पश्चिम बंगाल के चुनावों को ध्यान में रखते हुए ममता बनर्जी ने जो रेल बजट प्रस्तुत किया है उससे उन्हें आगे मुस्कराने का मौका मिल सकता है। माना जा रहा है कि तीन महीने बाद वह कोलकाता की राइटर्स बिल्डिंग यानी विधानसभा में शिफ्ट हो जाएंगी। यह स्वाभाविक ही था कि वह बंगाल पर ध्यान केंद्रित रखतीं और एक लोकलुभावन बजट प्रस्तुत करतीं। ममता ने रेल बजट में पश्चिम बंगाल को विशेष तवज्जो दिया है और तमाम परियोजनाओं की घोषणा में पूरी दरियादिली दिखाई है। यह अलग बात है कि ये योजनाएं शायद ही कभी अमल में आ पाएं। ममता की नीतियां बहुत कुछ वैसी हैं जैसी लालू ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में घोषित की थीं और जिन्हें आज तक पूरा नहीं किया जा सका। रेलवे को सामाजिक चेहरा देने के लिए कई योजनाओं की शुरुआत की गई है। इनमें रेल पटरियों के किनारे फटेहाल जिंदगी जी रहे लोगों के लिए सुखीगृह योजना के तहत 10 हजार आवास बनाए जाएंगे तो नक्सल प्रभावित इलाकों में रेलवे का विस्तार किया जाएगा। इसके अलावा विकलांगों, छात्रों, वरिष्ठ नागरिकों को कई तरह की रियायतें दी गई हैं। सामाजिक क्रांति लाने के लिए रेलवे कर्मियों के बच्चों के लिए वजीफा की शुरुआत होगी तो कुली, गैंगमैन आदि को भी तमाम सुविधाएं देने की योजना है। रेलवे अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत पांच पॉलीटेक्निक कॉलेज भी खोलेगा। रेल ढांचे विकास के लिए 10 हजार करोड़ रुपये इंफ्रास्ट्रक्चर बांड के जरिये जुटाए जाने हैं। 442 स्टेशनों को उन्नत बनाया जा रहा है, लेकिन एक भी विश्वस्तरीय स्टेशन न बना पाने के लिए ममता को विवशता जतानी पड़ी। ममता ने न तो किराए में बढ़ोतरी की और न ही माल भाड़े में। कोलकाता और कोरबा में मेट्रो कोच फैक्टरी लगाने के अलावा नंदीग्राम में रेल औद्योगिक पार्क स्थापित किया जाएगा। सिंगूर में नया कारखाना लगाने के लिए यह किसानों पर छोड़ दिया गया है कि वे इसके लिए अपनी जमीन बेचने के लिए तैयार होते हैं या नहीं? इस तरह ममता ने एक तीर से दो निशाने साधने का काम किया है। वह खुद को किसानों का हितैषी साबित कर रही हैं और अपने को विकास समर्थक भी बताना चाह रही हैं। कुल मिलाकर रेल बजट में तमाम लोकलुभावनी नीतियां हैं जो आम आदमी को ललचाने के लिए काफी हैं। रेल बजट से ममता को चुनावी लाभ तो मिल जाएगा, लेकिन रेलवे का क्या होगा, जो उनके ही शब्दों में मुश्किल हालात से गुजर रही है। ममता ने आधारभूत ढांचे के विकास के लिए सरकार से मदद की अपेक्षा की है, लेकिन सवाल यह है कि ऐसे राजनीतिक रेल बजट के सहारे हम किस तरह रेलवे प्रणाली को मजबूत कर पाएंगे? अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथी सबसे बड़ी रेलवे के सामने आज कई चुनौतियां हैं। रेलवे के आधुनिकीकरण, सुविधाओं में बढ़ोतरी, सुरक्षा आदि की दृष्टि से आने वाले समय में काफी धन की जरूरत होगी, लेकिन इस तरह की लोकलुभावन नीतियों के सहारे तो पैसा आने से रहा। ममता की योजनाएं तो राजधानी एक्सप्रेस की तरह हैं, लेकिन क्रियान्वयन पैसेंजर ट्रेनों की तरह। आखिर यह कैसे कहा जा सकता है कि हम विकसित देश बनने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और रेलवे वास्तव में हमारी लाइफ लाइन है|
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