Friday, March 25, 2011

उनके खाते में


नगद सबसिडी योजना का लाभ वास्तविक गरीबों तक पहुंचेगा

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने मन बनाया है कि खाद्यान्न, फर्टिलाइजर, केरोसीन एवं डीजल पर दी जा रही सबसिडी सीधे उपभोक्ता को नगद दे दी जाए। वर्तमान में यह रकम कंपनियों को दी जाती है। मसलन, फर्टिलाइजर सबसिडी की रकम यूरिया उत्पादन करने वाली कंपनियों को दी जाती है। मान लें कि कंपनी की लागत नौ रुपये प्रति किलो आती है। सरकार चाहती है कि किसान को यूरिया सात रुपये प्रति किलो उपलब्ध हो जाए। ऐसे में सरकार दो रुपये प्रति किलो की रकम कंपनी को देती है और कंपनी सात रुपये में यूरिया बेचती है।
इस प्रक्रिया में कई समस्याएं सामने आई हैं। कंपनियों द्वारा उत्पादन लागत बढ़ाकर दर्ज कराए जाने के संकेत मिलते रहे हैं। इसके तहत कंपनियां खातों में हेराफेरी कर उत्पादन लागत बढ़ाकर बताती हैं और ज्यादा सबसिडी हथिया लेती हैं। दूसरी समस्या यह है कि सबसिडी की अधिकाधिक रकम कृषि कंपनियों एवं बड़े किसानों द्वारा पकड़ ली जाती है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि बड़े किसानों के पास 18 प्रतिशत कृषि भूमि है, लेकिन वे 48 प्रतिशत फर्टिलाइजर की खपत करते हैं। यानी जो सबसिडी छोटे किसान के लिए है, उसका लाभ बड़े किसान उठा रहे हैं। खाद्य सबसिडी का वितरण बीपीएल कार्ड के आधार पर किया जाता है। लेकिन इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि लगभग 52 प्रतिशत खेत मजदूर एवं 60 प्रतिशत अनुसूचित जातियों को बीपीएल कार्ड नहीं मिले थे। ऐसी ही समस्याएं रसोई गैस, केरोसीन और डीजल पर दी जा रही सबसिडी में पाई गई हैं। अत: वित्त मंत्री ने मन बनाया है कि लाभार्थी को सबसिडी सीधे नगद दे दिया जाए।
सरकार का यह रुख सही है। गरीबों के नाम पर उच्च वर्ग और कंपनियों को पोषित करना उचित नहीं है। हालांकि नगद सबसिडी के विरोध में भी कई तर्क दिए जा रहे हैं। पहला तर्क है कि नगद सबसिडी को लाभार्थी तक पहुंचाना उतना ही कठिन होगा, जितना फर्टिलाइजर या खाद्यान्न सबसिडी पहुंचाना। रोजगार गारंटी कार्यक्रम के तहत लाभार्थियों को उनके बैंक खातों के माध्यम से भुगतान किया जा रहा है। फिर भी फरजी खातों से रकम का रिसाव हो रहा है। यह समस्या तो है, लेकिन यह भी सच है कि नगद सबसिडी में रिसाव कम होने की संभावना है। बैंक खाते की खोजबीन करना अपेक्षाकृत आसान है। सरकार द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को विशेष पहचान नंबर आबंटित किया जा रहा है, जिसमें फिंगर प्रिंट एवं आंख के चित्र शामिल होंगे। ऐसे में गड़बड़ करना कठिन होगा।
आशंका यह भी है कि नगद सबसिडी देने से देश की खाद्य सुरक्षा पर संकट आ सकता है। इस समय किसान को प्रमुख फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है। इसी से प्रोत्साहित होकर किसान गेहूं और धान जैसी फसलों का अधिकाधिक उत्पादन कर रहे हैं। नगद सबसिडी से सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा किसानों से खरीद नहीं की जाएगी तथा समर्थन मूल्य नीति खत्म की जाएगी। किसान को उचित मूल्य की गारंटी नहीं मिलेगी, तो खाद्यान्न उत्पादन गिर सकता है। हालांकि इसके दूसरे विकल्प भी उपलब्ध हैं। सुझाव है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति जारी रखी जाए और इसके तहत खरीदे खाद्यान्न को खुले बाजार में बेचा जाए।
नगद सबसिडी के विरुद्ध तीसरा तर्क जनता को सही दिशा देने का है। मान्यता है कि जनता अज्ञानी होती है और खुद सही निर्णय नहीं ले पाती। जैसे साठ के दशक में किसान रासायनिक खादों का उपयोग कम करते थे, यद्यपि यह लाभप्रद था। इसलिए लाभप्रद वस्तुओं को कृत्रिम रूप से सस्ता बनाकर जनता को उपयोग के लिए पे्ररित करना चाहिए। इस आधार पर फर्टिलाइजर सबसिडी शुरू हुई थी। मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराने का भी यही आधार है। लिहाजा यदि जनता को मूर्ख माना जाए, तो लोकतंत्र का आधार ही खिसक जाता है। अनेक अध्ययन बताते हैं कि किसान मूल्यों के आधार पर फसलों का चयन करते हैं। यदि रासायनिक खाद वास्तव में लाभप्रद है, तो किसान उसे बिना सबसिडी के भी अपना लेगा।
वास्तव में नगद सबसिडी का और अधिक विस्तार करने की जरूरत है। सरकारी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं जन कल्याण तंत्र को समाप्त कर इस रकम को भी नगद वितरित कर देना चाहिए। साथ ही नगद वितरण को बीपीएल के झंझट से मुक्त कर देना चाहिए। बीपीएल मात्र को सबसिडी देने से गरीब को चिह्नित करने के विवाद उत्पन्न होते हैं। सुझाव यह है कि जन कल्याण खर्च एवं सबसिडी की रकम को संपूर्ण देश की जनता में वितरित कर देना चाहिए।
वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2009-10 में सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर केंद्र एवं राज्य सरकारों ने 406 हजार करोड़ रुपये खर्च किए। इसमें स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाएं सम्मिलित हैं। इनमें रिसर्च आदि को छोड़कर शेष कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त कर दें, तो 300 हजार करोड़ की रकम बच सकती है। इसके अतिरिक्त 150 हजार करोड़ विभिन्न सबसिडी तथा 50 हजार करोड़ रोजगार गारंटी में खर्च किए जा रहे हैं। इन तमाम योजनाओं को खत्म कर दें, तो 500 हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष उपलब्ध हो सकते हैं। इसे देश के 20 करोड़ परिवारों में 24,000 रुपये सालाना की दर से वितरित किया जा सकता है। ऐसा करने से हर परिवार को जीवनयापन की न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध हो जाएंगी और देश को सरकारी कर्मचारियों की वेलेफयर माफिया से निजात भी मिल जाएगी। लिहाजा गरीबों के लिए नगद सबसिडी की योजना सरकार जितनी जल्दी शुरू करती है, उतना ही अच्छा होगा।


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