहीं है। इराक में अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद वहां से भारत का तेल आयात बुरी तरह बाधित हुआ है। जो भारतीय कंपनियां उसके साथ तेल से इतर व्यापार करती थीं, उन्हें भी काफी नुकसान उठाना पड़ा। आज ऐसे ही आसार सूडान में नजर आ रहे हैं और अन्यत्र भी। फिलहाल हमारी सरकार संतुष्ट हो सकती है कि संकटग्रस्त क्षेत्र में फंसे भारतीयों को सकुशल स्वदेश ले आया गया है, पर उस क्षेत्र में अपने राष्ट्रीय हित सुरक्षित रखने की चुनौती इससे कहीं ज्यादा है।
लीबिया हो या सूडान, सऊदी अरब हो या ईरान, बहरीन हो या संयुक्त अरब अमीरात, भारत को अपनी धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक व्यवस्था का संतुलन आक्रामक-विस्तारवादी कट्टरपंथी इसलाम तथा मध्ययुगीन कबायली मानसिकता वाली तानाशाही सरकारों के साथ बिठाना ही पड़ेगा। यह सोचना नादानी है कि जनाक्रोश की जो लहर अरब दुनिया और उत्तर अफ्रीका में उठ रही है, उसका परिणाम समतापोषक और आधुनिक मिजाज वाली व्यवस्था की स्थापना ही होगा। जाहिर है, तख्तनशीन व्यक्ति का चेहरा भर बदलेगा, यथास्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं होगा।
अनेक भारतीय राजनयिक बार-बार दोहरा रहे हैं कि हमें अपने हितों की रक्षा के लिए यथार्थवादी सोच ही अपनाना चाहिए, सिर्फ आदर्शवादी नारेबाजी कठिनाइयां ही बढ़ाएंगी। कठिन चुनौती से मुंह मोड़ने वाला हमेशा बुद्धिमान नहीं समझा जा सकता। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कई ऐसे मौके भी आते हैं, जब जोखिम भरा कदम उठाने वाला भरपूर लाभ उठाता है। लक्ष्मी मित्तल जैसे भारतीय उद्यमी इसी कारण अपना व्यापार विश्वव्यापी बनाने में सफल हुए हैं। ओएनजीसी विदेश को भी साइबेरिया में पूंजी निवेश में आसानी इसी कारण हुई थी कि संकटग्रस्त रूस में निवेश की हिम्मत यूरोपीय तेल कंपनियों में नहीं थी। लिहाजा ऊर्जा सुरक्षा के मामले में महाशक्तियों द्वारा सुझाए नुस्खों को प्राणरक्षक औषधि समझना अक्लमंदी नहीं

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