Thursday, March 10, 2011

वस्त्र उद्योग के हितों पर डाका


आम बजट ने कपास की महंगी कीमतों से हलकान कपड़ा कारोबारियों की दिक्कतों में और इजाफा कर दिया है। संप्रग सरकार की ओर से पेश किए गए वित्त वर्ष 2011-12 के बजट में ब्रांडेड कपड़ों पर 10 फीसदी उत्पाद शुल्क लगाए जाने का फैसला किया गया है। सरकार के इस फैसले का चौतरफा विरोध हो रहा है और कपड़ा कारोबारियों ने बीते शुक्रवार को देशभर में हड़ताल करके अपना विरोध जताया। यहां तक कि कपड़ा मंत्रालय ने भी सरकार से यह फैसला वापस लेने की सिफारिश की है, लेकिन अभी तक इस बाबत कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिला है। देश के कपड़ा कारोबार के महत्वपूर्ण केंद्रों में एक लुधियाना के कारोबारियों ने सरकार को चेताया है कि अगर उत्पाद शुल्क बढ़ाने का फैसला वापस नहीं लिया गया तो देशभर में अनिश्चितकालीन हड़ताल की जाएगी। सरकार की हठ के चलते कपड़ा कारोबारियों के हड़ताल पर जाने से महज एक दिन में ही 500 करोड़ रुपये से ज्यादा का कारोबार प्रभावित हुआ। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये के चलते कपड़ा कारोबारियों की लड़ाई भीषण रूप लेती जा रही है और इसका खामियाजा आम आदमी और अर्थव्यवस्था दोनों को चुकाना पड़ सकता है। ब्रांडेड कपड़ों पर लगाए गए 10 फीसदी उत्पाद शुल्क का सीधा असर कंपनियों के मुनाफे पर पड़ेगा। प्रस्तावित उत्पाद शुल्क में कहा गया है कि सालाना 1.5 करोड़ रुपये से ज्यादा का कारोबार करने वाले उत्पादक इसके दायरे में आएंगे। चूंकि महंगे कपास व महंगी श्रमशक्ति के कारण अधिकांश छोटे व्यवसायियों का कारोबार भी 1.5 करोड़ का दायरा पार कर जाता है। लिहाजा, देश के 90 फीसदी से अधिक कपड़ा उत्पादकों के साथ ही होजरी उत्पादकों को भी उत्पाद शुल्क चुकाना पड़ेगा। विगत तीन साल तक आर्थिक मंदी के भंवर में फंसा रहा कपड़ा उद्योग पिछले कुछ समय से कपास की बढ़ती कीमतों की मार झेल रहा है। बता दें कि वैश्विक स्तर पर चीन, भारत और पाकिस्तान तीन बड़े कपास उत्पादक देश हैं। दुनिया के कपास उत्पादन का लगभग 35 फीसदी अकेला चीन उत्पादित करता है, लेकिन इस बार वहां उत्पादन प्रभावित हुआ है। कृषि विश्लेषकों का मानना है कि इस बार चीन में कपास का उत्पादन 15 फीसदी कम होगा। बाढ़ और दूसरे जलवायुवीय कारणों से पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी इस बार कपास की फसल बुरी तरह से प्रभावित हुई है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में रिकवरी के शुरुआती संकेत मिलने के साथ ही यूरोपीय और अमेरिकी वस्त्र बाजारों में कपास की मांग बढ़ने लगी है। वैश्विक रुझानों को देखते हुए सरकार ने कपास की 55 लाख गांठों के निर्यात की अनुमति दे दी, लेकिन इस निर्णय से परिधान उद्योग मुश्किल में फंस गया है। हालांकि कपास की 260 लाख गांठों (एक गांठ बराबर 170 किलोग्राम) की घरेलू मांग के मुकाबले 325 लाख गांठों का उत्पादन होने की संभावना है, मगर भारतीय कपड़ा उद्योग की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए यह नाकाफी है। जाहिर है कि कपास की कीमतें पिछले एक साल की तुलना में दोगुनी हो गई और यार्न की कीमतों में भी 60 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। ऐसे में वस्त्र उद्योग की लागत में बढ़ोतरी हुई, लेकिन इस बढे़ हुए बोझ को पूरी तरह से उपभोक्ताओं पर नहीं डाला जा सकता था। नतीजन परिधान कंपनियों के मुनाफे पर दबाव बढ़ना शुरू हो गया। अंतरराष्ट्रीय बाजार में छाने के लिए भारतीय परिधान उद्योग के पास इस बार सुनहरा अवसर था। बांग्लादेश और पाकिस्तान का वस्त्र उद्योग इस समय कामगारों की कमी, कपास के कम उत्पादन और दूसरी आंतरिक समस्याओं से जूझ रहा है। अफसोसजनक बात यह है कि दिशाहीन सरकारी नीतियों के चलते भारतीय कपड़ा उत्पादक अनुकूल वैश्विक परिस्थितियों का फायदा उठाने से चूक गए। पिछले साल के मुकाबले इस बार धागे की कीमतें तो 50 फीसदी तक बढ़ी ही हैं, वस्त्र उद्योग को मजदूरों की कमी का भी सामना करना पड़ रहा है। मनरेगा जैसी सामाजिक परियोजनाओं के बाद मजदूरी की दरें 15-20 फीसदी बढ़ चुकी हैं। ब्रांडेड कपड़ों पर 10 फीसदी के उत्पाद शुल्क के बाद अगर 4.5 फीसदी वैट के अलावा स्थानीय करों को जोड़ा जाए तो करों का यह बोझ 18 से 20 फीसदी बैठता है। ऐसे में ब्रांडेड कपड़ों की कीमतों में भी 25 से 40 फीसदी की बढ़ोतरी होना तय है और ब्रांडेड कपड़ों का कारोबार करने वाली ड्यूक, मोंट कार्लो व वीनस जैसी कंपनियों ने तो दाम बढ़ाने की घोषणा कर दी है। हालांकि रिलायंस ट्रेंड्स, अरविंद ब्रांड्स एंड रिटेल, ऐरो व ली ब्रांड्स, मदुरा फैशन एंड लाइफस्टाइल, पेंटालून और शॉपर्स स्टॉप जैसे बड़े खिलाड़ी अभी तस्वीर साफ होने का इंतजार कर रहे हैं। सर्दियों की शुरुआत से पहले भी वस्त्र उद्योग 15-20 फीसदी दाम बढ़ा चुका है, इसलिए ताजा बढ़ोतरी महंगाई से पहले से ही परेशान उपभोक्ताओं की कमर तोड़कर रख देगी। फिलहाल देश में वस्त्र उद्योग का सालाना कारोबार एक लाख करोड़ रुपये है, जिसमें ब्रांडेड कपड़ों की हिस्सेदारी 65 फीसदी के आसपास है। कपड़ा उद्योग हमारे देश में कृषि क्षेत्र के बाद रोजगार देने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र है। छोटी वस्त्र कंपनियां 10 फीसदी उत्पाद शुल्क का भार नहीं सह पाएंगी और उनके बंद होने से बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर कम हो सकते हैं। अब तक वस्त्र उद्योग कपड़ों की मांग में हुई बढ़ोतरी से अपनी बैलेंसशीट को समायोजित कर रहा था, लेकिन ताजा झटका उसकी बर्दाश्त से बाहर है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि अमेरिकी और यूरोपीय ग्राहक भी महंगे दामों पर उत्पाद लेने से इनकार करेंगे। उलझनभरी बात यह है कि जब एक साल बाद सरकार गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी ला रही है तो ब्रांडेड कपड़ों पर 10 फीसदी उत्पाद शुल्क लगाना समझ से परे है। कपड़ा उद्योग पर मामूली लेवी तो लगाई जा सकती थी, लेकिन प्रस्तावित उत्पाद शुल्के से घरेलू बाजार में वस्त्रों की कीमतें उपभोक्ताओं की पहुंच से बाहर हो जाएंगी। उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी का अप्रत्यक्ष नतीजा यह होगा कि भारतीय बाजार सस्ते चीनी कपड़ों से पट जाएंगे और घरेलू कारोबरी अपने आप बाजार से बाहर हो जाएंगे। संप्रग सरकार के हालिया फैसले से लुधियाना से लेकर इंदौर तक कपड़ा कारोबारियों में रोष है और यह अदूरदर्शी फैसला लंबे समय में देश को विदेशी कपड़ों का गुलाम बनाकर रख देगा। ताजा कपास किसानों, आम उपभोक्ताओं और कपड़ा कारोबारियों में से किसी के हित में नहीं है। यूपीए सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस चाहे बेहतरीन बजट के कितने ही दावे करे, लेकिन यह बजट देश के 50,000 से ज्यादा कपड़ा कारोबारियों के हितों पर कुठाराघात है। अब भी वक्त है, यूपीए सरकार को परिधान उद्योग की सुलगती आग को ठंडा करने के लिए उत्पाद शुल्क के फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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