Friday, February 11, 2011

आम जनता को कैसे मिले राहत


पिछले लगभग एक वर्ष के दौरान भारतीय जन-जीवन को प्रतिकूल प्रभावित करने वाले किसी एक मुद्दे को चुनना हो तो वह निश्चय ही महंगाई है। देश के महानगरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों के अधिसंख्य लोग कमरतोड़ महंगाई से त्रस्त हैं। मौजूदा सरकार के बारे में कहा जाता रहा है कि इसमें विद्वान अर्थशास्त्रियों की मौजूदगी के कारण इसका आर्थिक नीति पक्ष बहुत मजबूत है। पर हकीकत में महंगाई संबंधी आश्वासन बार-बार झूठे सिद्ध हुए हैं और सरकार की विश्वसनीयता संकट में पड़ती रही है। वर्ष 2009 तक तो उतार-चढ़ाव देखे गए पर वर्ष 2010 के आंरभ से अब तक महंगाई की निरंतरता बनी हुई है और लोगों को कोई राहत नहीं मिल रही है। महंगाई में सबसे अधिक उछाल जरूरी खाद्य उत्पादों का रहा है जो बड़ी चिंता है। मुख्य अनाज, दलहनति लहन, सब्जी-फल और दूध के बढ़ते दामों ने आम लोगों की थाली व जेब दोनों हल्की कर दी हैं। जहां सब्जी, फल, दाल व दूध के बढ़ते दामों से निम्न मध्यवर्ग में कुपोषण की समस्या और विकट हो रही है, वहीं सबसे गरीब तबके में भुखमरी की समस्या बढ़ रही है। भारतीय भोजन का जरूरी हिस्सा रहे लहसुन, प्याज आम आदमी की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं। समझ नहीं आ रहा है कि परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी हों तो कैसे? हालांकि सरकारी आंकड़े भी महंगाई की बिगड़ती स्थिति कबूल रहे हैं पर आकलन संबंधी जटिलताओं के कारण महंगाई की पूरी सच्चाई आंकड़ों में प्रकट नहीं होती है। उदाहरण के लिए औद्योगिक व कृषि मजदूरों के लिए जो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक तैयार किए जाते हैं उनमें आवास शामिल किए जाने के कारण महंगाई की जितनी मार मजदूर झेलते हैं वह इस सरकारी आंकड़े में दर्ज नहीं हो पाती है। हाल में शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों का निजीकरण जिस तेजी से बढ़ा है, उस कारण आम लोगों के लिए आर्थिक बोझ व तनाव पहले ही बढ़ गए। उस पर पेट भरने की सबसे बुनियादी जरूरत पूरी न होने से असंतोष फैलना स्वाभाविक है। यह संभावना अमीर-गरीब के बीच बढ़ते अंतर के दौर में और बढ़ जाती है। देश का एक तबका रेहड़ी-पटरी पर प्याज खरीदने के लिए तरस रहा हो और दूसरा आलीशान मॉल्स में महंगी उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद में लगा हो तो असंतोष बढ़ेगा ही बढ़ेगा। आज सरकारी नीतियां आम लोगों के सरोकारों से दूर चंद निहित स्वार्थो की गिरफ्त में नजर आ रही है। महंगाई से जूझते एक ईमानदार सरकारी कर्मचारी का कहना था कि वह खाद्य पदार्थो की महंगाई सहने को तैयार हैं बशत्रे बढ़ती खाद्य कीमतों का लाभ गरीब किसानों को मिले। पर त्रासदी यह है कि बढ़ती खाद्य कीमतों से जहां उपभोक्ता पिस रहा है वहीं किसान भी गंभीर संकट में फंसता जा रहा है। सवाल है कि जब आम उपभोक्ता व किसान दोनों त्रस्त हैं तो फिर मलाई किसे मिल रही है? जब विश्व व्यापार संगठन के समझौतों के दबाव तले कृषि बाजार खोला गया तो तरह-तरह के सस्ते आयात के कारण किसान संकटग्रस्त होने लगे। किसानों के संकट का विरोध करने जन-शक्ति खड़ी हुई तो कहा गया कि सस्ती खाद्य उपलब्धि भी जरूरी है। पर बाद में किसानों की बदहाली के साथ कीमतें भी बढ़ीं। इतना ही नहीं सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित विभिन्न बड़ी कंपनियों को अनाज के व्यापार में बड़ी भूमिका दी जिससे खाद्य सुरक्षा मजबूत करने की क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ा व जमाखोरी व मुनाफाखोरी बढ़ी। महंगाई की आड़ में अब बहुराष्ट्रीय कंपनी को खुदरा क्षेत्र में आगे बढ़ाने और छूट देने के बहाने खोजे जा रहे हैं। कुतर्क है कि अपनी मार्केटिंग कुशलता के आधार पर यह कंपनियां महंगाई कम करने में सहायक होंगी जबकि इनमें से अनेक के दुनिया भर के कारोबार का अनुभव है कि इनसे किसान व उपभोक्ता, दोनों को गंभीर शिकायतें रही हैं। हाल के वर्षो में तरह-तरह की आकर्षक शब्दावली का भ्रमजाल पैदा कर नव-साम्राज्यवादी तत्वों ने सरकारी नीतियों को गिरफ्त में लिया है जिससे समस्या का सही विश्लेषण कर उचित निष्कर्ष पाने की सरकार की क्षमता कुप्रभावित हुई है। यही कारण है कि खाद्य उत्पादों की महंगाई के समाधान के लिए ऐसे समाधान सुझाए जा रहे हैं जिनसे समस्या और बढ़ेगी। जैसे खुदरा क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनी का बढ़ता प्रवेश या मौजूदा मंडी व्यवस्था को निजीकरण से जुड़े बदलावों की ओर ले जाने की पहल। जलवायु बदलाव के इस दौर में प्रतिकूल मौसम तो चलता ही रहेगा। सवाल है कि जलवायु बदलाव के इस दौर का सामना करने की सरकार की तैयारी कितनी है। इस दौर में सरकार को छोटे किसानों के हाथ मजबूत करने के लिए व्यापक कदम उठाने होंगे। छोटे किसानों, मजदूरों, दस्तकारों के लिए सरकारी बजट बढ़ाना होगा। भूमिहीन खेतिहरों को भी किसान बनाने के लिए भूमि-सुधार तेज करने होंगे। छोटे किसानों को लघु सिंचाई व सस्ती तकनीक उपलब्ध होनी चाहिए जिससे खेती का खर्च न्यूनतम हो सके। न्यूनतम लागत की व पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल खेती का व्यापक प्रसार होना चाहिए। पिछड़े क्षेत्र के किसानों की सर्वाधिक सहायता करनी चाहिए। मुनाफाखोरी पर रोक लगाने के खास प्रबंध होने चाहिए। गुणवत्तापरक स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाओं की जिम्मेदारी सरकार को स्वयं संभालनी चाहिए। इससे निजी क्षेत्र के स्कूल व अस्पताल भी नियंतण्रमें रहेंगे। सरकार सब नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी स्वीकार करे व इसके लिए अनुकूल नीतियां अपनाए।


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