Tuesday, February 15, 2011

भारी पड़ता डॉलर


बजट में महंगाई के साथ ही घाटा कम करने की चुनौती
वर्ष 2011-12 के बजट की आहट वित्त मंत्री, रिजर्व बैंक के गर्वनर और वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों के वक्तव्यों में सुनाई देने लगी है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पिछले कुछ समय से राजकोषीय घाटे को कम करने, काले धन को बाहर निकालने और कर प्राप्तियों के लक्ष्यों को बढ़ाने का मंतव्य साफ कर चुके हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर सुब्बाराव ने ताजा मौद्रिक नीति में वित्तीय घाटे को काबू करने और खर्चों में कटौती करने पर जोर देते हुए महंगाई से लड़ने के लिए सख्त बजट की संभावना के संकेत दिए हैं। सुब्बाराव ने महंगाई से लड़ने का मुद्दा वित्त मंत्री के पाले में सरका दिया है।
ग्यारहवीं योजना का अंतिम वर्ष होने के संदर्भ में वित्त मंत्री के समक्ष सुविधाएं और दुविधाएं दोनों हैं। अर्थव्यवस्था की सुविधाओं में 8.5 प्रतिशत की विकास दर, सकल घरेलू उत्पाद की 33 प्रतिशत बचत दर, 299 अरब डॉलर का विदेशी मुद्राकोष, 29 अरब डॉलर का विदेशी संस्थागत निवेश, 18 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आदि है। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में क्रमश: 19 और 44 प्रतिशत की वृद्धि से अनुमानित सात लाख करोड़ रुपए की आय आठ लाख करोड़ की सीमा को लांघ गई। पर उनकी प्रमुख दुविधा यह है कि राजकोषीय घाटे को कैसे कम किया जाए। यद्यपि 5.5 प्रतिशत के बड़े घाटे के संदर्भ में सरकार ने सरकारी खर्चों में कमी के संकेत दिए हैं, लेकिन ग्यारहवीं योजना के अंतिम वर्ष होने के नाते राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे, ऊर्जा, हवाई अड्डों, बंदरगाहों और सिंचाई समेत अन्य बुनियादी क्षेत्रों की करीब 15 लाख करोड़ रुपये की आवश्यकता ने वित्त मंत्री की परेशानियां बढ़ा दी हैं। इसके अलावा मनरेगा व खाद्य सुरक्षा पर भी अधिक राशि का प्रावधान करना होगा ।
कुछ दुविधाओं को तो वित्त मंत्री के पूर्वाग्रहों ने ही आमंत्रित किया है। इस वर्ष चालू खाते के घाटे (वस्तुओं, सेवाओं और विदेशी मुद्रा के आयात व निर्यात का अंतर) को तीन प्रतिशत अधिक रखने का यह विद्रूप तब उभरकर आया, जब हमने अल्पावधि के विदेशी मुद्रा प्रवाह की सहायता से चालू खाते के घाटे को पाटा। लेकिन इससे विदेशी कर्ज का बोझ ही बढ़ा। यह अच्छी राजनीति भले ही हो, लेकिन बुरा अर्थशास्त्र है। चिंता की बात है कि हमारे विदेशी कर्ज में अल्पावधि के विदेशी कर्ज 45 प्रतिशत बढ़कर 115 अरब डॉलर हो गया। कुछ कंपनियों ने विदेशी ऋणों में कम ब्याज दर और भारत की अधिक ब्याज दर के अंतर का लाभ उठाकर विदेशी विनिमय कोष में कर्ज का अनुपात बढ़ा दिया। वित्त मंत्री की दुविधा अन्य मुद्राओं के मुकाबले डॉलर के अवमूल्यन से विदेशी कर्ज बढ़ने ने बढ़ा दी है। वित्तमंत्री के समक्ष 25 लाख करोड़ रुपए के आंतरिक कर्ज के बढ़ते ब्याज की भी समस्या है।
वित्त मंत्री का यह भी मानना है कि 50 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा आने तक किसी प्रकार का संकट नहीं होगा। लेकिन रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा के बढ़ते प्रवाह को अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय मान रहा है। बढते डॉलर प्रवाह के कारण रुपये का मूल्य बढ़ने का प्रतिकूल प्रभाव भी हमारे निर्यात पर पड़ा। चिंता यह भी है कि 29 अरब डॉलर के विदेशी संस्थागत निवेशक के मुकाबले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश केवल 18 अरब डॉलर का ही रहा। पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेतों के बीच विदेशी संस्थागत निवेशकों को मलयेशिया व जापान के शेयर बाजार अधिक आकर्षक लगने लगे हैं। अत: वित्त मंत्री को विदेशी पूंजी के आगम, चरित्र और व्यवहार के बारे में अपनी पूर्व मान्यताओं को बदलना होगा।
उनकी एक मान्यता यह भी है कि कर आय में वृद्धि, स्पेक्ट्रम प्रक्रिया से हुई एक लाख करोड़ से अधिक की आय और ब्राड बैंड की बकाया वसूली के चलते राजकोषीय घाटा 5.5 फीसदी से कम रहेगा। उनके इस आशावाद का कारण यह है कि जिस अनुपात में खजाने में राजस्व प्रवाह बढ़ा, उस अनुपात में खर्च में वृद्धि नहीं हुई। लेकिन वित्त मंत्री का जो अनुमान विदेशी ऊष्ण मुद्रा पर टिका है, वह यूरोप और अमेरिका की ब्याज दर बढ़ने के वक्त तत्काल बाहर जा सकती है। कई मंत्रियों ने भी अगले बजट के लिए मोटी राशि की मांग की है। उधर महंगाई से त्रस्त करदाताओं की अपेक्षा है कि वित्तमंत्री कर छूट की सीमाएं बढ़ा दें।
चालू वित्त वर्ष में खाद्यान्नों, उर्वरकों और ऊर्जा क्षेत्रों में दी जाने वाली सबसिडी तय सीमाओं को लांघ गई। जहां उर्वरक मंत्रालय ने 52 हजार करोड़ रुपये की बजटीय सबसिडी के बदले 82 हजार करोड़ रुपये की मांग की, वहीं खाद्य एवं कृषि मंत्रालय ने भी 50 हजार करोड़ के बदले 80 हजार करोड़ रुपये की सबसिडी मांगी। वित्त मंत्रालय ने चालू वित्त वर्ष में पेट्रोलियम सबसिडी के रूप में 3,108 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था, पर 14 हजार करोड़ रुपये की प्रथम पूरक मांग ने आगामी सबसिडी का आभास करा दिया। साथ ही रिजर्व बैंक और अन्य बैंकों द्वारा भारतीय रेलवे, राज्य बिजली बोर्डों और विदेशों में कार्य निष्पादन में दी गई गारंटी भी ध्यान आकर्षित करेगी। वित्तीय गारंटी स्वयं एक दायित्व है, जो पिछले दरवाजे से राजकोषीय घाटे का अंग बनती रही है। चालू वित्त वर्ष का राजकोषीय घाटा तीन लाख 45 करोड़ रुपये से अधिक के सार्वजनिक कर्ज का पर्याय बन चुका है। रिजर्व बैंक द्वारा कर्ज की अंतिम किश्त पर 8.11 प्रतिशत ब्याज दर और अन्य विवशताओं के कारण राजकोषीय घाटा घटने के बजाय बढ़ेगा ही। बहरहाल, वित्त मंत्री को चाहिए कि वह गैर विकास खर्च में कमी करने संबंधी साहसिक निर्णय लें, ताकि घाटे के जनाजे को उठाने से बचा जा सके।
विदेशी मुद्रा प्रवाह की सहायता से चालू खाते के घाटे को पाटना अच्छी राजनीति भले हो, लेकिन यह बुरा अर्थशास्त्र है।

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