Friday, February 25, 2011

लीबिया के झटके यहां क्यों?


कई सालों से हम सुनते आ रहे हैं कि हमारी जरूरत के कच्चे तेल का करीब 75-80 फीसद हमें आयात करना पड़ता है। और हमारा खुद का उत्पादन बढ़े या घटे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। सवाल है कि क्या हम टैक्स में छूट देकर बड़ी कंपनियों को तेजी से अपने ही देश में कच्चा तेल निकालने के काम में नहीं लगा सकते? लेकिन हो इसके ठीक उल्टा रहा है। किसी कंपनी ने कच्चे तेल की खोज कर भी ली तो उसे इस तरह की पेचीदगियों में उलझा दिया जाता है कि न तो उत्पादन हो पाता है और न ही निवेशक ज्यादा उत्साह से काम कर पाते हैं
जिस दिन वित्त मंत्री अपना बजट भाषण पढ़ रहे होंगे, संभव है उस दिन कच्चा तेल 120 डॉलर प्रति बैरल के स्तर को पार कर जाए। फिलहाल जिस वेरायटी का कच्चा तेल हम इंपोर्ट करते हैं उसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 115 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई है। किरीट पारीख कमेटी के सुझावों को मानें तो कच्चा तेल 110 डॉलर प्रति बैरल का मतलब हुआ, पेट्रोल की कीमत 63.5 रु पए प्रति लीटर, डीजल 51.45 रु पए प्रति लीटर, केरोसिन तेल 41.18 रु पए प्रति लीटर और एलपीजी 655 रु पए प्रति सिलेंडर । फिलहाल इन पदार्थों की कीमतें इससे काफी कम हैं। केरोसिन और एलपीजी के मामले में तो कीमतें 100 से 300 परसेंट तक कम हैं। कच्चे तेल की कीमत पर तो हमारा कोई अख्तियार नहीं है लेकिन क्या बजट के बाद पेट्रोल और डीजल महंगा होगा। यह मामला वाकई वित्त मंत्री के हाथ में है। पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स में कटौती होती है और सब्सिडी और बढ़ती है तो यह कीमतें कम भी हो सकती हैं लेकिन टैक्स जस का तस रहे और वित्तीय घाटा कम करने की जुगत में लगे वित्तमंत्री अगर सब्सिडी कम करने पर जोर देते हैं तो डीजल और पेट्रोल और महंगा होगा। और तब तो सब कुछ भगवान भरोसे ही रहेगा। या यूं कहें कि सब कुछ या तो लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी या मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति होस्नी मुबारक या फिर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भरोसे होगा। ओबामा और गद्दाफी के रुख से तय होगा कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल और कितना चढ़ता है और हम मूक दशर्क की तरह सब कुछ देखते रहेंगे। यहां वित्त मंत्री के साथ-साथ दूसरे मंत्रियों से भी मेरे दो सवाल हैं। पिछले कई सालों से हम यह सुनते आ रहे हैं कि हमारी जरूरत के कच्चे तेल का करीब 75-80 फीसद हमें आयात करना पड़ता है। और हमारा खुद का उत्पादन बढ़े या घटे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। रिलायंस ने बड़ी खोज की, केयर्न को बड़ा भंडार मिला, ओएनजीसी कई सालों से देसी तेल उत्पादन को बढ़ाने में लगा हुआ है लेकिन विदेशी बाजारों पर हमारी निर्भरता जस की तस बनी हुई है। क्या हम टैक्स में छूट देकर बड़ी कंपनियों को तेजी से अपने ही देश में कच्चा तेल निकालने के काम में नहीं लगा सकते हैं? लेकिन हो इसके ठीक उल्टा रहा है। किसी कंपनी ने कच्चे तेल की खोज कर भी ली तो उसे इस तरह की पेचीदगियों में उलझा दिया जाता है कि न तो उत्पादन हो पाता है और न ही निवेशक ज्यादा उत्साह से काम कर पाते हैं। अगर इसे जल्दी से ठीक नहीं किया गया तो कर्नल गद्दाफी जैसे लोग यह तय करते रहेंगे कि हमारे यहां कितनी महंगाई होगी, कितना वित्तीय घाटा होगा। सुपर पावर बनने का ख्वाब देख रहे देश के लिए यह अच्छी खबर नहीं है। मेरा दूसरा सवाल पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत तय करने के तरीके पर है। फर्ज कीजिए की हम जो कच्चा तेल मंगाते हैं उसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 110 डॉलर प्रति बैरल है। एक बैरल यानी 160 लीटर। अगर मान लिया जाए कि एक डॉलर 45 रुपए के बराबर है तो अभी हमें 160 लीटर कच्चे तेल के लिए 4950 रु पए देने होंगे। यानी एक लीटर कच्चे तेल की कीमत हुई करीब 31 रु पए। इस पर रिफाइन करने की कीमत फर्ज कीजिए कि 4 रु पए है। तो एक लीटर पेट्रोल की कीमत हुई 35 रुपए। लेकिन दिल्ली में इसकी कीमत करीब 58 रु पया है। यह कीमत जब तय हुई थी, उस समय कच्चे तेल की कीमत करीब 89 डॉलर प्रति बैरल थी। अब सवाल यह उठता है कि 30 रु पए का सामान पेट्रोल पंप पर 60 रुपए का क्यों बिक रहा है। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि इन उत्पादों पर टैक्स कितना लगता है। भारत में पेट्रोल पर औसतन 51 परसेंट टैक्स लगता है जबकि हमारे पड़ोसी श्रीलंका में 37 परसेंट और पाकिस्तान में इस पर 30 परसेंट टैक्स लगता है। डीजल पर जहां अपने देश में जहां औसतन 30 परसेंट टैक्स लगता है वहीं पाकिस्तान में इसकी दर 15 परसेंट और श्रीलंका में 20 परसेंट है। यहां मैं जिस टैक्स की बात कर रहा हूं वह कस्टम, एक्साइज, सेल्स टैक्स और सारे तरह के सेस का समिशण्रहै। 2009-10 में केंद्र सरकार को पेट्रोलियम सेक्टर से करीब 90,000 करोड़ रु पए की आमदनी हुई। इतने भारी भरकम आंकड़े देने का मतलब यह नहीं है कि टैक्स को कम कीजिए। टैक्स से ही तो सरकारी आमदनी बढ़ेगी और जो विकास के कामों के साथ-साथ सामाजिक कल्याण के कामों पर खर्च होगी। कहने का मतलब यह है कि इतना ज्यादा टैक्स वसूलने के बाद सरकार यह स्वांग क्यों भर रही है कि पेट्रोलिय पदार्थों पर भारी भरकम सब्सिडी दी जाती है। हां, सब्सिडी दी जाती है। लेकिन उसका फायदा किसी को नहीं हो रहा है। डीजल पर सब्सिडी दी जाती है और उसके पीछे दलील यह है कि यह किसानों के काम आता है। लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। देश में डीजल के सबसे बड़े कंज्यूमर ट्रक चलाने वाले हैं। कुल डीजल की खपत का 37 परसेंट ट्रक चलाने के काम आता है। इंडस्ट्री 10 परसेंट डीजल का उपयोग करती है। पैसेंजर कार चलाने में 15 परसेंट डीजल की खपत होती है जबकि खेती के काम में महज 12 परसेंट डीजल लगता है । तो किसान के नाम पर र्मसडिीज चलाने वालों को सब्सिडी कितनी जायज है। इसी तरह केरोसिन पर भारी-भरकम सब्सिडी बरसों से चली आ रही है। 2002 में केरोसिन की कीमत 9 रु पए प्रति लीटर तय की गई। तब से इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। गौरतलब है कि केरोसिन की कीमत बांग्लादेश में करीब 30 रु पए और नेपाल में करीब 36 रु पए लीटर है। इस भारी सब्सिडी का लॉजिक भी यही है कि इसका फायदा गरीबों को मिलता है। लेकिन यह जग जाहिर है कि केरोसिन की कुल खपत के 40 परसेंट की कालाबाजारी होती है। एक अनुमान के मुताबिक कालाबाजारी का यह बाजार करीब 10,000 करोड़ रु पए का है। यहां भी यह सवाल है कि किसके लिए सब्सिडी। इन आंकड़ों के जरिए मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत तय करने के लिए हमने जिस तरीके को अपनाया है, उससे कालाबाजारी करने वालों के अलावा किसी का भी भला नहीं हो रहा है। अब जबकि कच्चा तेल फिर से उफान पर है, ऐसे में क्या इस पूरे मैकेनिज्म पर ठीक से विचार करने की जरूरत नहीं है। इसे तत्काल ठीक नहीं किया गया तो इंडिया ग्रोथ स्टोरी की हवा निकल सकती है। कम से कम भारत का शेयर बाजार तो यही संकेत कर रहा है।


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