Saturday, February 26, 2011

| पुरानी पटरी पर रेल


ममता बनर्जी के रेल बजट में कुछ भी नया-अनोखा नहीं देख रहे हैं लेखक
एक बार फिर रेल मंत्री ममता बनर्जी ने तमाम अटकलबाजियों को धता बताते हुए बिना मुसाफिरों पर बोझ बढ़ाए रेल बजट पेश किया। इसके लिए वास्तव में ममता बनर्जी प्रशंसा की हकदार हैं-वह भी तब जब छठे वेतन आयोग की वजह से रेलवे पर कुल 76 हजार करोड़ रुपये का बोझ आ गया है। इस वित्तीय वर्ष के लिए रेलवे की वार्षिक योजना 57,630 करोड़ रुपये की है। देश भर में कई कोच फैक्टि्रयां स्थापित करने का भी एलान किया गया है। नई रेल लाइन के लिए भी भी लगभग 10 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इन तमाम खर्च और योजनाओं के बावजूद ममता बनर्जी का अनुमान है कि इस साल रेलवे को एक लाख करोड़ से ज्यादा की कमाई होगी। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर रेलवे को कहां से मुनाफा होगा? न तो माल भाड़ा में इजाफा और न ही यात्री किराए में बढ़ोतरी, ऊपर से ऑनलाइन एसी बुकिंग में भी 10 फीसदी और और सामान्य सीट की बुकिंग में 5 फीसदी की छूट दी गई है। ममता की ममता पूरी तरह से पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर है। अब इस लोकलुभावन रेल बजट को सियासी फायदे से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता है और इसमें सरकार के लिए भी एक सबक है कि आखिर आम आदमी का दायरा क्या हो? देखा जाए तो पिछले आठ सालों से रेलगाड़ी के किराए में किसी तरह की वृद्धि नहीं की गई है। हर बार आम आदमी का हवाला दिया जाता है, लेकिन आम आदमी की सीमा साधारण किराए तक ही होनी चाहिए, न कि एसी और सुपर एसी श्रेणी के लिए। अमीर तबके को लाभान्वित कर सरकारी बोझ बढ़ाने का क्या औचित्य है? एसी किराए में वृद्धि कर उनकी सुरक्षा और खान-पान को बेहतर बनाकर भी भरोसा जीता जा सकता था। रेल मंत्री की राजनीतिक कद बढ़ाने की ख्वाहिश और पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की तर्ज पर चलने की तमन्ना सरकार को घाटे में ला सकती है। वैसे भी यह समझना कठिन है कि जो रेल आजादी के दौरान से ही घाटे में रही है वह अचानक बिना किसी विशेष उपलब्धि के मुनाफे में कैसे आ गई? लाजिमी तौर पर जिस तरह से ममता बनर्जी पूर्व रेल मंत्री के कार्यकाल पर श्वेत पत्र लाने पर आमादा थीं, आज उन्हें भी इस सच्चाई से गुजरना पड़ सकता है। बजट के दौरान भारी शोर-शराबे के बीच रेल मंत्री ममता बनर्जी ने इसे गरीबों का बजट बताया, लेकिन बजट में आधारभूत संरचना, साफ-सफाई, सहूलियतों को बढ़ाने पर बल नहीं दिया गया है। कहने के लिए कहा जा सकता है कि हम सभी स्टेशनों का नवीनीकरण कर रहे हैं, लेकिन सच यही है कि नवीनीकरण के पुराने वायदे अभी भी अधूरे हैं। तमाम रेल फैक्टि्रयों को स्थापित करने का काम अभी अधर में है। कई जगहों पर तो अब तक टेंडर भी जारी नहीं हुए हैं, लेकिन अभी कई और योजनाओं की घोषणा कर दी गई है। ममता बनर्जी की चिंता भी राजस्व को इकट्ठा करने पर नहीं है। हर साल की तरह ही इस साल भी फ्रेट ट्रेड को बढ़ाए जाने पर बल दिया गया है, परंतु क्या वास्तव में तीस साल पुरानी पटरियां इसके लायक हैं? लाजिमी तौर पर नहीं। बढ़ते ट्रैफिक पर भी ध्यान नहीं दिया गया है। वैसे भी आप देखें तो जिस रूट पर पिछले कुछ सालों में ज्यादा ट्रेनें बढ़ाई गई हैं वह दिल्ली-यूपी-बिहार-बंगाल रूट ही है। इस रूट में आज दर्जनों गाडि़यां रोजाना घंटों लेट चल रही हैं। इसका खामियाजा रेल हादसों के रूप में भी सामने आता है। वैसे रेल मंत्री ने यह कहकर पर्दा डालने की कोशिश की है कि पिछले साल की तुलना में कम रेल हादसे हुए। पिछले साल की तुलना में रेल हादसे 0.29 फीसदी से घटकर 0.17 फीसदी पर पहुंच गए हैं। जब आप विश्वस्तरीय स्टेशन और रेल सुविधा बनाने की बात करते हैं तो आपको दूसरे देशों के कमतर रेल हादसे से तुलना करनी चाहिए। साल 2010 में अमेरिका में जहां ट्रेन हादसों की तादाद दहाई में ही रही वहीं भारत में हादसे की तादाद इससे कई गुना ज्यादा है। इसके अलावा पिछले कुछ सालों में रेलवे में डकैती, नशाखोरी और झपटमारी की घटनाएं बढ़ी हैं। एक भयावह सच यह भी है कि रेलवे पर नक्सलियों की नजर भी पैनी हुई है। विगत सालों में इस तरह के कुछ मामले सामने आए हैं। ऐसे में रेलवे के जरिए माल ढुलाई से लोगों का विश्वास घटा है, लेकिन ममता बनर्जी ने नक्सल इलाकों में कई ट्रेनों की घोषणा कर दी है। कुछ नक्सल प्रभावित इलाकों में फैक्ट्री लगाने का भी एलान किया है। सवाल यह है कि बिना सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद किए उन इलाकों में ट्रेन देने का क्या औचित्य है? ऐसे में यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता है कि कानून एवं व्यवस्था राज्य के जिम्मे है और बेहतर व्यवस्था रखने वाले को दो ट्रेनें इनाम के तौर पर दी जाएगी। दरअसल हमारी मानसिकता यह होनी चाहिए कि रेलवे देश की आर्थिक तरक्की को बढ़ाए, न कि इसमें चूना लगाए। नक्सल प्रभावित इलाकों को नक्सल मुक्त या यह कहें कि आम लोगों के मुफीद बनाए बिना करोड़ों का खर्च समझदारी नहीं है। जहां तक रेलवे सुरक्षा का प्रश्न है तो इस तरफ भी ध्यान नहीं दिया गया। आरपीएफ में 17 हजार नई नौकरियों की घोषणा से कोई विशेष बदलाव नहीं होने वाला है। दरअसल, भारतीय रेल को अति आधुनिक बनाए जाने की जरूरत है। सुरक्षा के दृष्टिकोण से स्टेशन को नई तकनीकों से लैस किया जाना चाहिए। विश्वस्तरीय स्टेशन की बात तो की गई है, लेकिन उसका ढांचा और योजना के प्रारूप पर प्रकाश नहीं डाला गया। क्षमता उपलब्ध करने का हमारे पास विकल्प सीमित है और हम वसूली पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। निजीकरण के तमाम आरोपों को बजट नकारता है, लेकिन दरवाजा उसी ओर खुलता है। पहले से ही रेलवे में कॉल सेंटर की व्यवस्था है और इसका सीधा संपर्क होटलों एवं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से होता है। अब काफी लंबी दूरी के लिए स्मार्ट कार्ड, एकीकृत रेलवे नेटवर्क और फ्री बॉन्ड्स बेचने की बात भी हुई है। रेल मंत्री यह भी मानती हैं कि 80 फीसदी निजी निवेश का प्रस्ताव आया था। रेल आधारित उद्योग की बात भी स्वीकारी गई। कई ऐसी योजनाएं हैं जिन पर खर्च की योजना इस ओर इशारा करती है कि रेलवे को निजीकरण की ओर धकेल जा रहा है। लोगों की नजर में रेल मंत्री ने भले ही शाबासी पाने वाला बजट पेश किया है, लेकिन रेलवे के आधारभूत ढांचे को मजबूत करने पर बल नहीं दिया गया। जिस तरह लालू प्रसाद यादव ने बिहार के लिए रेलगाडि़यों की झड़ी लगाई उसी तरह बंगाल में ममता की रेल दौड़ेगी, लेकिन भगवान भरोसे। (लेखक रेलवे बोर्ड के पूर्व चेयरमैन हैं)

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