अगर हम अपने नौ फीसदी विकास दर को दुनिया को बताने और इठलाने लायक समझते हैं, तो 18 प्रतिशत से ऊपर पहुंची खाद्य पदार्थों की महंगाई को क्या मानें, यह सहज समझा जा सकता है। थोक मूल्य सूचकांक में अगर 18.32 फीसदी की वृद्धि है, तो खुदरा मूल्यों का हाल भी किसी से छिपा नहीं है। और सामान्य किस्म की मुद्रास्फीति में संभव है कि कुछ चीजें गरीबों के इस्तेमाल की न हों-खाद्य पदार्थों के साथ तो उलटी ही स्थिति है, क्योंकि गरीब के बजट का सबसे बड़ा हिस्सा खाने-पीने की चीजों पर ही खर्च होता है। जैसे-जैसे आप आमदनी के पैमाने पर ऊपर जाएंगे, खाद्य पदार्थों पर होनेवाला खर्च कुल खर्च के अनुपात में कम होता जाएगा। लेकिन गरीब आदमी तो अपनी आमदनी मुख्यत: अनाज-दाल-सब्जी पर ही खर्च करता है। इसलिए इस बार दिखने वाली सारी तेजी गरीबों के सिर है और इसे मात्र प्याज की कमी या उसकी कीमतों में वृद्धि से नहीं जोड़ सकते, क्योंकि 60 या 70 रुपये ही नहीं, गरीब के लिए तो 20-25 रुपये किलो का प्याज खाना भी संभव नहीं होता। फिर जब कीमत बढ़े और पैदावार कम या बरबाद होती दिखे, तो खपत वैसे ही कम हो जाती है। इसलिए सारा दोष प्याज और उसकी कमी कराने वाली बेमौसम बरसात के मत्थे मढ़ने से काम नहीं चलेगा। सब्जियों की कुल महंगाई 58.85 फीसदी बढ़ने की बात सरकारी आंकड़ा ही बताता है। दूध के दाम लगभग 20 फीसदी बढ़े हैं, मांस-मछली-अंडों की कीमत भी 20 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है। फल भी इतने ही महंगे हुए हैं। अनाज ने जरूर थोड़ी राहत दी है, वरना गरीब का निवाला छिन जाने में भी ज्यादा वक्त नहीं रह गया है। ऐसा नहीं है कि सरकार और शासन में बैठे लोगों को ये बातें मालूम नहीं। पर या तो उनके हाथ बंधे हैं या महंगाई के साथ उनका न्यस्त स्वार्थ जुड़ गया है। ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि उदारीकरण के दौर में सरकार ने मुनाफाखोरी-जमाखोरी और एकाधिकार के जरिये बाजार को लूटने पर रोक लगाने संबंधी कानूनों को तिलांजलि दे दी। एक तो कानूनी उपचार नहीं है और उससे भी बढ़कर कुछ करने की इच्छाशक्ति का अभाव साफ दिखता है। सो कभी मामले को राज्यों के माथे टाल दिया जाता है, तो कभी दिखावटी कार्रवाई होती है, तो कभी किसी चीज की वास्तविक कमी और तंगी को कारण बताकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का कर्मकांड पूरा कर लिया जाता है। महंगाई की मार जो झेलता है, वही इसके दर्द को जानता है, लेकिन इसमें एकमात्र अच्छी चीज है कि आज हर नागरिक के पास वोट की शक्ति है और सरकार में बैठे लोग भी इसे बखूबी जानते हैं। बेहतर हो कि वे समय रहते अपना काम करें और महंगाई पर अंकुश लगाएं, वरना महंगाई की अंतिम चोट आखिरकार उन्हें ही झेलनी पड़ेगी।
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