Saturday, February 5, 2011

आंकड़ों की अविश्वसनीयता


यदि दोषपूर्ण मीटर रीडिंग के आधार पर विमान उड़ता रहे, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि विमान चालक गलत निर्णय लेगा। आज लगभग यही स्थिति हमारी अर्थव्यवस्था की है, जहां अविश्वसनीय सांख्यिकी के सहारे त्रुटिपूर्ण नीतियां तय की जा रही हैं।

आजादी के बाद से ही हमने आंकड़े इकट्ठा करने वाली एजेंसियों को न तो कानूनी दरजा दिया और न ही हमारी सांख्यिकी प्रणाली के मुख्य मुद्दों का समाधान खोजने का प्रयास किया।
हालांकि रंगराजन समिति ने राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग को सांविधानिक दरजा देने की सिफारिश की थी। इस संबंध में बाद में बने विधेयक में कछ तकनीकी समस्याएं होने के कारण उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। गौरतलब है कि 1943 में भारत सरकार द्वारा गठित जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बंगाल के भीषण अकाल का मुख्य कारण उत्पादन के आंकड़ों की खामियां थी। आज भी सरकार बढ़ती हुई खाद्य मुद्रास्फीति के सही कारणों को ढूंढ पाने में विफल है। कृषि क्षेत्र में सरकार के अनुमानों को बाजार झुठला रहा है। वर्ष 2009-10 के लिए सरकार ने चीनी उत्पादन का अनुमान 160 लाख टन लगाया था, लेकिन निजी चीनी मिलों के संगठन ने इसे 145 लाख टन बताया । बाद में 188 लाख टन उत्पादन के आंकड़े सामने आए।
दरअसल केंद्र और राज्यों में कृषि उपज का आंकड़ा एकत्रित करने का तंत्र उपेक्षित क्षेत्र रहा है। कोई भी अफसर मुख्य सांख्यिकीय अधिकारी नहीं बनना चाहता। महाराष्ट्र में बागवानी विभाग एक वरिष्ठ कर्मचारी के सुपुर्द कर दिया गया है। इसी का नतीजा है कि वहां अनार के निर्यात के लिए उपलब्ध मात्रा का सही अनुमान तो दूर, घरेलू उपयोग में आनेवाले अनार का सही आंकड़ा मौजूद नहीं है। जबकि वहां की सूखी खेती में अनार उत्पादन निर्यात की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
कृषि क्षेत्र के अविश्वसनीय आंकड़ों के पीछे कई बार यह तर्क दिया जाता है कि इसके लिए पटवारी पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि राजस्व विभाग खुद काम के लिए तैयार ही नहीं होता। इसका असर फसल बीमा योजना पर पड़ा है। इस कारण बीमा कंपनियों से अनेक फसलों को बीमा संरक्षण नहीं मिल पाया। जिन फसलों को संरक्षण मिला, वहां भी उनके दावे निपटाने में अधिक समय लगा, क्योंकि उपज के आंकड़े एक साल बाद प्राप्त हुए। चीनी उत्पादक राज्यों के कमिश्नर उत्पादन के आंकड़े केंद्रीय वित्त मंत्रालय को भेजते हैं, लेकिन भ्रामक स्थिति तब पैदा होती है, जब केंद्रीय कृषि मंत्रालय और खाद्य विभागों के आंकड़े परस्पर नहीं मिल पाते। इसका लाभ निजी चीनी मिलों के मालिक उठाते हैं, जो जान-बूझकर उत्पादन में कमी बताकर शुल्क मुक्तआयात का लाभ उठाते हैं।
अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में परारवारिक आय और राष्ट्रीय उपभोग के सही आंकड़े दीर्घकालीन नीति बनाने में सहायक होते हैं। लेकिन हमारे यहां आजादी के छह दशक बाद भी पारिवारिक आय के अधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों की जनगणना में व्यक्तिगत खर्च पर तो जोर दिया जाता है, लेकिन घरेलू वास्तविकताओं का आधार व्यक्ति नहीं परिवार है। इसी प्रकार प्रति व्यक्ति आय मापने के लिए सकल घरेलू उत्पाद में सकल जनगणना को भाग देकर निकालने की प्रणाली अपनाई जाती है। लेकिन फिर भी यह नहीं मालूम पड़ता कि लोग वास्तव में कितना कमाते और कितना खर्च करते हैं। औद्योगिक उत्पादन के जो भी आंकड़े प्रति माह उपलब्ध होते हैं, उनकी विश्वसनीयता भी संदेहास्पद ही रहती है, क्योंकि कंपनियों द्वारा आंकड़े पेश करना ऐच्छिक उत्तरदायित्व है। सेवा क्षेत्र में तो और भी बुरा हाल है।
देश के नए मुख्य सांख्यिकीय अधिकारी टीसी अनंत का सुझाव है कि राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग को वैधानिक दरजा दिया जाए, ताकि पंचवर्षीय सर्वेक्षणों को त्रिभाषी आधार दिया जा सके। जब तक मौजूदा सांख्यिकीय प्रणाली और विवरण के आंकड़े एकत्रित करने वाले तंत्र को अधिकार संपन्न नहीं बनाया जाता, जब तक गलत आंकड़े ही त्रुटिपूर्ण नीतियों का निर्धारण करते रहेंगे।


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