Thursday, February 3, 2011

ब्याज दर बढ़ाना ही विकल्प नहीं


हालांकि पिछले लगभग तीन वर्षो से महंगाई लगातार बढ़ रही है, लेकिन पिछले कुछ माह से इसमें पहले से कहीं ज्यादा तेजी आ गई है। सामान्यत: किसी भी अर्थव्यवस्था में महंगाई इसलिए होती है कि पूर्ति की अपेक्षा मांग अधिक हो जाती है। ऐसे में महंगाई को दूर करने के उपायों में पूर्ति में सुधार और मांग पर नियंत्रण एक प्रमुख तरीका होता है। उल्लेखनीय है कि ऐसी किसी स्थिति में देश में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन बढ़ाकर अथवा आयात करके पूर्ति में सुधार हो सकता है। पिछला अनुभव भी यही बताता है कि औद्योगिक उत्पादन विशेष तौर पर उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन काफी तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन कृषि उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि का अभाव देखने को मिलता है। ऐसे में कृषि पदार्थो खासकर पर खाद्य पदार्थो की कीमत में वृद्धि आम जनता को ज्यादा प्रभावित कर रही है। पिछले कुछ महीनों में प्याज और टमाटरों की कीमत में हुई ऐतिहासिक वृद्धि काफी चर्चा में रही। इस महंगाई से घबराई सरकार के पास महंगाई रोकने के कोई विशेष विकल्प नहीं हैं। ऐसे में परंपरागत रूप से मौद्रिक उपायों के माध्यम से महंगाई को रोकने का चाहे आधे मन से ही सही, एक प्रयास भारतीय रिजर्व बैंक के माध्यम से सरकार कर रही है।
नियंत्रण के उपाय
भारतीय रिजर्व बैंक ऐसे प्रयास कर रहा है ताकि देश में मुद्रा एवं साख में कमी लाई जा सके। इस तरह की नीति के माध्यम से कोशिश यही होती है देश में बढ़ रही मांग पर अंकुश लगाया जा सके। जाहिर है कि सरकार यदि इस नीति में सफल होती है तो देश में वस्तुओं और सेवाओं की मांग कम होगी और कीमत वृद्धि की दर में कमी लाई जा सकेगी। हम जानते हैं कि विश्वव्यापी मंदी के बाद भारत पर इसके असर को कम करने की कवायद में भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कटौती तो की ही साथ ही भारतीय रिजर्व बैंक के पास अनिवार्य रूप से रखी जाने वाली जमा के अनुपात सीआरआर में भी लगातार कटौती की गई थी। ऐसे में देश में साख की मात्रा बढ़ाकर येन-केन-प्रकारेण मांग में वृद्धि करने का प्रयास भी किया गया। हालांकि पूरी दुनिया के देशों में आई वैश्विक मंदी के चलते हमारे निर्यातों में कुछ कमी आई थी, लेकिन उसकी भरपूर भरपाई देश में पैदा हुई मांग ने कर दी थी। यही कारण रहा कि वैश्विक मंदी के दौर में भी भारत औसतन 7-8 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर का लक्ष्य हासिल करने में सफल रहा। परंतु आज समय बदल गया है और देश मंदी के दौर से बिल्कुल मुक्त होता हुआ दिखाई दे रहा है। उलटे अब तो मांग में वृद्धि के चलते महंगाई की चिंता अधिक सताने लगी है।

कैसे आती है के्रडिट में कमी
पिछले कुछ माह से भारतीय रिजर्व बैंक सख्त मुद्रा की नीति अपना रहा है। इसके लिए कई प्रकार के उपाय अपनाए जा रहे हैं ताकि देश में मुद्रा की पूर्ति और उधार को कम किया जा सके। 25 जनवरी, 2011 को भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को बढ़ाकर क्रमश: 6.5 प्रतिशत और 5.5 प्रतिशत कर दिया है। यह वर्तमान वित्तीय वर्ष में सातवीं बार की गई बढ़ोतरी है। इससे पहले रिजर्व बैंक ने बैंकों के सीआरआर में भी वृद्धि की थी। जानकारों का मानना है कि भविष्य में रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में और भी वृद्धि की जा सकती है। महत्वपूर्ण है कि अभी तक इस वर्ष में रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में 1.25 प्रतिशत और रिवर्स रेपो रेट में 1.75 प्रतिशत वृद्धि लागू की है और दो किश्तों में सीआरआर यानी नकद जमा अनुपात को एक प्रतिशत बढ़ाया है। इस प्रकार की नीति के माध्यम से रिजर्व बैंक एक ओर तो बैंकों द्वारा उधार लेने की क्षमता में कमी की जाती है तो दूसरी ओर उधार की लागत बढ़ाकर मांग में कमी की जाती है। ऐसा कहा जाता है कि पूर्व में सीआरआर बढ़ा कर रिजर्व बैंक ने बैंकों के पास 50 हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त तरलता वापस खींच ली थी। 25 जनवरी, 2011 को हुई ब्याज दरों में वृद्धि का भी भारी असर देखने को मिल रहा है। शुक्रवार 28 जनवरी 2011 तक मात्र तीन दिनों में मुंबई शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक इसी कारण से लगभग 755 बिंदु नीचे गिर गया। इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय शेयर बाजार ने रिजर्व बैंक के इस कदम को आर्थिक जगत के हितों के लिए एक शुभ संकेत नहीं माना है।

विकास हो सकता है बाधित
यदि पिछले 10 वर्षो का लेखा-जोखा लिया जाए तो हम देखते हैं कि देश में आर्थिक वृद्धि की दर पहले से तेज हुई है, हालांकि इसके साथ ही साथ कृषि में विकास की दर पहले से काफी घट गई है। इसके साथ ही साथ सेवा क्षेत्र में होने वाली अभूतपूर्व आर्थिक वृद्धि ने सकल विकास दर को घटने नहीं दिया, बल्कि उसमें पहले से ज्यादा तेजी आ गई। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इस दशक के पहले छह-सात वर्षो तक कीमतों में वृद्धि को काफी हद तक काबू में रखा जा सका। कीमतों में अपेक्षित नियंत्रण के चलते ब्याज दरें घटीं। हालांकि घटती ब्याज दरों ने एक ऐसे वर्ग पर जो ब्याज की आय पर आधारित था को प्रभावित किया, लेकिन घटती ब्याज दरों ने देश में घरों, कारों और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं इत्यादि की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि भी की। यही नहीं कम ब्याज दरों के चलते सरकार द्वारा लिए गए ऋणाों पर ब्याज की अदायगी पर भी अनुकूल असर पड़ा। देश में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में भी इसकी अच्छी भूमिका रही, क्योंकि निजी कंपनियों को निवेश के लिए सस्ती दरों पर ऋण मिलना शुरूहो गया। इस प्रकार मांग में अभूतपूर्व वृद्धि तो हुई, लेकिन निवेश की दर भी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई। इससे हाउसिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में तेजी से विकास होना शुरू हुआ और हमारा देश दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आ गया, लेकिन इसके बाद वर्ष 2008-09 में कीमतों में पुन: वृद्धि होनी शुरू हो गई और ब्याज दरें पुन: बढ़ने लगीं। वर्ष 2009 से शुरुआती वैश्विक मंदी के चलते मांग को बनाए रखने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों को फिर से घटाना शुरू किया और उसका अपेक्षित असर मांग पर पड़ा और वर्ष 2009-10 में जहां वैश्विक स्तर पर जीडीपी में एक प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई, वहीं भारत में आर्थिक वृद्धि की दर सात प्रतिशत से भी अधिक दर्ज की गई। कहा जा सकता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि की गाथा में ब्याज दरों के घटने की एक प्रमुख भूमिका रही है। ऐसे में वर्तमान वित्तीय वर्ष में तेजी से बढ़ती महंगाई और उस पर काबू करने के लिए बढ़ाई जा रही ब्याज दरें आज चिंता का विषय कही जा सकती हैं। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि महंगाई पर तुरंत प्रभावी कदम उठाते हुए नियंत्रण किया जाए और ब्याज दरों को नीचा रखते हुए देश की आर्थिक विकास की यात्रा को अनवरत जारी रखने का काम किया जाए। सरकार को यह समझना होगा कि महंगाई पर काबू पाने के लिए कृषि उत्पादों की पूर्ति बढ़ानी होगी और इसके लिए उसे अभी से कृषि की अनदेखी समाप्त करना होगा। इससे गरीबों को सस्ती दरों पर खाद्य पदार्थ तो उपलब्ध होंगे ही ब्याज दरों को नियंत्रण में रखते हुए आर्थिक वृद्धि की दर भी बढ़ेगी।


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