सरकार ने सब्सिडी वितरण का सही तरीका खोजने के लिए एक कार्यदल गठित किया है। परियोजना के अध्यक्ष नंदन नीलेकणी की अध्यक्षता वाला यह कार्यदल सब्सिडी का पैसा सीधे गरीबों को हस्तांतरित करने के उपायों पर विचार करेगा। नंदन नीलेकणी ने कहा है कि सीधे पैसा देने की यह योजना पायलट परियोजना के तहत देश के कुछ हिस्सों में लागू की जाएगी और परिणामों के आधार पर सही योजना तैयार की जाएगी। वैसे तो सरकार कई तरह की सब्सिडी देती है, लेकिन पेट्रोलियम पदार्थो और उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी का बिल बहुत ज्यादा है। 2010-11 के लिए संशोधित अनुमानों में उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी 80 हजार से 83 हजार करोड़ होने का अनुमान है, जबकि बजट अनुमानों में यह 49,981 करोड़ रुपये था। दिलचस्प बात यह है कि मिश्रित उर्वरकों की कीमतें वित्त वर्ष के शुरू में पोषक तत्व आधारित सब्सिडी कानून के तहत विनियंत्रित कर दी गई थीं, लेकिन बावजूद इसके सब्सिडी में बढ़ोतरी की संभावना है। पेट्रोलियम पदार्थो पर दी जाने वाली सब्सिडी की हालत भी इससे जुदा नहीं है। चालू वित्त वर्ष में तेल विपणन कंपनियों की अंडररिकवरी यानी लागत से कम मूल्य पर पेट्रो उत्पाद बेचने से होने वाला नुकसान 53 हजार करोड़ रुपये से अधिक का अनुमान है। हालांकि सरकार ने पेट्रोल को नियंत्रण मुक्त कर दिया है, लेकिन पेट्रोल की कम खपत होने के कारण तेल कंपनियों की सेहत में कोई सुधार नहीं आया है। पिछले दिनों महाराष्ट्र में नासिक जिले के मनमाड़ में अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनावणे की हत्या ने सब्सिडी पर पल रहे तेल माफियाओं की ओर लोगों का ध्यान खींचा था जब उन्हें दिन-दहाड़े जिंदा जला दिया गया। सोनावणे पहले ऐसे ईमानदार अधिकारी नहीं हैं जिन्होंने तेल में मिलावटखोरी पर अंकुश लगाने की कोशिश में जान गंवाई है। इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के विपणन अधिकारी शणमुगम मंजुनाथ की भी तेल माफिया ने उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में नवंबर 2005 को गोली मारकर हत्या कर दी थी। देश में संगठित उद्योग की शक्ल ले चुके तेल माफियाओं का संदेश साफ है कि जो भी रास्ते में आएगा, उसका यही हश्र किया जाएगा। दोनों अधिकारियों की हत्या के बाद कुछ अभियुक्तों को गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन करोड़ों के इस काले खेल की असल जड़ पर कोई दमदार चोट नहीं की गई है। केंद्र सरकार गरीबों को खाना पकाने और रोशनी के लिए सस्ती दर पर केरोसीन तेल मुहैया करवाती है। सरकारी तेल कंपनियों के अनुसार देश में सालाना 1,120 करोड़ लीटर केरोसीन तेल की खपत होती है, लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा तेल माफियाओं की भेंट चढ जाता है। खुद सरकार इस बात को स्वीकार करती है कि इसका 40 फीसदी यानी लगभग 450 करोड़ लीटर केरोसीन वास्तविक जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाता है। खुले बाजार में केरोसीन 31 रुपये प्रति लीटर की दर से बिकता है, लेकिन सरकार इसे 12.37 रुपये प्रति लीटर की दर से उपलब्ध कराती है। यही वह कमजोर कड़ी है जिसका फायदा तेल माफिया उठाता है। पीडीएस में वितरण के लिए आने वाले केरोसीन तेल का बड़ा हिस्सा डीजल-पेट्रोल में मिलावट के काम आता है। चूंकि पेट्रोल-डीजल केरोसीन के मुकाबले काफी महंगे हैं लिहाजा इस खेल में खूब चांदी काटी जाती है। केरोसीन पर सरकार 30 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही है और मिलावट का बाजार 15 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का है। जाहिर है कि देश के करदाताओं के पैसे से ही तेल माफिया ऑक्सीजन ले रहा है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में तो नेताओं के वरदहस्त से तेल माफिया बेहद मजबूत हो गया है। तेल विपणन कंपनियों के अधिकारी, स्थानीय पुलिस, ठेकेदार से लेकर प्रशासनिक तंत्र के लोग करोड़ों रुपये के इस धंधे में शामिल हैं। कहना न होगा कि पोपट शिंदे जैसे लोग तो इस तालाब की छोटी मछलियां हैं, बड़े खिलाड़ी तो कानून के रखवाले बने बैठे हैं। अगर कभी-कभार कोई मंजुनाथ या यशवंत इस गिरोह के सामने सच की आवाज बुलंद करता है तो उसे खामोश कर दिया जाता है। असल में सारी समस्या की जड़ पेट्रोलियम पदार्थो पर दी जा रही सब्सिडी है। सरकार अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ती कच्चे तेल की कीमतों से उपभोक्ताओं को सुरक्षित रखने के लिए रियायती दर पर डीजल-पेट्रोल, केरोसीन और रसोई गैस उपलब्ध करवाती है। तेल कंपनियों को होने वाले नुकसान में 25 फीसदी से ज्यादा हिस्सा केरोसीन का है, जिसका इस्तेमाल डीजल-पेट्रोल में मिलावट के लिए तो किया ही जाता है साथ ही पड़ोसी देशों के मुकाबले कीमतों में बड़ा अंतर होने के कारण बड़े पैमाने पर इसकी तस्करी भी की जाती है। केरोसीन पर सब्सिडी देकर हम इस गफलत में रहते हैं कि इससे गरीब परिवारों को सहायता मिलती है। वास्तविकता यह है कि महज 1.3 फीसदी परिवार (किरीट पारिख समिति के अनुसार) ही खाना पकाने के लिए केरोसीन तेल का इस्तेमाल करते हैं। दूसरी बात यह कि केरोसीन तेल का उपयोग गरीब परिवार रोशनी के लिए करते हैं तो हमें उन तक बिजली पहुंचाने के प्रयास करने चाहिए। सरकार जिन गरीबों के लिए करोड़ों की सब्सिडी देती है, वह पहले से ही मुनाफाखोरों और बिचौलियों से केरोसीन तेल खरीदने को मजबूर है। लंबे समय से घाटे और सब्सिडी के जंजाल में फंसे रहने के कारण तेल विपणन कंपनियां न तो क्षमता विस्तार कर पाई हैं और न अपनी रिफाइनरियों को आधुनिक मापदंडों पर अपग्रेड कर पाई हैं। पेट्रो पदार्थो पर दी जाने वाली सब्सिडी और इस पर होने वाली राजनीति हमारे नेताओं को इतनी प्यारी है कि हम इसकी वजह भी नहीं जानना चाहते हैं। पेट्रोल को सब्सिडी दिए जाने का कोई तुक नहीं है। डीजल का इस्तेमाल कृषि कार्यो और सार्वजिनक परिवहन में होता है इस आधार पर सब्सिडी दी जा सकती है, लेकिन इसका फायदा केवल जरूरतमंदों तक ही पहुंचना चाहिए। सच तो यह है कि देश में होने वाली डीजल खपत का 30 फीसदी ही कृषि-कार्यो में इस्तेमाल किया जाता है। यह बात समझ से परे है कि लाखों रुपये की महंगी कार खरीदने वालों को डीजल पर सब्सिडी क्यों दी जाती हैं? सरकार की इसी दोषपूर्ण सब्सिडी नीति के कारण डीजल कारों को प्रोत्साहन मिल रहा है जो पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनों ही लिहाज से खतरा हैं। जरूरी वस्तुओं की ढुलाई करने वाले ट्रक व रेलगाड़ी को सब्सिडी दी जानी चाहिए, लेकिन इसके लिए प्रभावी और पारदर्शी तंत्र इजाद करना होगा। किसानों को बढ़ती तेल कीमतों से महफूज रखने के लिए फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की जा सकती है। गरीबों में केरोसीन तेल का वितरण करने के लिए स्मार्ट कार्ड का उपयोग किया जा सकता है या सब्सिडी राशि सीधे ही लोगों के बैंक खाते में जमा करवाई जा सकती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, उर्वरक सब्सिडी और पेट्रो पदार्थो पर दी जाने वाली सब्सिडी को तर्कसंगत बनाकर ही भ्रष्ट तंत्र का सफाया किया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सब्सिडी के रूप में दिया जाने वाला पैसा कहां से आता है? सरकार को आम जनता की खून-पसीने की कमाई भ्रष्ट गिरोहों के पास पहुंचाने का कोई अधिकार नहीं है। खैरात की तरह सब्सिडी बांटने की बजाय पारदर्शी तंत्र के जरिये केवल वास्तविक जरूरतमंदों को ही रियायत देनी चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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