लेखक केंद्र को खाद्य पदार्थो की बढ़ती मूल्यवृद्धि के बुनियादी कारणों की पहचान में असफल पा रहे हैं…..
संप्रग सरकार ने अपनी दूसरी पारी शुरू करते समय आम आदमी की परेशानियों को दूर करने का जोर-शोर से वायदा किया था, लेकिन उसके सत्ता में आने के साथ ही महंगाई का जो सिलसिला कायम हुआ वह थमने का नाम नहीं ले रहा। 2008 की वैश्विक मंदी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अन्य देशों की अर्थव्यवस्था के मुकाबले सरपट भाग रही है, लेकिन सरकार खाद्य पदार्थो की मूल्यवृद्धि रोकने में न केवल नाकाम है, बल्कि विरोधाभास से ग्रस्त भी है। जहां सरकार के कुछ योजनाकार महंगाई को आम जनता की बढ़ती आमदनी और इसके चलते होने वाली खपत से जोड़ रहे हैं वहीं कुछ उसे कृत्रिम बताते हुए जमाखोरी, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा और खाद्य पदार्थो की खराब वितरण व्यवस्था जैसे कारण गिना रहे हैं। हालांकि महंगाई रोकने की जिम्मेदारी अकेले केंद्र की नहीं, लेकिन यह भी नहीं हो सकता कि वह राज्यों को नसीहत देकर कर्तव्य की इतिश्री कर ले। दुर्भाग्य से उसने एक बार फिर ऐसा ही किया। विचित्र यह रहा कि पहले तो उसके रणनीतिकारों ने दो दिन तक बैठक कर महंगाई थामने के उपाय खोजने की कोशिश की और जब असफलता हाथ लगी तो राज्यों से यह कहकर छुट्टी पा ली कि वे कृषि उपजों पर मंडी शुल्क और चुंगी समाप्त करें। लगता है कि केंद्र सरकार यह समझ नहीं पा रही कि खाद्य पदार्थो की महंगाई का कारण आपूर्ति और मांग में अंतर के साथ-साथ जमाखोरों की सक्रियता भी है। सकल घरेलू उत्पाद बढ़ते रहने के कारण आम उपभोग की किसी वस्तु के दाम बढ़ना स्वाभाविक है, क्योंकि तेज विकास के साथ मुद्रास्फीति बढ़ती है, लेकिन सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि खाद्य पदार्थो की महंगाई आम आदमी की कमर तोड़ रही है। थोड़ी बहुत महंगाई तो सहन की जा सकती है, लेकिन जब खाद्य पदार्थो की मूल्य वृद्धि 30-40 और कई बार 100 फीसदी तक हो जाए तो वह न केवल असहनीय हो जाती है, बल्कि उससे सरकार की असफलता भी उजागर हो जाती है। यह तो समझ आता है कि पिछले कुछ वर्षो में खाद्यान्न के न्यूनतम खरीद मूल्य में वृद्धि का लाभ किसानों को मिला है, लेकिन फल-सब्जियों के मामले में ऐसा नहीं कहा जा सकता। ऐसा लगता है कि उसके पास ऐसा कोई उपाय नहीं जिससे फल-सब्जियों के दाम नियंत्रित रखे जा सकें। इस संदर्भ में यह उपाय उचित तो है कि बड़े शहरों के इर्द-गिर्द सब्जी क्षेत्र विकसित किए जाएं, लेकिन अभी यह सुझाव कागजों पर ही है और कोई नहीं जानता कि उस पर हाल-फिलहाल अमल हो भी सकेगा या नहीं? केंद्रीय कृषि मंत्रालय को यह उपाय तब सूझा जब तमिलनाडु सरकार ने इस संदर्भ में एक प्रस्ताव उसके पास भेजा। इसका मतलब है कि कृषि मंत्रालय अपने स्तर पर ऐसे किसी उपाय की तलाश में नहीं था जिससे फल-सब्जियों की किल्लत दूर की जा सके। सरकार यह तो कह रही है कि इतनी अधिक खाद्य मुद्रास्फीति स्वीकार नहीं की जा सकती, लेकिन वह उसे कम करने का कोई ठोस उपाय नहीं कर पा रही है। वह महंगाई रोकने के उपायों को लेकर न केवल असमंजस में है, बल्कि कामचलाऊ उपाय खोजने तक सीमित है। मुख्य आर्थिक सलाहकार के नेतृत्व में महंगाई पर नजर रखने के लिए एक समूह गठित करने का कोई मतलब नहीं। ऐसे समूह पहले भी गठित किए जा चुके हैं। जब महंगाई बेलगाम हो जाए तब ऐसे समूह गठित करने के निर्णय सरकार की असफलता ही बयान करते हैं। क्या सरकार को यह नहीं पता कि देश की एक बड़ी आबादी दो जून की रोटी को मोहताज है। उसे यह भी पता होना चाहिए कि महंगाई पूरे देश को प्रभावित कर रही है, लेकिन वह तब चेतती है जब मीडिया में हाय-तौबा मचती है। फिर भी वह कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाती। उसे यह समझने की जरूरत है कि महंगाई तब नियंत्रित होगी जब कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार किए जाएंगे। सुधारों के लिए राज्यों का सहयोग आवश्यक है, लेकिन समस्या यह है कि केंद्र सरकार राज्यों से सहयोग की अपेक्षा करने तक सीमित है। जब तक केंद्र और राज्य मिलकर कृषि के उत्थान की दिशा में काम नहीं करेंगे तब तक खाद्य पदार्थो की किल्लत से छुटकारा मिलने वाला नहीं। भारत की आबादी एक अरब के ऊपर पहुंच गई है और अभी बहुत से नागरिक एक अदद घर से वंचित हैं। आने वाले समय में अर्थव्यवस्था के 8-9 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ते रहने का अनुमान है। इस गति को कायम रखने के लिए उद्योगों के विस्तार के साथ शहरी विकास पर ध्यान देना होगा। चूंकि तीव्र आर्थिक विकास के साथ शहरों के आस-पास की कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण होगा इसलिए यह जरूरी है कि किसान वैज्ञानिक तरीके अपनाकर कृषि उत्पादन बढ़ाएं। किसानों को बेहतर बीज और उर्वरक देने के साथ ही सिंचाई के पानी की भी व्यवस्था करनी होगी। बढ़ती महंगाई केंद्र सरकार के लिए एक राजनीतिक चुनौती भी बन गई है। विपक्षी दलों के साथ-साथ अब गठबंधन के घटक दल भी महंगाई को लेकर एक-दूसरे पर छींटाकशी कर रहे हैं। पिछले दिनों जब राहुल गांधी ने महंगाई के लिए गठबंधन राजनीति को जिम्मेदार ठहराया तो सहयोगी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने कड़ी आपत्ति की। यह मामला किसी तरह ठंडा पड़ा, लेकिन एनसीपी के साथ सरकार चला रहे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज च ाण यह कहने से नहीं चूके कि गठबंधन राजनीति निर्णय लेने में बाधक है। इस प्रकरण से कम से कम यह तो साबित हो गया कि कांग्रेस को अपने सहयोगी दलों से परेशानी है। अब यह भी स्पष्ट है कि वह बढ़ती महंगाई के लिए कहीं न कहीं कृषि और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री शरद पवार को जिम्मेदार मानती है। वैसे तो महंगाई थामने के आश्वासन प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने भी दिए, लेकिन वे खोखले साबित हुए। इस वर्ष पांच राज्यों में चुनाव होने हैं और यदि महंगाई पर लगाम नहीं लगी तो कांग्रेस के समक्ष मुश्किलें खड़ी होना तय है। उसके लिए यह आवश्यक है कि वह सहयोगी दलों से तालमेल कर महंगाई पर लगाम लगाए, साथ ही कृषि क्षेत्र में सुधार के प्रयासों में जो भी बाधाएं आ रही हैं उन्हें प्राथमिकता के आधार पर दूर करे। यदि एक बाधा शरद पवार हैं तो कांग्रेस को उनसे भी पार पाना होगा। शरद पवार लगभग सात वर्षो से कृषि और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय देख रहे हैं। अगर कृषि उत्पादन अथवा खाद्यान्न की आपूर्ति में मुश्किलें बढ़ रही हैं तो इसकी सीधी जिम्मेदारी उनकी है। कुछ समय पहले तक शरद पवार कृषि के साथ खाद्य एवं आपूर्ति में से एक मंत्रालय छोड़ने के इच्छुक थे, लेकिन अब ऐसा लगता है कि वह दोनों मंत्रालय अपने पास ही रखना चाहते हैं। वस्तुस्थिति जो भी हो, प्रधानमंत्री के समक्ष इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह कृषि के साथ-साथ खाद्य एवं आपूर्ति व्यवस्था के संदर्भ में कड़े फैसले लें। देखना यह है कि प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल के संभावित फेरबदल में कृषि मंत्रालय की जिम्मेदारी किसी और को दे पाते हैं या नहीं?
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