आजकल सरकार ने कई योजनाओं में पब्लिक- प्राइवेट भागीदारी के माध्यम से काम करना शुरू किया है। खासतौर से 1995 के बाद से सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में दिन ब दिन प्राइवेट क्षेत्र की भागीदारी सरकार बढ़ाती चली जा रही है। मुझे लगता है कि इसका फायदा आम जनता को मिलने के बजाय उन कं पनियों को ज्यादा होता है, जो इन योजनाओं से जुड़ती हैं
हमारे देश में सामाजिक क्षेत्र में सरकार द्वारा काफी कम निवेश किया जाता रहा है। आर्थिक उदारीकरण के बाद तो दिन ब दिन कटौती जारी है। देश में शिक्षा और स्वास्थ्य का बहुत ही अभाव है। यह हाल तब है जबकि ये सुविधाएं हमारे सामाजिक क्षेत्र की प्रमुख अंग हैं। इनके अलावा पीने का साफ पानी, शौचालय की सुविधा जैसे क्षेत्र भी सोशल सेक्टर के अंतर्गत ही आते हैं। हमारे देश में इन सभी क्षेत्रों में सहूलियतों की काफी कमी है। यह सरकार की कमजोरी है कि वह इनकी ओर समुचित ध्यान नहीं देती। ये ऐसी सुविधाएं हैं, जिन्हें बाजार से खरीदना आम आदमी के लिए संभव नहीं है; वे काफी महंगी हैं। यह जिम्मेवारी हमारी सरकार की बनती है कि वह इन सुविधाओं को जन-जन तक पहुंच वाले दाम पर ही पहुंचाए। लेकिन देश में जो भी सरकारें आती हैं, वह इस ओर इतना ध्यान नहीं देती जितनी देनी चाहिए। सामाजिक क्षेत्र में सरकार द्वारा जारी बजट भी जरूरतों के लिहाज से काफी कम होता है। उदाहरण के लिए शिक्षा के क्षेत्र में पूरी दुनिया में सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया जाता है लेकिन हमारे यहां बमुश्किल 4 प्रतिशत हिस्सा ही इस मद में खर्च किया जाता है और उसमें भी मिड-डे मील जैसी योजना को शिक्षा बजट में ही शामिल कर लिया जाता है जबकि यह कुपोषण से लड़ने के लिए है और स्वास्थ्य से जुड़ी हुई एक बहुत अच्छी योजना है। इसके बजट को स्वास्थ्य मद में शामिल करना अच्छा होता। इसका फायदा यह होता कि शिक्षा बजट में कोई घटाव नहीं होता। दूसरी अहम बात यह है कि सामाजिक क्षेत्र सिर्फ केंद्रीय बजट पर ही निर्भर नहीं करता है। इसमें केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकार और स्थानीय निकायों की भागीदारी होती है लेकिन यहां राज्य सरकार की खर्च करने की क्षमता कम होती है, किसी-किसी मामले में उसकी उदासीनता भी होती है। इन वजहों से वह पूरी तरह से केंद्र से जारी बजट पर निर्भर हो जाता है। आवंटन मिलता है तो काम किया जाता है वरना वह योजना स्थगित रहती है। लिहाजा, कोष के अभाव का इसका असर इन योजनाओं पर पड़ता है। वह लटक जाती हैं। उदाहरण के लिए शिक्षा क्षेत्र में 80 प्रतिशत तक बजट राज्यों के जिम्मे है पर अगर राज्यों को अपने बजट में कटौती करनी पड़े तो केंद्र द्वारा अधिक बजट जारी करने पर भी अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हो पाता है। यहां तक कि दिल्ली जैसे राज्य में जो राष्ट्रीय राजधानी है। राज्य सरकार की अपनी वित्तीय सेहत भी काफी अच्छी है। यहां के स्थानीय निकायों के पास भी भरपूर बजट है। इसके बावजूद यहां के आधे से •यादा स्कूलों में न तो पीने के पानी की सुविधा है और न ही शौचालय की। गर्ल्स स्कूलों में शौचालय की पर्याप्त व्यवस्था करना और भी जरूरी है। लड़कियों के बीच में स्कूल छोड़ने का एक प्रमुख कारण इन सुविधाओं की कमी भी है। तो हमें स्कूल, कॉलेज और सामाजिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर अधिक सुविधाएं देने की जरूरत है। इसके लिए हमें अधिक धन लगाना चाहिए और उसका सही तरीके से नियोजन किया जा रहा है कि नहीं, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। भ्रष्टाचार हमारे देश में एक बड़ी समस्या है। सरकार की तरफ से तो पैसा जारी कर दिया जाता है पर सामाजिक क्षेत्र के लिए दिये गए धन में सबसे अधिक भ्रष्टाचार होता है। लिहाजा, सरकार को एक मैकेनिज्म विकसित करने की जरूरत है। जो सामाजिक कार्यों के लिए जारी किए गए अनुदान पर नजर रखे कि वह सही ढंग से खर्च किया जा रहा है कि नहीं। कहने का मतलब यह कि सामाजिक क्षेत्र में एक तो बजट की समस्या है, दूसरी उसमें भ्रष्टाचार की समस्या है और तीसरी अगर वह पैसा वहां पहुंच भी जाए तो उसे किस मद में किस तरीके से खर्च किया जा रहा है, इसकी निगरानी भी एक समस्या है। अत: हमें तीनों स्तरों पर नजर रखने की जरूरत है। पहले सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता काफी अच्छी मानी जाती है लेकिन आज यह सामान्य समझ बन गई है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। वहां शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं या रहने पर भी पढ़ाते नहीं। सरकार द्वारा पैसा देने के बावजूद सरकारी स्कूलों का फायदा लोगों को नहीं मिल रहा है, जबकि निजी स्कूल इसमें बाजी मार ले रहे हैं। अतएव बजट के अलावा सरकार को बजट के सही तरीके से क्रियान्वयन पर भी ध्यान देने की जरूरत है। यह बात सच है कि सरकार का यह पक्ष लचर है। इसके साथ यह भी एक मुद्दा है कि सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों पर शिक्षकेतर कायरे का भी दबाव रहता है, जिसका असर उन गरीब तबकों के छात्रों पर पड़ता है जिनके लिए और कोई ठौर नहीं होता। आजकल सरकार ने कई योजनाओं में पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी के माध्यम से काम करना शुरू किया है। खासतौर से 1995 के बाद से सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में दिन ब दिन प्राइवेट क्षेत्र की भागीदारी सरकार बढ़ाती चली जा रही है। मुझे लगता है कि इसका फायदा आम जनता को मिलने के बजाए उन कंपनियों को ज्यादा होता है, जो इन योजनाओं से जुड़ती हैं। नतीजा यह होता है कि जहां निवेश की बात आती है, वहां सरकार करती है और फायदे प्राइवेट सेक्टर की कंपनियां बटोर ले जाती हैं। जब जोखिम की बात आती है तो सरकार उठाती है और फायदा होने पर प्राइवेट कंपनी अपनी हिस्सेदारी ले जाती है। यह एक किस्म से जनता की पूंजी पर निजी कंपनियों द्वारा व्यवसाय किया जाना है। इसलिए कम से कम सामाजिक क्षेत्र के कार्यों की जिम्मेवारी पूरी तरह से पब्लिक सेक्टर पर ही होनी चाहिए। इसके अलावा सरकार पर दबाव बनाने के लिए जनता के मूवमेंट की भी जरु रत है। जैसे कि शिक्षा के अधिकार के लिए, स्वास्थ्य के अधिकार के लिए, पीने के साफ पानी के अधिकारों को लिए, शौचालय की पर्याप्त सुविधाओं के अधिकार के लिए जनता को आंदोलन कर सरकार पर दबाव बनाना होगा, तभी इस ओर गम्भीरतापूर्वक ध्यान दिया जाएगा। यह देखा गया है कि जब-जब जनता आंदोलन के लिए उठ खड़ी हुई है। सरकार ने उनकी मांगों के हिसाब से बदलाव किया है। इसके अलावा बजट को किस प्रकार खर्च किया जाए यह भी काफी महत्वपूर्ण है। स्वास्थ्य के मद में जारी बजट को स्वास्थ्य केंद्र के लिए ही नहीं बल्कि पीने के पानी और शौचालय सुविधाओं के मद में भी बहुत ज्यादा खर्च करना चाहिए। अगर हम अस्पताल के साथ-साथ कुपोषण से लड़ने के लिए भी ज्यादा खर्च करें तभी लोगों का स्वास्थ्य बेहतर होगा। तो बजट जारी करना काफी नहीं है बल्कि उसका सही जगह खर्च होना भी जरूरी है। ये सुविधाएं बाजार में भी उपलब्ध हैं पर इतनी महंगी है कि इस देश की दो-तिहाई से •यादा आबादी के बूते के बाहर की चीज है। इस समय मुझे लगता है कि यह सरकार राजनीतिक रूप से काफी परेशानी में है और तरह-तरह के घपलों-घोटालों में फंसी हुई है। तो सरकार के लिए आम जनता में अपनी छवि सुधारने के लिए अच्छा मौका है कि वह बजट में सामाजिक क्षेत्र पर अधिक ध्यान देगी। मुझे लगता है कि सरकार जनता की वाहवाही लूटने के लिए बजट में जरूर कुछ नई योजनाओं की घोषणा करेगी।
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