Thursday, February 10, 2011

आर्थिक मजबूती के दावे की हकीकत


केंद्रीय सांख्यिकी संगठन एक सप्ताह के अंदर दो बार हमारी अर्थव्यवस्था से संबंधित आंकड़ा जारी कर चुका है। पहले उसने कहा कि देश में प्रति व्यक्ति आय 46,492 रुपये सालाना हो चुकी है। यह 2008-09 में प्रति व्यक्ति आय से 14.5 प्रतिशत ज्यादा है। इसके अनुसार हमारी कुल अर्थव्यवस्था 61 लाख 33 हजार 230 करोड़ रुपये से ज्यादा की है। 117 करोड़ भारतीयों के बीच समान विभाजन करके प्रति व्यक्ति आय का यह आंकड़ा निकाला गया है। पिछले अनुमान में सालाना प्रति व्यक्ति आमदनी 44,345 रुपये मानी गई थी। 2008-09 में प्रति व्यक्ति आय 40,605 थी। अगर महीने के अनुसार देखें तो यह 3,875 रुपये प्रति महीना बैठती है। 2008-09 में प्रति व्यक्ति आय 3,384 रुपये महीना थी। अब सांख्यिकी संगठन ने कहा है कि प्रति व्यक्ति आय 2010-11 में 54, 527 रुपये हो जाएगी। यह वृद्धि 17.2 प्रतिशत है। इसी प्रकार कुल अर्थव्यवस्था का आकार भी 72 लाख 56 हजार 571 करोड़ हो जाएगा। यह वृद्धि 18.3 प्रतिशत है। लगातार देश की आय और प्रति व्यक्ति औसत आय का बढ़ना किसी देश की तरक्की का सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता है। आर्थिक खुशहाली के प्रमाण यहीं तक सीमित नहीं हैं। 2009-10 की आर्थिक विकास दर 7.4 प्रतिशत के पूर्व अनुमान से बढ़कर 8 प्रतिशत हो गई। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी कहते हैं कि मार्च का अंत आते-आते देश 8.5 प्रतिशत से 8.75 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर लेगा। भारतीय रिजर्व बैंक कहता है कि विकास दर 8.75 प्रतिशत रहेगी। सांख्यिकी संगठन भी 8.6 प्रतिशत विकास दर का अनुमान लगा रहा है। तो क्या वाकई भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी प्रत्येक व्यक्ति की आय बढ़ाती पटरी पर तेज दौड़ती विकास की रिकॉर्ड ऊंचाई छूने जा रही है? और क्या यह आम आदमी की भी समृद्धि का द्योतक है? इसमें दो राय नहीं कि विकास दर और प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी के ये आंकड़े चीन को छोड़कर दुनिया के प्रमुख देशों की सुस्ती के बीच बेहतर तस्वीर पेश कर रहे हैं। 2009-10 की विकास दर से हम आगे बढ़ने वाले हैं। देश के औद्योगिक उत्पादन में बुनियादी उद्योगों का योगदान 26.68 प्रतिशत है। चालू वित्त वर्ष के प्रथम नौ महीने अप्रैल से दिसंबर तक छह बुनियादी उद्योगों- कच्चे तेल, पेट्रोलियम शोधन उत्पाद, कोयला, बिजली, सीमेंट और तैयार इस्पात में 5.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। वित्त वर्ष 2009-10 के प्रथम नौ महीने में यह वृद्धि 4.7 प्रतिशत थी। दिसंबर में बुनियादी उद्योगों की विकास दर 6.6 प्रतिशत रही है, जबकि नवंबर में केवल 2.7 प्रतिशत थी। जाहिर है, इससे पूरे वृद्धि दर का औसत बढ़ेगा। विदेशी व्यापार के मोर्चे पर भी निर्यात का आंकड़ा दिसंबर में 36.4 प्रतिशत बढ़कर 22.5 अरब डॉलर के करीब चला गया। लेकिन इसके साथ कुछ दूसरी सच्चाइयां भी हैं, जिनके बगैर अर्थव्यवस्था का पूरा मूल्यांकन एकपक्षीय हो जाएगा। देश के आर्थिक विकास या खुशहाली का मूल्यांकन केवल कुल अर्थव्यवस्था के आकार, औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों में उछाल या प्रति व्यक्ति औसत आय की छलांग से नहीं हो सकता। औसत आय में उस व्यक्ति की कंगाली नहीं दिखाई देती, जिसे एक पैसे की भी आमदनी नहीं होती या जिसकी आमदनी काफी कम है। एक व्यक्ति की मासिक आय एक करोड़ हो और दूसरे की एक रुपये तो औसत आय प्रति व्यक्ति 50 लाख रुपये 50 पैसे हो जाएगी। इस प्रकार आकलन का यह सांचा दोषपूर्ण है। फिर प्रगति के दावे के लिए जो आंकड़े हमारे सामने लाए गए हैं, उनके समानांतर कुछ दूसरे आंकड़े भी हैं और ये भी अधिकृत हैं। रिजर्व बैंक का सर्वेक्षण कहता है कि औद्योगिक विकास दर 10.4 प्रतिशत से घटकर 8.9 प्रतिशत रह गई है। इसके अनुसार 2011-12 में कुल आर्थिक विकास दर ही नहीं, उद्योग, कृषि और सेवा तीनों की विकास दर कम रहेगी। किसे सही माना जाए? आर्थिक विकास की गति में जो वृद्धि दिखाई गई है, उसका आधार विनिर्माण क्षेत्र में 8.8 प्रतिशत, रियल इस्टेट, बीमा, वित्त एवं कारोबारी सेवा में 9.2 प्रतिशत, परिवहन, भंडारण एवं संचार क्षेत्र में 15 प्रतिशत, समुदाय, सामाजिक एवं व्यक्तिगत सेवाओं में 11.8 प्रतिशत की वृद्धि दर है। इनका मूल्यांकन मूलत: निजी कंपनियों एवं संस्थाओं की रिपोर्टो पर निर्भर होता है, जिन्हें शत-प्रतिशत सही माना ही नहीं जा सकता। रिजर्व बैंक कहता है कि महंगाई दर अगले पांच सालों तक कम नहीं होगी। रिजर्व बैंक ने अगले पांच साल के लिए महंगाई दर औसत 6 प्रतिशत निर्धारित किया है। महंगाई दर के आधार पर विचार करें तो 2009-10 में प्रति व्यक्ति आय में केवल 6 प्रतिशत की वृद्धि नजर आती है। इसके अनुसार वर्ष 2010 में प्रति व्यक्ति आय 31,801 रुपये ही रही। इसे आधार बना लें तो हमारी अर्थव्यवस्था का 2009-10 में कुल आकार 45-46 लाख करोड़ रुपये तक सिमट जाता है। नए आंकड़ों के साथ भी ऐसा ही है। मुद्रास्फीति के अनुसार यह 50-52 लाख करोड़ से ज्यादा नहीं होगा। अगर महंगाई यों ही बढ़ती रही तो तस्वीर क्या होगी, इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। महंगाई का राक्षस 90 प्रतिशत लोगों की आर्थिक शक्ति को झकझोर चुका है। उनके लिए औसत आय या निर्यात आदि बढ़ने का आंकड़ा तो जले पर नमक छिड़कने जैसा है। विकास का ढोल पीटते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि अब भी सबसे ज्यादा लोगों के जीवनयापन का आधार खेती ही है और इसकी हालत चिंताजनक है। विकास दर में वृद्धि का आधार केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने कृषि विकास दर में 5.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी माना है। रिजर्व बैंक ने भी कृषि में 4.8 प्रतिशत वृद्धि दर का अनुमान लगाया है। अगर ऐसा हो जाए तो बहुत अच्छा, लेकिन कृषि विकास दर 2009-10 में 0.4 प्रतिशत रही। बड़े क्षेत्र में खरीफ के समय सूखे को देखते हुए इन आंकड़ों पर विश्वास करना कठिन है। विदेश व्यापार के मोर्चे पर भी कहा जा रहा है कि निर्यात 200 अरब डॉलर के लक्ष्य को पार कर 220 अरब तक पहुंच जाएगा। विदेश व्यापार में संतुलन केवल निर्यात बढ़ने से कायम नहीं हो सकता। आयात घटे या निर्यात, इससे अधिक हो तभी विदेश व्यापार मुनाफे में आ सकता है। जिस दिसंबर में निर्यात बढ़ने की बात है, उसमें आयात भी 11.1 प्रतिशत बढ़कर 25.13 अरब डॉलर हो गया। इस प्रकार एक महीने का घाटा 2.6 अरब डॉलर यानी करीब 11 हजार 700 करोड़ रुपये है। नौ महीने यानी अप्रैल से दिसंबर के बीच निर्यात 29.5 प्रतिशत बढ़कर 164.7 अरब डॉलर हुआ, लेकिन आयात 246 अरब 31 करोड़ 50 लाख डॉलर हुआ। इस प्रकार आयात में 19.01 प्रतिशत की वृद्धि हुई और व्यापार घाटा 82 अरब डॉलर है। निर्यात आंकड़ा 220 अरब डॉलर पहुंचने के अनुमान को उत्साहजनक माना जा रहा है तो फिर आयात के 350 अरब डॉलर से ऊपर जाने को क्या कहेंगे? व्यापार सचिव राहुल खुल्लर ने कहा कि व्यापार घाटा करीब 6 लाख 7 हजार 500 करोड़ हो जाएगा। इसकी भरपाई कैसे होगी? वास्तव में देश के खजाने पर दबाव बढ़ता जा रहा है। छह माह में सरकारी खजाने से केवल तेल कंपनियों के घाटे की भरपाई के लिए पहले 13,000 करोड़ और अब 8,000 करोड़ रुपये दिए गए हैं। यह राशि छह महीने की है। एक वर्ष में इसे दोगुना माना जाए तो 40-45 हजार करोड़ रुपये से अधिक तो तेल कंपनियों को ही चले जाएंगे। तेल के मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ रहे हैं। तेल कंपनियां पिछले मूल्य के अनुसार 73 हजार करोड़ रुपये का घाटा बता रही हैं। इसके अनुसार खुदरा मूल्य के डीजल पर 9.23 रुपये और केरोसिन तेल पर 21.60 रुपये लीटर का नुकसान हो रहा है। घरेलू रसोई गैस सिलेंडर 356.07 रुपये प्रति सिलेंडर के नुकसान पर बिक रहा है। सरकार इन आंकड़ों को स्वीकार कर रही है और इनकी भरपाई करनी होगी। क्या व्यापार घाटा, तेल कंपनियों की भरपाई एवं महंगाई दर से भारतीय खजाने की हालत और बुरी नहीं होगी? खजाने की कमजोरी का असर योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए धन की कमी के रूप में सामने आता है। पंचवर्षीय योजना देश के ठोस विकास से सीधे जुड़ी है, इससे तो कोई इनकार नहीं कर सकता। 11वीं याोजना में 14, 31, 711 करोड़ रुपये के निवेश का लक्ष्य था। यह तभी हो सकता है, जब आगामी बजट में इसके लिए बजटीय समर्थन 42 प्रतिशत बढ़ाया जाए। यह संभव नहीं है। राज्य योजनाओं के लिए केंद्रीय सहायता पहले ही बढ़ाई जा चुकी है और राजकोषीय घाटा इसकी अनुमति नहीं देता। तो फिर इन आंकड़ों को लेकर हम क्या करेंगे। जाहिर है, देश की आर्थिक हकीकत वह नहीं है, जो आंकड़े बता रहे हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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