Monday, February 28, 2011

मुश्किल चुनौती है वित्तमंत्री के सामने


आम बजट से अपेक्षाओं के संदर्भ में जागरण के सवालों के जवाब दे रहे हैं सीआइआइ के महानिदेशक
देश-दुनिया की नजरें वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पर टिकी हुई हैं। आम आदमी से लेकर उद्योग जगत तक आज पेश होने वाले बजट में अपनी परेशानियों का समाधान खोजने की कोशिश करेगा। देश के प्रमुख उद्योग संगठन सीआइआइ के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी ने दैनिक जागरण के जयप्रकाश रंजन के साथ बातचीत में कहा कि वित्त मंत्री को संभावनाओं और मुश्किल चुनौतियों के बीच सामंजस्य बिठाना होगा। पेश हैं इस बातचीत के अंश- जिस माहौल में बजट पेश होने जा रहा है, आप उसे किस तरह से देखते हैं? भारत में आम बजट एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना होती है। आम आदमी से लेकर खास वर्ग तक को इससे कुछ न कुछ उम्मीदें होती हैं। बजट पेश करने का यह समय काफी अद्भुत है। एक तरफ अर्थव्यवस्था बेहद तेजी से छलांग लगाने को तैयार है तो दूसरी तरफ लगता है कि इसके सामने दुश्वारियां भी कम नहीं है। चालू वित्त वर्ष के दौरान हमारी आर्थिक विकास दर नौ फीसदी के करीब रहने वाली है, लेकिन महंगाई, निर्यात बाजार में अस्थिरता, विदेशी अर्थव्यवस्थाओं की सुस्त रफ्तार, राजकोषीय घाटे का बढ़ता स्तर, घरेलू स्तर पर ब्याज दरों में वृद्धि जैसी तमाम चुनौतियां भी सामने हैं। ऐसे में वित्त मंत्री के सामने बेहतरीन संभावनाओं और मुश्किल चुनौतियों के बीच सामंजस्य बिठाना है। ब्याज दरों में वृद्धि की बात आपने उठाई, क्या हमारे सामने अर्थव्यवस्था के उच्च लागत वाली अर्थव्यवस्था में तब्दील होने का खतरा है? देखिए, इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता कि हमारे यहां उत्पादन लागत बढ़ रही है, लेकिन यह मुद्दा पूरी दुनिया के सामने है। तमाम जिंसों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। यही स्थिति औद्योगिक क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाले कच्चे मालों की है। कई वजहें हैं। हाल के दिनों में कई देशों में शुरू हुई राजनीतिक उठापटक से भी स्थिति बिगड़ी है। कच्चे तेल की कीमतों में लगातार वृद्धि की वजह से भारत में स्थिति थोड़ी चुनौतीपूर्ण हो गई है, लेकिन इसके लिए भारत सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। हां, सरकार इन परिस्थितियों में किस तरह से कदम उठाती है, यह तय करेगा कि हम ज्यादा लागत वाली अर्थव्यवस्था बन रहे हैं या नहीं। इसके लिए वित्त मंत्री को वित्तीय कदम और मौद्रिक कदम के बीच बेहतर तालमेल बिठाना होगा। महंगाई पर काबू पाने के लिए अभी और क्या विकल्प हो सकते हैं? महंगाई से सभी परेशान हैं। आम आदमी भी, उद्योग जगत भी और सरकार भी। हमारा मानना है कि खाद्य उत्पादों में महंगाई की स्थिति का गहन अध्ययन कर उपाय करने की जरूरत है। यह समस्या बहुत हद तक आपूर्ति पक्ष से जुड़ी हुई है, सरकार भी कई बार इस तथ्य को स्वीकार कर चुकी है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस प्रश्न का जवाब तलाशने के लिए हमने गंभीर प्रयास किए हैं। हमारा मानना है कि कृषि क्षेत्र को लेकर बहुत ही नई सोच के साथ हमें अपनी नीति बनाने की दरकार है। खाद्य उत्पादों की महंगाई दर मुख्य तौर पर फल-सब्जियों, दूध, मांस, अंडे जैसे उत्पादों की वजह से सामने आई है। एक अन्य बड़ी वजह बिचौलिये हैं। इस महंगाई का किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ है। कई अन्य चीजें हैं जो चल रही हैं मसलन, सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करना, उन्नत खाद व बीज समय पर और उचित दर पर मुहैया कराना आदि। खाद्य भंडारण व प्रबंधन को उद्योग जगत के लिए और आकर्षक बनाना होगा। इसके अलावा हमें सुधारों को भी आगे बढ़ाना होगा। प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि बजट लंबित सुधारों को आगे बढ़ाएगा। आपकी नजर में लंबित सुधार कौन-कौन से हैं? मेरे ख्याल से लंबित सुधारों को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सिर्फ केंद्र की नहीं है। सबसे पहले तो राज्यों के कानूनों में सुधार करने की जरूरत है। जहां तक इस बजट का सवाल है तो बेहतर होगा कि विदेशी निवेश सीमा बढ़ाने को लेकर जो वायदे किए गए थे उन पर अमल किया जाए। बीमा और रिटेल सेक्टर को खोलने का कदम माहौल सुधारने में काफी मददगार साबित होगा। एक महत्वपूर्ण सुधार उद्योग स्थापित करने में आने वाली दिक्कतों को दूर करने का हो सकता है। इसी तरह से कर भुगतान की मौजूदा प्रणाली को और अधिक सुधारने और सामान व सेवा कर (जीएसटी) को लेकर साफ संदेश देना भी प्रमुख सुधारवादी कदम होंगे। जीएसटी लागू करने में आ रही दिक्कतें क्या देश की अर्थव्यवस्था पर कोई असर डाल सकती हैं? निश्चित तौर पर। हमारा अध्ययन बताता है कि जीएसटी को लागू करना देश में व्यावसायिक गतिविधियों को काफी बढ़ा सकता है। मोटे तौर पर हमारा अनुमान है कि जीएसटी के लागू होने से अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 1.5 फीसदी तक और बढ़ सकती है। यह तो तय है कि इसे लागू किया जाना है, लेकिन इसको लेकर कुछ राज्यों के साथ सहमति नहीं बन पा रही है। सभी पक्षों को समझना होगा कि यह सभी के लिए फायदेमंद है। यह कारोबार करने के रास्ते में आने वाली तमाम दिक्कतों को अपने आप दूर कर सकता है। यह कई तरह की सहायक औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा देगा। ढांचागत क्षेत्र की दिक्कतें खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं, यहां किस तरह की उम्मीदें देखते हैं आप? ढांचागत क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या यह है कि जितनी बड़ी मात्रा में हमें राशि चाहिए उसे उपलब्ध कराना किसी के लिए आसान नहीं है। आगामी योजना में सड़क, बिजली सहित अन्य ढांचागत क्षेत्र में एक खरब डॉलर की राशि लगाने की जरूरत होगी। रास्ते तीन ही हैं। सरकार लगाए या निजी क्षेत्र लगाए या फिर दोनों मिल कर लगाएं। सरकारी-निजी साझेदारी (पीपीपी) में संभावनाएं दिखती हैं, लेकिन उसकी भी सीमाएं हैं। मुझे लगता है कि कारपोरेट बांड्स जारी करने पर सरकार अपनी नीति और साफ कर सकती है। हम इसके लिए सिर्फ बजट के भरोसे नहीं रह सकते। बजट में वित्त मंत्री ढांचागत निवेश पर और ज्यादा कर छूट देने का ऐलान कर सकते हैं। सामाजिक विकास के क्षेत्र के लिए क्या उपाय होने चाहिए? यह खुशी की बात है कि सरकार लगातार सामाजिक विकास के लिए आवंटित राशि में वृद्धि कर रही है। लेकिन सड़क व बिजली की तरह यहां भी काफी बड़ी मात्रा में निवेश की आवश्यकता है। मेरा मानना है कि जिस तरह से अन्य ढांचागत क्षेत्र के लिए सरकार और निजी क्षेत्र की साझेदारी शुरू की गई है उसी तरह से सामाजिक विकास के क्षेत्र में भी निजी क्षेत्र को आमंत्रित किया जाना चाहिए। वित्तमंत्री इस बार बजट में प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी व निजी क्षेत्र के सहयोग से बड़ा अभियान शुरू करने का ऐलान करें तो यह बहुत ही स्वागत योग्य कदम हो|

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