Sunday, January 30, 2011

महंगाई पर अंकुश के अधूरे उपाय


मौद्रिक नीति के अर्थव्यवस्था और आम लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा कर रहे हैं...
25 जनवरी, 2011 को घोषित मौद्रिक नीति में रिजर्व बैंक ने महंगाई पर अंकुश लगाने और विकास दर बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। अनुमान के मुताबिक मौद्रिक नीति में रेपो दर और रिवर्स रेपो दर में 25 बेसिस अंको की वृद्धि की गई है। अब ये दरें बढ़कर क्रमश: 6.50 प्रतिशत और 7 प्रतिशत पर पहुंच गई हैं। इन दरों में वृद्धि का स्पष्ट संदेश बैंकों के लिए है कि वे कर्ज देने की गति में कमी लाएं। इसके माध्यम से रिजर्व बैंक ने अर्थव्यवस्था को ओवर हीटिंग से बचाने का प्रयास किया है। मौद्रिक नीति में नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) में 6 प्रतिशत की दर बरकरार रखी गई है। इसी क्रम में सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) में 28 जनवरी, 2011 तक दी जाने वाली एक प्रतिशत की छूट को 8 अप्रैल, 2011 तक बढ़ा दिया गया है। इसका स्पष्ट संदेश यही है कि बैंकों को अपना जमा संग्रहण बढ़ाकर ऋण बढ़ाना है। जहां तक विकास दर का प्रश्न है, रिजर्व बैंक पूरी तरह आशावान है। रिजर्व बैंक ने मार्च 2011 में विकास दर 8.5 प्रतिशत पर रहने का अनुमान लगाया है। जबकि अगले वर्ष मार्च 2012 में इसके 8 प्रतिशत पर आ जाने की संभावना व्यक्त की गई है। आजकल रिजर्व बैंक तरलता बनाए रखने के लिए बैंकों को करीब एक लाख करोड़ रुपये प्रतिदिन उधार दे रहा है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार इस समय बैंकों में जमा राशि पचास हजार लाख करोड़ रुपये से कम है, जो सुविधाजनक स्थिति नहीं कही जा सकती। ऋणों के विस्तार में 2009-10 की तीसरी तिमाही में देखी गई वृद्धि वर्ष 2010-11 की अवधि में गायब हो गई। आज रिजर्व बैंक के सामने सबसे बड़ी चुनौती मुद्रास्फीति को काबू में रखना है। परंतु रिजर्व बैंक ने मार्च 2011 के लिए मुद्रास्फीति के निर्धारित लक्ष्य 5.5 प्रतिशत को बढ़ाकर 7 प्रतिशत कर दिया है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि महंगाई के सामने रिजर्व बैंक ने भी घुटने टेक दिए हैं। रिजर्व बैंक ने यह संकेत भी दिया है कि यदि मुद्रास्फीति वृद्धि जारी रहती है तो ब्याज दरों में भविष्य में वृद्धि की जा सकती है। 17 मार्च, 2011 को मौद्रिक नीति की पुन: समीक्षा की जाएगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक के पास मुद्रास्फीति कम करने के उपाय सीमित हैं। आंकड़ों के अनुसार दिसंबर 2010 में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति 8.43 प्रतिशत थी जबकि इससे पहले अक्टूबर माह में यह 9.12 फीसदी थी। बढ़ती मुद्रास्फीति को देखते हुए कर्ज को महंगा करने के अलावा रिजर्व बैंक के पास कोई अन्य विकल्प नहीं था। इस कदम से अगले तीन-चार सप्ताह तक बैंकों द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि करने की संभावना कम ही नजर आती है, परंतु आगे चलकर ब्याज दरों में वृद्धि की पूरी संभावना है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्याज दरों में वृद्धि से विकास दर पर प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है। मौद्रिक नीति में विकास दर के 8.5 प्रतिशत तक रहने की उम्मीद जताई गई है। खाद्य वस्तुओं में बढ़ती मुद्रास्फीति एक गंभीर चुनौती बन गई है। वर्ष 2005-06 से 2009-10 के बीच खाद्य वस्तुओं का औसत मूल्य सूचकांक 40.76 प्रतिशत पर पहुंच गया, जबकि इसी अवधि में सभी वस्तुओं का औसत सूचकंाक 24.14 प्रतिशत ही रहा। खाद्यान्न, तिलहन, कपास, गन्ना, आलू, प्याज और दूध का उत्पादन 2004-05 से 2009-10 के बीच बढ़ा है। अब प्रश्न यह उठता है कि उत्पादन बढ़ने के बावजूद खाद्यान्न एवं सब्जियों की कीमतों में इतनी वृद्धि क्यों हुई है? इसका उत्तर बढ़ती विकास दर, ग्रामीण इलाकों में बढ़ती आमदनी और उसके फलस्वरूप बढ़ती क्रयशक्ति है। चूंकि क्रयशक्ति बढ़ी है तो मांग भी बढ़ी है, इसलिए मूल्यों में उतार-चढ़ाव अधिक हो रहा है। 2004-05 में प्याज का उत्पादन 59 लाख टन था जो 2009-10 में बढ़कर एक करोड़ टन से अधिक हो गया है। वर्ष 2010-11 में मौसम प्रतिकूल होने के कारण प्याज उत्पादन में कमी आई है। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि उत्पादन में 10 प्रतिशत की कमी होती है तो महंगाई दोगुना बढ़ जाती है। प्याज की कीमतें इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। जहां बढ़ती जनसंख्या के लिए उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता है, वहीं बढ़ती आमदनी यानी बढ़ती क्रयशक्ति के लिए भी उत्पादन और उत्पादकता का बढ़ना आवश्यक है। इसलिए भारत सरकार और सभी राज्य सरकारों को मिल कर कृषकों को प्रोत्साहित करना होगा, जिससे वे उत्पादन में लगातार वृद्धि करते रहें। आज 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, जिसे रोकना केंद्र व राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। समय आ गया है जब मौद्रिक नीति के साथ-साथ भारतीय रिजर्व बैंक को केंद्र सरकार से कृषि एवं निर्माण क्षेत्रों में उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने की नीति भी प्रस्तुत करने के लिए कहा जाना चाहिए। इसमें सभी राज्य सरकारों की समीक्षा अ‌र्द्धवार्षिक स्तर पर की जानी चाहिए। (लेखक बैंक के पूर्व अधिकारी हैं)



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