2003-04 के नैशनल सैंपल सव्रे संगठन के आंकड़ों के मुताबिक एक किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 2,115 रुपये हैं। इसका मतलब यह है कि तकरीबन 60 करोड़ किसान गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं
पिछले कई दिनों से टेलीविजन पर ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण बढ़ गया है जिनमें इस बात पर र्चचा की जा रही है कि इस बजट में आम आदमी को क्या हासिल होगा? इसमें आम तौर पर मध्यमवर्गीय परिवारों की महिलाएं और कर्मचारी अपनी बात कहते हुए दिख रहे हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस आम आदमी को टीवी पर दिखाया जा रहा है, उसमें किसान और खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं शामिल हैं। या यों कहें कि देश की दो तिहाई आबादी को आम आदमी की श्रेणी में नहीं गिना जा रहा है। किसान और किसानी न सिर्फ मीडिया से बल्कि पूरी आर्थिक व्यवस्था से ही गायब कर दिए गए हैं। ऐसा करने पर वैसे अर्थशास्त्री खास जोर देते हैं जो जमीनी हकीकत से कटे हुए हैं। पिछले पांच साल के आर्थिक सव्रेक्षणों ने इस बात को साबित कर दिया है कि कृषि क्षेत्र भयानक संकट से गुजर रहा है। हर गुजरते साल के साथ मरने वाले किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है। आर्थिक उत्पीड़न की वजह से पिछले 15 सालों में देश भर में तकरीबन ढाई लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। ऐसे में किसी भी वित्त मंत्री की प्राथमिकता इसे रोकने और किसानों के चेहरे पर मुस्कुराहट वापस लौटाने की होनी चाहिए।
हालांकि, मुझे नहीं लगता कि 2011 का बजट किसानों के लिए बड़ी राहत लेकर आएगा। 1991 के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के बाद से जितने वित्त मंत्री बने हैं और उन्होंने किसानों के साथ जो किया है, वही प्रणब मुखर्जी भी करेंगे। किसानों की अहमियत की बात करेंगे और कृषि क्षेत्र की सेहत सुधारने की जरूरत पर बल देंगे। अब तक जो र्चचाएं हुई हैं, उनसे तो यह नहीं लगता कि आर्थिक संकट से जूझ रहे किसानों को वित्त मंत्री कोई राहत देने वाले हैं। कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या उत्पादन में कमी नहीं बल्कि किसानों की घटती आमदनी है। किसानों के कल्याण के लिए योजना बनाने की बात चलती है तो विचारों का अकाल पड़ जाता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य में अगर बढ़ोतरी होती है तो इसका फायदा सिर्फ 30 से 40 फीसद किसानों तक ही पहुंच पाता है क्योंकि इनके पास ही मंडी में कुछ बेचने के लिए होता है। 60 फीसद से ज्यादा किसानों का तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में यह बजट इस ऐतिहासिक गलती को सुधारने का अवसर वित्त मंत्री को मुहैया कराएगा। 2003-04 के नैशनल सैंपल सव्रे संगठन के आंकड़ों के मुताबिक एक किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 2,115 रुपये हैं। इसका मतलब यह है कि तकरीबन 60 करोड़ किसान गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं। ऐसे में वित्त मंत्री को किसानों की आमदनी के लिए एक राष्ट्रीय आयोग के गठन का सुझाव रखना चाहिए। इस आयोग को एक निश्चित जमीन में किसानों के लिए एक निश्चित मासिक आमदनी सुनिश्चित करने की दिशा में काम करने की जिम्मेदारी देनी चाहिए। मुझे पता है कि मौजूदा आर्थिक हालत में वित्त मंत्री के पास बहुत ज्यादा वित्तीय आजादी नहीं है। पर ऐसे में उन्हें उद्योगों को दिए जा रहे राहत पैकेज को हटाकर इसे किसानों को दे देना चाहिए। किसानों को गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा और रागी पर बोनस देने का बंदोबस्त कर देना चाहिए। किसानों को आर्थिक मदद की जरूरत है लेकिन उद्योगों को मिल रही आर्थिक मदद को वापस लेने के लिए सियासी साहस की जरूरत है। किसान अभी ज्यादा जरूरतमंद हैं, इसलिए यह मदद उन्हें दी जानी चाहिए। इस बजट में किसानों को दिए जाने वाले कर्ज में 50,000 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी कर इसे 4.25 लाख करोड़ रुपये किया जा सकता है। पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कृषि के नाम पर दिए जाने वाले कर्ज का मोटा हिस्सा उन कंपनियों को मिल जाता है जो इस क्षेत्र में काम कर रही हैं और छोटे किसानों को कर्ज नहीं मिल पाता। साफ है कि कर्ज देने से किसानों का भला
नहीं होने वाला क्योंकि पहले से ही किसान कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। ऐसे में अधिक कर्ज देने का मतलब यह है कि वे कर्ज के बोझ तले और दबेंगे। जहां तक सवाल तिलहन और दालों की उपज घटने का है तो तिलहन का उत्पादन तो सरकार की नीतियों की वजह से घटा है। सरकार ने इनके आयात पर लगने वाले शुल्क को घटा दिया और इसका नतीजा यह हुआ कि घरेलू बाजार सस्ते तिलहन से पट गया। 1993-94 में भारत खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भर था लेकिन आयात शुल्क में साल-दर-साल की गई कमी का नतीजा यह हुआ कि आज भारत दुनिया भर में सबसे ज्यादा खाद्य तेल आयात करने के मामले में दूसरे स्थान पर है। ऐसे में तिलहन और दलहन का उत्पादन तब तक नहीं बढ़ेगा जब तक सरकार आयात शुल्क को पुराने स्तर पर नहीं लाती है। विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत तिलहन पर भारत 300 फीसद तक आयात शुल्क लगा सकता है लेकिन इसे शून्य कर दिया गया है। दलहन के लिए भी आयात शुल्क शून्य कर दिया गया है। जब तक ये शुल्क बढ़ाए नहीं जाते, भारतीय किसान रियायत पर उपजाए जाने वाले सस्ते अनाजों का मुकाबला नहीं कर पाएंगे।
सस्ते अनाज का आयात करने का सीधा मतलब बेरोजगारी आयात करना है। हरित क्रांति को पूर्वोत्तर के राज्यों में ले जाने के लिए वित्त मंत्री ने पिछले साल 400 करोड़ रुपये दिए थे। पर यह एक भ्रम में डालने वाली रणनीति है क्योंकि हरित क्रांति की प्रौद्योगिकी ने पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश की जमीन की उत्पादकता को खत्म करने का काम किया है। हरित क्रांति की वजह से पैदा हुईं समस्याओं का ही नतीजा है कि आज किसान आत्महत्याएं करने को मजबूर हैं। ऐसे में हरित क्रांति के मॉडल को पूर्वोत्तर के राज्यों में ले जाने का सीधा अर्थ यह निकाला जाएगा कि देश ने पुरानी गलती से कोई सबक नहीं लिया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक वित्त मंत्री का ध्यान आकृष्ट करेगा। अनाज की बढ़ती कीमतों को देखते हुए संभव है कि बीमार और भ्रष्ट सार्वजनिक वितरण पण्राली को और पैसे मुहैया कराए जाएं। इसके बजाए गांव और तालुका स्तर पर अनाज भंडार तैयार करने के लिए धन मुहैया करवाया जाना चाहिए। इसे हर राज्य में क्षेत्रीय अनाज भंडार से जोड़ा जाना चाहिए। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने पंचायत घर स्थापित करने के लिए संसाधन मुहैया करवाए हैं। ऐसे में हर पंचायत में बीज भंडार बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए। इससे अनाज की बर्बादी थमेगी और स्थानीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगा। इससे सार्वजनिक वितरण पण्राली का बोझ भी घटेगा और जिसे फिर सुधारने में भी सहूलियत होगी। मुझे यह जानकर बेहद प्रसन्नता हुई कि वित्त मंत्री ने स्वास्थ्य बीमा के तहत रोजगार गारंटी योजना के तहत साल में कम से कम 15 दिन काम करने वाले मजदूरों को भी शामिल कर लिया है। आने वाले सालों में स्वास्थ्य बीमा के दायरे को बढ़ाकर इसमें पूरे किसान समुदाय को शामिल करने की जरूरत होगी। अभी फसल को भी बीमा के दायरे में नहीं लाया गया है। कुछ राज्यों में किसानों को स्वास्थ्य बीमा दिया गया है लेकिन ज्यादातर राज्यों में ऐसा नहीं हुआ है। बजट में हुए आवंटन के साथ 2010 के आर्थिक सव्रेक्षण को पढ़ने पर इस बात का पता चलता है कि सरकार खेती पर कॉरपोरेट और निजी कारोबारी घरानों का वर्चस्व बढ़ाना चाहती है। आर्थिक सव्रेक्षण में अनाज को लेकर जिन कदमों के उल्लेख किए गए हैं, उनसे साफ है कि सरकार कृषि में औद्योगिकरण बढ़ाना चाहती है और कृषि उत्पादों को संगठित खुदरा उद्योग से जोड़ना चाहती है। इसका मतलब यह हुआ कि किसानों पर बोझ और बढ़ेगा।
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