Sunday, January 16, 2011

अब तो दाम बांधना ही होगा

आज लोहिया की दाम नीति और आर्थिक नीति प्रासंगिक है क्योंकि 1989-90 के बाद से जिस तरह से हम बाजारवादी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़े हैं, उसमें महंगाई और दामों की लूट का हिसाब रखना तक मुश्किल हो गया है। अगर लोहिया के रास्ते पर चला जाए तो योजना आयोग से लेकर कृषि और वित्त मंत्रालय तक फैली धुंध, दिशाहीनता और गैर जिम्मेदारी से देश को छुटकारा मिल जाए
महंगाई किसी भी अर्थव्यवस्था की एक महत्वपूर्ण चुनौती हुआ करती है। सामान्य तौर पर इसे हम मांग और आपूर्ति के समीकरण से समझते हैं। जो चीज महंगी हो रही है, उसकी मांग बढ़ गई है और उपलब्धता घट गई है या फिर उसकी उत्पादकता घट गई है, लेकिन जरूरत जस की तस बनी हुई है। इसीलिए समाज की सरकार और व्यापारी, जो महंगाई के अर्थशास्त्र के प्रमुख स्तंभ होते हैं, से अपेक्षा रहती है कि वह महंगाई को बराबर काबू में रखें। सरकार से यह आशा की जाती है कि जरूरत की चीजों का वह सुरक्षित भंडारण करे ताकि प्राकृतिक या मानवीय कारणों से जब वह वस्तु जरूरत से कम पैदा हो तो उसे सरकार आरक्षित भंडार से निकाल नियंत्रित दामों पर उपलब्ध करवाए। दूसरी तरफ व्यापारियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह मर्यादित मुनाफा के लिए तो हमेशा अपना अधिकार जताएं, लेकिन जब कभी प्राकृतिक या मानवीय कारणों से किसी चीज की मांग बढ़ जाए और उसकी आपूर्ति में समस्या हो तो वह अंधाधुंध मुनाफा न कमाए तथा चोर बाजार में चीजों को न बेचें। सरकार की जिम्मेदारी और व्यापारी की नैतिकता इन दो चीजों को हम समाज में महंगाई के खिलाफ ढाल मानते हैं। जब कभी महंगाई बढ़ती है तो यह आशंका होती है कि शायद सरकार चला रहे लोगों ने मुनाफ़ाखोरों से मिलकर यह साजिश की है। उसे आम लोगों की तकलीफों का कोई ख्याल नहीं है। चुनावी चंदे से लेकर पार्टी की मदद तक के लिए ये नेता व्यापारियों को मनमानी की छूट दे रहे हैं। दूसरी तरफ व्यापारियों के आचरण पर हमेशा समाज में शंका का भाव रहता है कि इनका मूल धन मुनाफ़ा है और जरूरत पड़ेगी तो वे अपनी मां के कफन तक को चोर बाजार में बेचकर मुनाफा कमाने से परहेज नहीं करेंगे। डा. राममनोहर लोहिया एक असाधारण अर्थशास्त्री और समाजवादी जननेता थे। उन्होंने देखा था कि किस तरह सरकार की लापरवाही और मुनाफ़ाखोरों की मनमानी के कारण बंगाल का जनजीवन द्वितीय वियुद्ध के दौरान, एक कृत्रिम अकाल की चपेट में आया और लाखों लोग भूख और कुपोषण के शिकार होकर अकाल मृत्यु के गाल में चले गए। इसीलिए उन्होंने आजादी के बाद महंगाई के सवाल के स्थाई समाधान हेतु दाम नीति की जरूरत पर बल दिया था। लोहिया की दाम नीति के दो पहलू हैं। पहला, वस्तुओं के दाम के उतार-चढ़ाव को लेकर है। उन्होंने कहा था कि दो फसलों के बीच किसी भी कृषि आधारित वस्तु का दाम 15-16 प्रतिशत से ज्यादा नहीं बढ़ने देना चाहिए। दूसरा, खेती और औद्योगिक उत्पादों के बीच दाम का संतुलन होना चाहिए। पहली नीति इस बात से जुड़ी है कि जब किसान की मेहनत से तैयार फसल बाजार में आती है, तब हमारे व्यापारी बहुत सस्ते में उसे खरीदते हैं। कुछ ही महीनों बाद भंडारण के जरिए जब उस वस्तु की उपलब्धता कम हो जाती है तो उसे मनमाने दाम पर बेचते हैं। लोहिया चाहते थे कि हम गेहूं, धान, प्याज, टमाटर, दूध आदि के दाम में उतार-चढ़ाव के लिए तो तैयार रहें लेकिन फसल के समय में पांच Rs खरीदी जानेवाली प्याज फसल के बाद के समय में Rs 100 किलो बेचा जाना तो सामाजिक अपराध और आर्थिक अराजकता है। दूसरी तरफ, लोहिया यह भी चाहते थे कि जो उत्पादक हैं उसे लागत के अनुपात में भरपूर दाम मिले। इसलिए वे लागत की ड्योढ़ी तक दाम को ले जाने का समर्थन करते थे क्योंकि अगर किसानों को फायदा नहीं मिला तो उन्हें अपनी आर्थिक अवस्था से बराबर असंतोष रहेगा और किसान का बच्चे फिर कभी किसान बनना नहीं चाहेंगे। खेती-किसानी को मुनाफे का धंधा जरूर बनाना चाहिए लेकिन आज की स्थिति में किसानी तो घाटे का धंधा है लेकिन किसान की पैदा चीजों का व्यापार करना बड़े मुनाफे का धंधा बन गया है। इसीलिए एक तरफ तो किसान का बेटा किसान नहीं बनना चाहता। दूसरी तरफ, देश के बड़े व्यापारिक घराने किसानों की चीजों को बेचने के लिए देश के खुदरा व्यापार में हस्तक्षेप करना चाहते हैं। अपने देश ही नहीं बल्कि अमेरिका-यूरोप के बड़े-बड़े व्यावसायिक घराने भी भारत में कृषि उत्पादन के खुदरा व्यापार में उतरने को लालायित हैं। लोहिया की दाम नीति का दूसरा पहलू खेती का दाम सस्ता और कारखाने की चीजों के दाम महंगा होने के पूंजीवादी सच से जुड़ा हुआ है। पूंजीवादी व्यवस्था का जो औद्योगिक आधार है, उसमें ज्यादा से ज्यादा श्रम शक्ति और ज्यादा से ज्यादा पूंजी, खेती और कुटीर उद्योगों से बड़े उद्योगों की तरफ खींचने का निहित स्वार्थ है। लोहिया इस साम्राज्यवादी और पूंजीवादी दाम नीति के खिलाफ थे। वे खेती और उद्योग, गांव और शहर, किसान और उद्योगपति के बीच एक आर्थिक संतुलन का स्वस्थ संबंध चाहते थे। उनका यह मानना था कि खेती में जितना श्रम लगे और उद्योग में जितना श्रम लगे हमें उसका ध्यान रखना चाहिए। यह मानी बात है कि खेती श्रम प्रधान है और उद्योग टेक्नोलॉजी और पूंजी प्रधान है लेकिन देखने में आता है कि खेती में अगर लागत का दोगुना मुनाफा मिल जाए तो बड़ी बात मानी जाती है। उद्योगों में जो चीज पैदा होती है उसके मुनाफे की तो कोई सीमा ही नहीं है। चाहे वह रोजमर्रा की जरूरत की चीज ही क्यों न हो। इसमें शतप्रतिशत मुनाफा तो आम बात है और कहीं कहीं तो चार से पांच हजार प्रतिशत मुनाफे की भी संभावना रहती है। जैसे कम्प्यूटर साफ्टवेयर उद्योग, टेलीकॉम उद्योग इसमें तो कोई भी दाम नीति चलने ही नहीं दी जाती है। इससे पूरी अर्थव्यवस्था में एकतरफा पूंजी प्रवाह हो जाता है। इस एकतरफापन को भी राममनोहर लोहिया दूर करना चाहते थे। इसी दाम नीति की एक दूसरी तस्वीर उन्होंने खर्च की सीमा बांधो की नीति के जरिये पेश करने की कोशिश की थी। उनका यह मानना था कि समाज में आमदनी की गैरबराबरी के कारण खपत और भोग की भी गैरबराबरी होती है। इसे रोकने के लिए यह जरूरी है कि हम विलासिता का जीवन को भी रोके। इसलिए संपन्न वर्ग की पूंजी को उसके पास रखते हुए बजाए विलास के विकास में लगाने के लिए उन्हें प्रेरित करें तथा लोगों को भोगवाद की तरफ बढ़ने से रोकें। आज लोहिया की दाम नीति और आर्थिक नीति का स्मरण प्रासंगिक है क्योंकि 1989-90 के बाद से जिस तरह से हम बाजारवादी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़े हैं, उसमें महंगाई और दामों की लूट का हिसाब रखना तक मुश्किल हो गया है। पिछले बीस वर्ष में मुझे ऐसा एक भी वर्ष याद नहीं है जब मुनाफ़ाखोरों और सटोरियों ने अफसरों और नेताओं के साथ मिलकर किसी न किसी बहाने से दामों की लूट न मचाई हो। इसे रोकने के लिए एक नई दाम नीति की जरूरत है और इन मसलों के समाधान के लिए लोहिया जैसे जनहितकारी अर्थशास्त्री के बताए गए रास्ते पर एक बार हम चल कर देखें तो शायद योजना आयोग से लेकर कृषि और वित्त मंत्रालय तक फैली धुंध, दिशाहीनता और गैर जिम्मेदारी से देश को छुटकारा मिल जाए।


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