कुछ वर्षो पहले की बात है। मेक्सिको के राष्ट्रपति अमेरिका की यात्रा पर पहुंचे जहां पत्रकारों ने उनसे पूछा कि उनके देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल है? राष्ट्रपति ने तुर्शी से जवाब दिया कि अर्थव्यवस्था का हाल तो अच्छा है लेकिन लोगों का नहीं। भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में भी यह बात काफी हद तक सच है। यह और बात है कि भारत में सरकार के आला नुमाइंदे इसे आसानी से स्वीकार नहीं करते। खासकर जबसे जीडीपी की वृद्धि दर अर्थव्यवस्था के अच्छे या बुरे प्रदर्शन का सबसे बड़ा पैमाना बन गई है और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का जीडीपी प्रेम आब्शेसन की हद तक पहुंच गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि चालू वित्तीय वर्ष में 8.6 प्रतिशत की वृद्धि दर के बाद हर ओर अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदशर्न का कोरस जारी है। असल में, इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था एक ऐसी पहेली बनी हुई है जिसे समझना अच्छे-अच्छों के लिए टेढ़ी खीर बना हुआ है। अगर आप आम आदमी हैं और पिछले दो सालों से लगातार भारी महंगाई की मार से कराह रहे हैं तो यह संभव है कि आप यूपीए सरकार के अर्थव्यवस्था प्रबंधन को कोस रहे हों। लेकिन अगर आप अर्थशास्त्री या अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में हैं तो आपके लिए यह अर्थव्यवस्था का स्वर्ण काल चल रहा है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 8.6 प्रतिशत रहने की उम्मीद है और अगले वित्तीय वर्ष में इसके 9 प्रतिशत तक पहुंच जाने की सम्भावना है। खुद प्रधानमंत्री की मानें तो कुछ बाहरी चुनौतियों और समस्याओं के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत अच्छा प्रदशर्न कर रही है। हाल में न्यूज चैनलों के संपादकों से बातचीत के दौरान उन्होंने मुद्रास्फीति की ऊँची दर के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदशर्न का बहुत गर्व के साथ उल्लेख किया। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री से लेकर सरकार के आर्थिक मैनेजरों तक सभी अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रदशर्न से न सिर्फ संतुष्ट हैं बल्कि यह मानते हैं कि मुद्रास्फीति की समस्या को छोड़ दिया जाए तो 2007-08 की वैश्विक मंदी से लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था अब पटरी पर आ चुकी है। विश्व बैंक भी इस आकलन से सहमत है। सच तो यह है कि जीडीपी की 8.6 फीसद की वृद्धि दर से आर्थिक मैनेजरों का आत्मविश्वास इस हद तक बढ़ा हुआ है कि वे 10 फीसद की वृद्धि दर के सपने देखने लगे हैं। एक बार फिर से चीन से प्रतियोगिता और दोहरे अंकों की आर्थिक वृद्धि दर की र्चचाएं शुरू हो गई हैं। यही नहीं, वे वित्त मंत्री से अगले बजट में उन स्टिमुलस उपायों को वापस लेने की सलाह दे रहे हैं जो वैश्विक मंदी से लड़ने के लिए दो-ढाई साल पहले घोषित किए गए थे। साफ है कि सरकार में अर्थव्यवस्था को लेकर एक निश्चिन्तता का माहौल है। वित्त मंत्री की निश्चिन्तता की वजह यह भी है कि चालू वित्तीय वर्ष में ‘राजकोषीय घाटा बजट अनुमान से कम रहने का अनुमान है। राजस्व वसूली में उल्लेखनीय वृद्धि, थ्री-जी स्पेक्ट्रम की बिक्री से भारी आय और जीडीपी में उछाल के कारण उम्मीद है कि इस साल राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5.5 प्रतिशत के बजट अनुमान के बजाय 5.2 प्रतिशत रहेगा। यही नहीं, निर्यात में भी उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। चालू खाते के घाटे में वृद्धि के बावजूद विदेशी मुद्रा के पर्याप्त भंडार के कारण कोई घबराहट नहीं है। यहां तक कि मुद्रास्फीति को लेकर चिंताएं जाहिर करने के बावजूद आर्थिक मैनेजरों को भरोसा है कि मुद्रास्फीति की दर मार्च तक न सिर्फ 7 प्रतिशत के नीचे आ जाएगी बल्कि रबी की अच्छी फसल के बाद खाद्य मुद्रास्फीति भी काबू में आ जाएगी। लेकिन यह अर्थव्यवस्था को लेकर एक तरह की खुशफहमी है। कई बार इस तरह की खुशफहमी का माहौल जानबूझकर बनाया जाता है। कारण कि इस फीलगुड से अर्थव्यवस्था में निवेशकों का भरोसा बढ़ता है, वे उत्साहित होते हैं, निवेश में वृद्धि होती है और इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। यही नहीं, इस नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदशर्न का एक और सूचकांक-शेयर बाजार तो पूरी तरह से फीलगुड और भावनाओं पर ही चलता है। असल में, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह फीलगुड और सेंटीमेंट्स पर ज्यादा चलती है क्योंकि उसमें सट्टेबाजी की भूमिका बहुत बढ़ गई है। लेकिन अर्थव्यवस्था को लेकर यह खुशफहमी और आत्मविश्वास जो अति आत्मविश्वास में बदलता जा रहा है, न सिर्फ आम आदमी पर बहुत भारी पड़ रहा है बल्कि अर्थव्यवस्था के लिए भी घातक साबित हो सकता है। दोहराने की जरूरत नहीं है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई अभी भी बेकाबू है और लगता नहीं है कि यूपीए सरकार इसे काबू करने की कोशिश भी कर रही है। उसने यह जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप दिया है। उसकी दिलचस्पी सिर्फ मुद्रास्फीति के आंकड़ों में है और वह आंकड़ों में महंगाई कम करने की कसरत जरूर कर रही है लेकिन आंकड़ों में कम होती महंगाई, ऊंचे बेस प्रभाव के कारण है और वास्तव में, महंगाई कम नहीं हो रही है। उल्टे, विश्व खाद्य संगठन से लेकर विश्व बैंक तक खाद्य वस्तुओं की कीमतों में और बढ़ोतरी की चेतावनी दे रहे हैं। इसलिए महंगाई को लेकर सरकार का मौजूदा निश्चिन्तता का रवैया आम आदमी के साथ-साथ राजनीतिक और आर्थिक रूप से उसे भी भारी पड़ सकता है। दूसरे, सरकार अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन के अति-आत्मविश्वास में स्टिमुलस पैकेज को वापस लेने और आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया को तेज करने की तैयारी कर रही है। उदाहरण के लिए, ऐसी र्चचा है कि वित्त मंत्री बजट में उत्पाद करों में दो फीसद की छूट को वापस ले सकते हैं। साथ ही, डीजल की कीमतों को भी नियंतण्रमुक्त किए जाने के कयास लगाये जा रहे हैं। लेकिन ये दोनों फैसले महंगाई की आग में घी डालने की तरह साबित हो सकते हैं। इसके अलावा, वित्त मंत्री ने इसी अति- आत्मविश्वास में अगर राजकोषीय घाटे को एक सीमा से ज्यादा कम करने के लिए स्टिमुलस को पूरी तरह से वापस लेने और योजना बजट में कटौती पर जोर दिया तो इसका नकारात्मक असर न सिर्फ विभिन्न विकास और कल्याणकारी योजनाओं पर पड़ेगा बल्कि वृद्धि दर भी प्रभावित हो सकती है। उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा उच्च वृद्धि दर और बेहतर प्रदशर्न की एक बड़ी वजह यह स्टिमुलस और सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर बढ़ा व्यय और उसके कारण बढ़नेवाला राजकोषीय घाटा भी है। यह इसलिए भी जरूरी है कि अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन का लाभ आम आदमी को नहीं मिल पा रहा है। इसके अलावा, वित्त मंत्री को यह नहीं भूलना चाहिए कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ी अनिश्चिन्तताएं अब भी खत्म नहीं हुई हैं। ऐसे हालात में, सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना घटी। कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था के लिहाज से यह समय खुशफहमी और निश्चिन्तता का नहीं बल्कि सावधानी और सतर्कता का है।
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