Saturday, February 26, 2011

तभी चंगा रहेगा भारत


अगर भारत को एक स्वस्थ देश बनाना है, तो बजट में इस क्षेत्र को लेकर सोच के स्तर पर ही बुनियादी बदलाव करने होंगे। केंद्र सरकार यह कह कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि स्वास्थ्य राज्य सरकारों का विषय है। उसे वादे के मुताबिक जीडीपी का तीन प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए और संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में अपना दर्जा ऊंचा करना चाहिए
जन स्वास्थ्य की बात करें तो भारत एक अजीब दुष्चक्र में फंसा हुआ देश है। देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर और यहां के लोगों की सेहत के बीच कोई तारतम्य नहीं बन पा रहा है। एक तरफ तो भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं और पिछले दशक में तो ऐसा मौका भी आया जब देश सालाना 10 फीसद की विकास दर हासिल कर पाया था। दूसरी तरफ, मानव विकास के मामले में भारत की तस्वीर बेहद निराशाजनक है। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक पर 119वें नम्बर पर होना किसी भी देश के लिए शर्म की बात है। हमारा देश इस सूचकांक पर इतना नीचे इसलिए भी है क्योंकि कई अन्य कारणों के साथ हमारे देश में लोगों की सेहत ठीक नहीं रहती। उनकी सेहत की देखभाल के सही बंदोबस्त नहीं हैं। साल दर साल यह स्थिति लगभग जस की तस बनी हुई है। भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र की स्थिति को दर्शाते हुए कंसल्टेंसी फर्म प्राइस वाटर हाउस कूपर्स ने कई तथ्यों को सामने रखा। भारत में प्रति एक लाख की आबादी पर अस्पतालों के सिर्फ 90 बिस्तर हैं। दुनिया में यह औसत 270 है। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि बीमार पड़ने वाले ज्यादातर हिंदुस्तानियों के लिए अस्पताल में भर्ती होने के अवसर ही नहीं हैं। यानी जरूरत होने पर भी लोग अस्पताल में भर्ती नहीं हो सकते। इसी तरह, भारत में एक लाख की आबादी पर 60 डॉक्टर और 130 नर्स हैं जबकि विश्व औसत क्रमश: 140 डॉक्टर और 280 नर्स का है। स्पष्ट है कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुनियादी ढांचा कमजोर है और इस बारे में चिंता जताने के बावजूद ऐसे ठोस कदम नहीं उठाए गए जिनसे हालात बदलें। देश के स्वास्थ्य क्षेत्र की बुनियादी समस्या यह है सरकार
इसे अपनी समस्या नहीं मानती। स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का लगभग एक फीसद है। तीस साल से इस बारे में बातचीत चल रही है कि इसे बढ़ाया जाना चाहिए, लेकिन हालात नहीं बदले हैं। 2004 में जब मनमोहन सिंह की पहली सरकार बनी थी तो साझा न्यूनतम कार्यक्रम में यह वादा किया गया था कि 2012 तक स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 2 से 3 फीसद कर दिया जाएगा। लेकिन यूपीए-1 ही नहीं यूपीए-2 में भी सरकार इस लक्ष्य की ओर बढ़ती नहीं दिखती। प्रधानमंत्री की सलाहकार समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां स्वास्थ्य पर खर्च में सरकार का हिस्सा काफी कम है। इसका नतीजा यह होता है कि लोगों को इलाज का ज्यादातर खर्च अपनी जेब से भरना पड़ता है। देश के स्तर पर देखें तो स्वास्थ्य पर खर्च का दो तिहाई से ज्यादा हिस्सा लोग अपनी जेब से भरते हैं। इन सबका कुल नतीजा यह है कि भारत का स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च 109 डॉलर है, जो दुनिया के न्यूनतम स्तर पर है। भारत में स्वास्थ्य एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जिसमें सरकार खास कुछ नहीं करती। अगर आप बीमार पड़ते हैं तो इस बात के ज्यादा आसार हैं कि आपका इलाज किसी निजी अस्पताल या क्लिनिक में हो। गांव और शहर दोनों ही जगहों पर ओपीडी ट्रीटमेंट या अस्पताल में भर्ती होने के लिए लोग निजी क्षेत्र की शरण में जाते हैं। भारत जैसे गरीब देश के लिए यह त्रासद स्थिति है। विश्व बैंक का अनुमान है कि स्वास्थ्य पर खर्च की वजह से लगभग 24 लाख लोग यानी देश की आबादी का लगभग 2 फीसद हिस्सा हर साल गरीबी रेखा से नीचे चला जाता है। इलाज की सुविधाएं निजी क्षेत्र में होने की वजह से बीमारी का इलाज काफी खर्चीला होता है और अक्सर लोग खेत या कोई और जायदाद तक इलाज के लिए बेच देते हैं। सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के नाम पर इस क्षेत्र को निजी बीमा कंपनियों के लिए खोल दिया। लेकिन निजी बीमा कंपनियां अपने कारोबारी स्वरूप के कारण उन लोगों को इलाज की सुविधा उपलब्ध कराने में अक्षम हैं जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना को भी सीमित सफलता ही मिली है। जनस्वास्थ्य में एनजीओ की न्यूनतम भूमिका है। डॉक्टर द्वारा इलाज की जगह स्वास्थ्य कार्यकर्ता या कम समय में डिग्री लेकर बने डॉक्टरों के हाथों में लोगों की सेहत को नहीं सौंपा जा सकता।
इसके अलावा स्वास्थ्य क्षेत्र की एक बड़ी समस्या प्राथमिकताओं के निर्धारण को लेकर भी हैं। भारत में मृत्य के दस सबसे प्रमुख कारणों की जो लिस्ट सरकार देती है, उसमें एचआईवी-एड्स नहीं है। लेकिन, केंद्र सरकार के स्वास्थ्य बजट का सबसे बड़ा हिस्सा एचआईवी-एड्स में चला जाता है। एड्स को लेकर विदेशी सहायता एजेंसियों के उत्साह के कई कारण हो सकते हैं लेकिन भारत जैसे गरीब देश में इस समय डायरिया, टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों पर नियंतण्रपाने की ज्यादा जरूरत है, जिसे हर साल लाखों लोग मरते हैं। स्वास्थ्य नीतियों और बजट आवंटन करते समय यह ध्यान रखना होगा कि हर साल लगभग 20 लाख लोग टीबी के मरीज बनते हैं। जाहिर है अगर भारत को एक स्वस्थ देश बनाना है, तो बजट में इस क्षेत्र को लेकर सोच के स्तर पर ही बुनियादी बदलाव करने होंगे। हालांकि यह कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य राज्य सरकारों को विषय है लेकिन इस मसले पर अपनी जिम्मेदारी से केंद्र सरकार बच नहीं सकती।
स्वस्थ भारत के लिए बजट की दिशा इस तरह हो सकती है
लोगों का स्वास्थ्य सरकार की प्रमुख जिम्मेदारी है। इसे बाजार के हवाले न छोड़ा जाए। इस बात को स्वीकार कर स्वास्थ्य के लिए बजट प्रावधान किया जाए। ज्यादातर पूंजीवादी देश भी स्वास्थ्य क्षेत्र को बाजार के हवाले नहीं करते। अमेरिका इसका अपवाद है, लेकिन वहां भी स्वास्थ्य नीति पर जबर्दस्त विवाद चल रहा है। स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ाया जाए और इसे जीडीपी के 2 से 3 फीसद पर ले जाने के वादे को पूरा किया जाए। इसके लिए स्वास्थ्य बजट को दो गुना से भी ज्यादा बढ़ाना होगा। अन्य लोगों का स्वास्थ्य लोक कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी है। इसे ध्यान में रखते हुए सार्वभौमिक मुफ्त इलाज की दिशा में कदम बढ़ाया जाए। इसके पहले चरण के रूप में सरकारी अस्पतालों में दवाएं खरीदने का बोझ नागरिकों पर न डाला जाए। खासकर बीपीएल परिवारों को दवा मुफ्त दी जाए।
स्वास्थ्य क्षेत्र की प्राथमिकता बदली जाए। एड्स पर अनावश्यक और अतिरिक्त फोकस की समीक्षा की जाए। स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बनी बीमारियों के नियंतण्रऔर इलाज पर सरकारी खर्च बढ़ाया जाए।
स्वास्थ्य ढांचे के लिए बजट में अलग से प्रावधान किया जाए और इस रकम का बड़ा हिस्सा जिला स्तर पर रेफरल अस्पताल बनाने पर खर्च किया जाए।
मेडिकल शिक्षा का विस्तार किया जाए ताकि आबादी और डॉक्टर के अनुपात को ठीक किया जा सके। इसके लिए बजट में प्रावधान किया जाए


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