Friday, February 4, 2011

क्यों बढ़ी महंगाई


खेती की बदलती तकनीक और महंगे पेट्रो उत्पाद से बदली तसवीर
हमारे यहां खाद्य पदार्थों की आसमान छूती महंगाई को पेट्रो उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी से अलग करके देखा जाता रहा है। जबकि हकीकत यह है कि खाद्यान्नों की लगातार बढ़ती कीमत के पीछे अदृश्य रूप से पेट्रो पदार्थों की कीमतों में हो रही बढ़ोतरी का प्रमुख हाथ है। हालांकि प्याज की आसमान छूती महंगाई के पीछे जमाखोरी या दूसरे कारणों से होने वाली किल्लत का हाथ हो सकता है। मसलन, पाकिस्तान द्वारा अचानक निर्यात रोकने से भी मंडियों में प्याज का अभाव बन गया। लेकिन खाद्यान्नों की कीमतों में बढ़ोतरी का दबाव एक स्थायी रुझान बना हुआ है। जहां आधार वर्ष 2004-05 में खाद्यान्नों एवं दूसरी मूलभूत आवश्यक वस्तुओं का थोक बाजार सूचकांक 100 था वहीं दिसंबर, 2010 में इनका सूचकांक 188.9, ईंधन और ऊर्जा का 150.1 तथा औद्योगिक वस्तुओं का मूल्य सूचकांक 128.9 हो गया।
प्याज की किल्लत तो तात्कालिक ही है, और अब इसकी कीमत नीचे आने भी लगी है। लेकिन पिछले दिनों प्याज के अभाव का बड़ा कारण था स्थितियों का सही आकलन कर व्यवस्था न कर पाना। अब कहा जा रहा है कि अगर आयात अधिक हुआ, तो उन किसानों को घाटा होगा जो बाजार का रुझान देखकर बाजार में जल्दी प्याज लाने की कोशिश कर रहे थे। यह जानना दिलचस्प है कि 1998 में भी अप्रैल-मई से अक्तूबर-नवंबर के बीच प्याज की कीमत इस तरह अचानक बढ़ी थी। पर खाद्यान्न का जो असली संकट है उसका स्वरूप ऐसा तात्कालिक नहीं है। यह संकट बुनियादी है, जिसका संबंध कृषि के बदलते स्वरूप और उसमें ऊर्जा या उर्वरकों के लिए पेट्रोलियम जैसे स्रोतों पर बढ़ती निर्भरता से है।
आधुनिक कृषि में विविध यंत्रों और उर्वरकों का सहारा लिया जाता है। ये सब दिनोंदिन महंगे होते जा रहे हैं। पेट्रोलियम धरती में गड़ा हुआ जीवाश्म है, जिसकी मात्रा लगातार घटती जा रही है। जब एक जगह जीवाश्म का यह खजाना खाली होने लगता है, तो दूसरी जगह उसकी तलाश होती है। स्वाभाविक है कि आसानी से मिलने वाले स्रोतों को पहले खाली कर लिया जाता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो बाद में पाए जानेवाले स्रोतों से तेल की उपलब्धि अधिक कठिन और खर्चीली होती है। पिछले पचास वर्षों में अशोधित पेट्रोलियम की कीमत लगभग पचास गुनी हो गई है-यानी 1962 के दो डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर वर्तमान के लगभग 100 डॉलर प्रति बैरल के आसपास।
खेती में जुताई, सिंचाई, कटनी और दौनी (थे्रसिंग) समेत दूसरे सभी तरह के कामों के लिए ऐसी मशीनों का प्रयोग बढ़ रहा है, जो पेट्रोलियम पदार्थों का इस्तेमाल ऊर्जा के लिए करते हैं। नाइट्रोजन उपलब्ध कराने वाले कई उर्वरकों के उत्पादन में भी पेट्रोलियम का इस्तेमाल होता है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत बढ़ने पर उत्पादन की इन सभी प्रक्रियाओं का खर्च बढ़ेगा और इससे उत्पादित खाद्यान्नों या दूसरी कृषिजन्य वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ेंगी। खाद्यान्नों की कीमतों में बढ़ोतरी का जो स्थायी रुझान है, उसका असली कारण यही है, हालांकि तात्कालिक रूप से इसके लिए जमाखोरी और वायदा बाजार भी जिम्मेदार हैं।
अत्यधिक मशीनीकृत कृषि लागत के हिसाब से नकारात्मक नतीजे ही देती है, इसका सुंदर उदाहरण जेरेमी रिफ्कन ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक इंट्रोपी में दिया है। वह लिखते हैं, अब यह एक आम जानकारी है कि आयोवा का एक काश्तकार मनुष्य की प्रति कैलोरी ऊर्जा के बदले 6,000 कैलोरी ऊर्जा के बराबर का उत्पाद प्राप्त करता है, लेकिन उसकी सारी क्षमता एक भ्रम है, जब हम उसकी सारी ऊर्जा पर विचार करते हैं, जिसे इस उत्पादन प्रक्रिया में खर्च किया गया है। सिर्फ एक डब्बा अनाज पैदा करने में, जिसमें 270 कैलोरी ऊर्जा है, इस काश्तकार को 2,790 कैलोरी खर्च करनी पड़ती है, जो मुख्य रूप से फार्म की मशीनों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के रूप में खर्च की जाती है। इस तरह अमेरिकी किसान प्रत्येक कैलोरी पैदा करने में 10 कैलोरी ऊर्जा की खपत करता है। यही कारण है कि अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के विकसित देशों को अपने काश्तकारों को खेती में लगाए रखने के लिए भारी अनुदान देना पड़ता है। ऐसे अनुदानों के बिना वहां के काश्तकार पारंपरिक खेती करने वाले किसानों के सामने टिक नहीं सकते। अगर विकसित देशों में खेती की यही स्थिति बनी रही, तो कृषि उत्पादों की कीमतों का पेट्रोलियम की कीमतों के बढ़ने के साथ बढ़ना अपरिहार्य है।
इसी से जुड़ा एक दूसरा पहलू भी है। जैसे-जैसे प्राकृतिक तेल के स्रोत घटते जाते हैं, यह प्रयास होता है कि उनका स्थान मनुष्य द्वारा उत्पादित कोई स्रोत ले। इस प्रयास में गन्ना या मक्का आदि अनाज से एथनोल पैदा की जा रही है। इसी क्रम में हमारे यहां जटरोफा से डीजल बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई है। इससे ईंधन पैदा करने के लिए कृषि भूमि का उपयोग बढ़ने लगा है। जब तक खाद्यान्नों की पैदावार में भारी बढ़ोतरी नहीं होती, तब तक इस पर दबाव बना रहेगा। दूसरी ओर, औद्योगिकीकरण के कारण एक संपन्न मध्य वर्ग का विकास हुआ है, जिसके भोजन में दूध, मांस, अंडे आदि की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ी है। इनके उत्पादन के लिए कम से कम दस गुना अन्न की खपत होती है। इससे भी खाद्यान्नों की उपलब्धता पर दबाव बनता जा रहा है।
इस लिहाज से देखें, तो मौजूदा अन्न संकट कहीं न कहीं तथाकथित उदारीकृत अर्थव्यस्था से जुड़ा है। भारत में चूंकि उच्च और मध्य वर्ग की परिधि से बाहर आम लोगों की एक विशाल आबादी है, इसलिए इस देश को खेती और उदार अर्थव्यवस्था के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचना पड़ेगा।


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