हमारे राजनीतिक दल और राजनेता जैसे हैं, क्या उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे हमारे राष्ट्रीय लक्ष्य तय कर सकेंगे? बिलकुल नहीं। ऐसी स्थिति में यह काम देशभक्त बुद्धिजीवियों, अर्थशास्त्रियों, राजनीतिविज्ञानियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का है कि वे इसके पक्ष में माहौल बनाए
देश की अर्थव्यवस्था की समीक्षा या मूल्यांकन करने का तरीका क्या हो? एक तरीका वह है जिसका इस्तेमाल सरकार करती है। आश्र्चय यह है कि यही तरीका हमारे अर्थशास्त्रियों को भी पसंद है। यह तरीका है अर्थव्यवस्था की विकास दर (वृद्धि दर) मापने का। अगर वृद्धि दर संतोषजनक है, तो माना जाता है कि आर्थिक प्रगति ठीक हो रही है। इसी का दूसरा पहलू यह निर्धारित करने का है कि सकल राष्ट्रीय उत्पादन कितना बढ़ा, राष्ट्रीय आय कितनी बढ़ी, प्रति व्यक्ति वार्षिक आय में कितनी वृद्धि हुई, गरीबी रेखा से नीचे का जीवन जीनेवाली आबादी में कितनी कमी आई आदि-आदि। ये वही पैमाने हैं जिनसे पश्चिम के उन्नत देश अपने विकास का मूल्यांकन करते हैं। उनके यहां एक पैमाना और है जिसकी ओर हमारे यहां ध्यान नहीं दिया जाता। यह पैमाना है, बेरोजगारी की दर। अपनी तमाम प्रगति के बावजूद पश्चिम के देश पूर्ण रोजगार की अवस्था हासिल नहीं कर पाए हैं। वहां बेरोजगारी की स्थायी दर सात-आठ प्रतिशत रहती है। इतनी छोटी-सी आबादी को बेकारी भत्ता तथा समाज कल्याण के अन्य माध्यमों से संतुष्ट रखना मुश्किल नहीं है लेकिन जब बेरोजगारी की दर दस प्रतिशत से ऊपर चली जाती है, तो हाहाकार मचने लगता है। चालू नजरिए से, जैसे पश्चिमी देशों में बेरोजगारी की दर से अर्थव्यवस्था की प्रगति आंकी जाती है, वैसे ही भारत में मुद्रास्फीति की दर को निर्णायक माना जा सकता है। साठ वर्षो तक इस पैमाने का इस्तेमाल करने के नतीजे से हम अवगत हैं। पहले कहा जाता था कि हम वृद्धि दर से चल रहे हैं। यानी दो-तीन प्रतिशत की विकास दर। अब दावा यह है कि सात से नौ प्रतिशत की वृद्धि दर चल रही है। इस तरह के आंकड़े बता कर आर्थिक विकास में उछाल का ढोल पीटने का चलन-सा हो गया है। लेकिन व्यवहार में कोई ऐसा परिवर्तन दिखाई नहीं देता जिससे लोग महसूस कर सकें कि उनका जीवन बेहतर हो रहा है और उनके बेटे-बेटियों का भविष्य सुरक्षित है बल्कि ज्यादातर लोग बेहद कष्ट में जीवन बिता रहे हैं और अत्यंत असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें विकास को मापने के पैमाने बदलने होंगे ताकि यह तय हो सके कि सचमुच विकास हो रहा है या नहीं। इस संदर्भ में निवेदन यह है कि हमें कुछ राष्ट्रीय लक्ष्य निश्चित करने चाहिए। जैसे, इतने वर्षो में हम गरीबी दूर कर देंगे, इतने वर्षो में हमारे सभी बच्चे-बच्चियाँ अच्छे स्कूलों में पढ़ सकेंगे, इतने वर्षो में सबको कम से कम इतनी बिजली मिलने लगेगी, इतने वर्षो में कोई बेरोजगार नहीं रहेगा और जिसके पास काम नहीं होगा, उसे बेकारी भत्ता दिया जाएगा आदि-आदि। चुनाव घोषणा पत्र भी इसी आधार पर बनाए जाने चाहिए। किसी भी सरकार के काम-काज का मूल्यांकन इस बात से होगा कि उसने इन राष्ट्रीय लक्ष्यों को किस हद तक पूरा किया। यह मूल्यांकन पांच वर्ष पूरे होने पर नहीं, बल्कि हर साल होना चाहिए। कायदे से, स्वाधीनता पाने के तुरंत बाद ये राष्ट्रीय लक्ष्य तय कर लिए जाने चाहिए थे। इससे यह तो पता लगता ही कि एक राष्ट्र के बतौर हमारी आकांक्षाएं क्या हैं, यह हिसाब लगाना भी संभव होता कि हमारे पास कुल कितने संसाधन हैं तथा उनका उपयोग किस तरह किया जाए कि इन आकांक्षाओं को निर्धारित अवधि में बल्कि उससे पहले ही पूरा किया जा सके। जब पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जा रही थीं, तब तो यह काम किया ही जाना चाहिए था। पंचवर्षीय योजना पांच वर्ष के लिए होती है। योजना के लक्ष्य भी पांच वर्ष के लिए होते हैं लेकिन जीवन पांच वर्ष का नहीं होता। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के ऊपर एक महायोजना होनी चाहिए थी जिसके अंग के रूप में पांच वर्षो वाली योजनाएं बनाई जातीं। यह महायोजना पचीस, तीस, चालीस या पचास साल की होनी चाहिए थी। ऐसा होता, तभी यह दावा करना शोभा देता कि हम योजनाबद्ध विकास कर रहे हैं। अभी तो ऐसा लगता है कि यह गरीबी, यह ऐयाशी, यह विषमता, यह प्रशासनिक अक्षमता, यह लूट-सब कुछ योजनाबद्ध है। भारत का शासक वर्ग ऐसा ही समाज चाहता था, जिसमें मुट्ठी भर लोग आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त जीवन जिएं और बाकी लोगों का जीवन अस्तित्व के लिए संघर्ष बन जाए। आज जब योजनाबद्ध विकास को लगभग त्याग दिया गया है और सब कुछ को बाजार की शक्तियों के हाथ में छोड़ा जा रहा है, तब तो राष्ट्रीय लक्ष्य तय करना और भी जरूरी हो गया है। प्राइवेट सेक्टर देश के स्तर पर नहीं सोचता, वह चालू वर्ष के बैलेंस शीट और चालू तिमाही में मुनाफे की मात्रा के बारे में सोचता है। इसलिए उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह किन्हीं राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल कर सकता है। यह काम तो सरकार का है जो जनता द्वारा चुनी जाती है। ऐसा नहीं है कि प्राइवेट सेक्टर की राष्ट्र के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है या नहीं हो सकती। यह काम भी सरकार का है कि वह प्राइवेट सेक्टर के लिए जिम्मेदारियां तय करें और जो इकाई अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा करे, उसे बंद कर दिया जाए। हमारे राजनीतिक दल और राजनेता जैसे हैं, क्या उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे हमारे राष्ट्रीय लक्ष्य तय कर सकेंगे? बिलकुल नहीं। ऐसी स्थिति में यह काम देशभक्त बुद्धिजीवियों, अर्थशास्त्रियों, राजनीतिविज्ञानियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का है कि वे इसके पक्ष में माहौल बनाएं। आश्र्चय की बात है कि अपने को वामपंथी मानने वाली पार्टयिां भी इस तरह नहीं सोचतीं। वे जहां सत्ता में हैं, कम से कम उन राज्यों के लिए रोड मैप तैयार कर सकती हैं। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान की गाड़ी बिना किसी रोड मैप के चल रही है। अगर उससे पूछा जाए कि पार्टनर! तुम्हें जाना कहाँ है, तो वह खी-खी करके हँस देगी।
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