Friday, January 7, 2011

खाद्यान्न के मोरचे पर

शताब्दी का पहला दशक खाद्यान्न व बुनियादी चीजों के अभाव में बीता
आम आदमी आज अन्न संकट के दौर से गुजर रहा है। उसे इन सरकारी आश्वासनों पर भरोसा नहीं है कि नए साल में मार्च आते-आते खाद्यान्न मुद्रास्फीति घट जाएगी। यह मिथक भी टूट चुका है कि अधिक अन्न के उत्पादन से खाद्य सामग्री सस्ती होगी। दरअसल अब मंडियों में फसल आने और बाजार में मूल्य गिरने का संबंध रहा ही नहीं है। इस शताब्दी का पहला दशक खाद्यान्न और प्राथमिक वस्तुओं की मूल्यवृद्धि और अभावों के बीच बीता। खाद्यान्नों की स्थायी आपूर्ति व्यवस्था के बिना प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम भी अपने उद्देश्यों की पूर्ति में विफल रहेगा। इसलिए पूरे देश के लिए एकीकृत खाद्यान्न बजट की आवश्यकता पर गंभीरता से विचार करना होगा
इस एकीकृत खाद्यान्न बजट की अवधारणा में दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा और मूल्य स्थिरता समाहित है, जिनके प्रति जनसाधारण सदैव आशंकित रहता है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, म्यांमार जैसे खाद्यान्न बजट बनाने वाले देश गेहूं, चावल, दाल, चीनी आदि खाद्य वस्तुओं की खपत और मांग के अंतर पर नजर रखते हैं और उसी के अनुरूप अपने उत्पादन लक्ष्य तय करते हैं। लेकिन अपने देश में केंद्र व राज्य सरकारें सूखे व महंगाई की आशंका के अंधेरे में काली बिल्ली ढूंढती रहती हैं।
पांच करोड़ टन का सरकारी अनाज भंडार न तो गेहूं की कीमतों पर अंकुश रख सका और न ही चावल की बढ़ती हुई कीमतों को अपने पूर्व स्तर पर ला सका। देश में करीब दो करोड़ टन चावल का उत्पादन होता है, जबकि मांग 2.5 करोड़ टन की है। दाल और रोटी का रिश्ता इस हद तक टूट चुका है कि दाल की खपत 1960 के दशक के प्रति व्यक्ति 29 किलोग्राम सालाना के मुकाबले घटकर जनवरी-जून 2010 में 10 किलोग्राम रह गई है। जमाखोरी के कारण चीनी का मूल्य 30-35 रुपये प्रति किलो को भी लांघ गया, जबकि इस साल इसका उत्पादन 225 लाख टन खपत के मुकाबले 250 लाख टन हुआ और 40 लाख टन पहले से बची थी।
एकीकृत खाद्यान्न बजट इसलिए भी जरूरी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा मिशन और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करने के सरकारी प्रयोग विफल रहे हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार ने इसे इतना पंगु बना दिया है कि पिछले तीन वर्षों में कुल 15 प्रतिशत राशन दुकानों के लाइसेंस रद्द किए गए और चौदह हजार लोग गिरफ्तार हुए। वैसे यह प्रणाली पूरे देश में समान रूप से उपलब्ध भी नहीं है। पूर्वोत्तर राज्यों में तो यह अस्तित्व में ही नहीं है।
एकीकृत खाद्यान्न बजट योजना के मुख्यत: तीन चरण होंगे। पहले चरण में जिला स्तर पर जरूरी खाद्यान्न पदार्थों की मांग और आपूर्ति का बजट बनाया जाए। इस प्रकार देश के 600 से अधिक जिलों के खाद्यान्न बजट के आधार पर केंद्र पूरे देश के लिए विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन और उपलब्धता का आकलन करे। यदि मौसम की मार के कारण आपूर्ति और मांग का अंतर बढ़ता है, तो उसके अनुसार अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें बढ़ जाती हैं। इसलिए एकीकृत बजट की अवधारणा के तहत निजी, सार्वजनिक और सहकारिता क्षेत्रों द्वारा किए जा रहे आयात को एक ही एजेंसी के तहत विनियिमित करना होगा, ताकि समय पर मांग और आपूर्ति के अंतर को पाटा जा सके ।
दूसरे चरण में विभिन्न खाद्यान्न पदार्थों की मांग और आपूर्ति की पृष्ठभूमि में गेहूं, चावल, दालों इत्यादि की वसूली के लिए लाभकारी समर्थन मूल्य और बोनस इत्यादि की सरकारी घोषणाओं को बुआईसे पहले अंजाम देना होगा। तीसरे और अंतिम चरण में हमें समय-समय पर बफर स्टॉक कायम करने की योजना को मूर्त रूप देना होगा। वैश्विक आर्थिक रूझानों व शोध से जुड़ी संस्थान नोमूरा ग्लोबल इकोनॉमिकके अनुसार, जिन खाद्य जिंसों का बफर स्टॉक नहीं रखा जाता, उनकी जमाखोरी होने लगती है। जन प्रतिनिधियों को देश की खाद्यान्न सुरक्षा के तहत किए जा रहे इस मॉडल से परिचित कराने के लिए इस एकीकृत खाद्य बजट को संसद में प्रस्तुत करना होगा।
खाद्यान्न बजट बनाते समय मूल्य सूचकांक को जन साधारण के उपयोगी ढांचे को भी परिलक्षित करना होगा। यह समझ से परे है कि जब सरकारी मुद्रास्फीति नौ प्रतिशत से ऊपर है और खाद्य मुद्रास्फीति 14.44 प्रतिशत, तो मुद्रास्फीति की परस्पर विरोधी प्रकृति किस प्रकार तालमेल बैठा सकेगी।
एकीकृत बजट के सभी आधार-स्तंभ तभी मजबूत होंगे, जब वस्तुओं के चयन में आम उपभोक्ता के उपयोग की वस्तुओं की आवश्यकता के आधार पर भार तय किया जाए। नीति निर्धारकों को मूल्य सूचकांक के आधार में परिवर्तन करना होगा। दो-तीन उपभोक्ता वस्तुओं के सूचकांकों के बजाय एक ही मूल्य सूचकांक निर्धारित करना होगा।
इसके साथ ही खाद्यान्न के वायदा बाजार पर रोक लगाना होगा। अध्ययनों से यह निष्कर्ष उभरकर आया है कि देश में जब से कृषि जिंसों की कमोडिटी एक्सचेंज द्वारा वायदा कारोबार शुरू किया गया, तभी से खाद्यान्नों की कीमतों में बढ़ोतरी होती गई।
अभिजीत सेन समिति की सिफारिश के अनुसार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में खाद्यान्नों, दालों, चीनी इत्यादि की उपलब्धता के लिए विभिन्न वस्तुओं के भंडारण व आयात का पूर्व अनुमान लगाना जरूरी होगा।
बहरहाल, एकीकृत खाद्यान्न बजट की अवधारणा पर खुली बहस के साथ-साथ उसकी संभावनाओं पर गंभीरता से विचार करना होगा। लेकिन भय है कि बिचौलियों और वितरण प्रणाली के भ्रष्ट अधिकारियों, दलालों या व्यापारियों के अनावश्यक दखल के कारण नई व्यवस्था अपेक्षित लक्ष्य हासिल नहीं कर सकेगी। 

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