लगाया जा सकता है। इस पहाड़ी प्रदेश का दुर्भाग्य यह है कि यहां खाने-पीने का सारा सामान मैदानी इलाकों से पहाड़ के छोटे शहरों व कस्बों में पहुंचता है। पेट्रोलियम पदाथरे के मूल्यों में जिस तरह से विगत छह महीनों में Rs20 प्रति लीटर तक की वृद्धि हो गयी, उससे माल भाड़े और यात्रा किराये में 50 प्रतिशत की वृद्धि इस व्यवसाय से जुड़े लोगों ने अपनी मर्जी से कर दी। राज्य के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल (आंशिक) में जहां ट्रैक्टर आधारित खेती है, वहां पेट्रोल व डीजल के दाम बढ़ने का असर यह हुआ कि Rs100 बीघा होने वाली ट्रैक्टर की जुताई सीधे 150 रुपये बीघा हो गयी। खाद और पानी भी महंगा हो गया। गेहूं-धान निकालने की जो मशीनें Rs 400 प्रतिघंटा किराये पर चल रही थीं, वे सीधे Rs 500 घंटे हो गयी हैं। गेहूं-धान के एक बीघा की कटाई Rs200 से 250 तक हो जाती थी जो Rs 300 से 350 प्रति बीघा तक जा पहुंची है। जाहिर है कि काश्तकार का एक फसल पर प्रति बीघा Rs 500 से अधिक का खर्च बढ़ गया है तो बाजार में खाने-पीने के सामान के भाव भी उस अनुपात से ज्यादा बढ़ गये हैं। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि नदी-नालों से भरपूर इस प्रदेश में भवन निर्माण के लिए रेत-बजरी दूसरे राज्यों में बहने वाली गंगा- यमुना से लानी पड़ रही है। राज्य में खनन नीति न बन पाने और खनन पर सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध का असर यह है कि Rs1800 से 2500 में मिलने वाली रेत-बजरी की ट्रॉली पांच हजार व ट्रक लगभग Rs17 हजार तक में मिल रहे हैं। भवन निर्माण में इस्तेमाल होने वाली एक ईट गोपेर में Rs10 तक में बिक रही है। यही ईट देहरादून में Rs3 और श्रीनगर में Rs5 में बिक रही है। माल भाड़े में 50 प्रतिशत तक की वृद्धि के कारण सरिया व सीमेंट के भाव भी आसमान पर हैं। महंगाई ने गरीब की झोपड़ी का तिरपाल ही नहीं उड़ाया बल्कि मध्यम वर्ग को किराये के दो कमरों से उठाकर एक कमरे में शिफ्ट कर दिया है। छह महीनों में मकान मालिकों ने दो कमरे के सेट के किराये में Rs500 से 1000 तक की वृद्धि की है। मैदानी क्षेत्रों में सारा पहाड़ उतर आया है क्योंकि गांव में भी खाने-पीने का सामान रुपये देकर ही मिल रहा है। सस्ता खाने के चक्कर में लोग पलायन कर मैदानी और छोटे पहाड़ी कस्बों शहरों-देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी श्रीनगर, पौड़ी, गोपेर, चमोली, टिहरी में आ गये हैं। जिस कारण मकान मालिक भी भाड़ा वसूलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। महंगाई पर काबू के लिए राज्य स्तर पर अभी तक कोई पहल नहीं हुई। राज्य सरकार महंगाई बढ़ाने का ठीकरा केंद्र के सिर फोड़ रही है। राज्य के दूरस्थ क्षेत्र के लोग कोदे (मंडुए) की रोटी को नमक के साथ खाकर गुजर-बसर कर रहे हैं। जो लोग राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों में हैं वहां रोजगार तो दूर की बात आवागमन के भी कोई साधन नहीं हैं।
Sunday, January 16, 2011
महंगा अनाज नहीं, इलाज भी
उत्तराखंड में पिछले छह महीनों में महंगाई से न केवल गरीब तबका हलकान हुआ है बल्कि मध्यम वर्ग की कमर भी इस बोझ से अकड़ चुकी है। राज्य में अनाज ही नहीं, इलाज भी महंगा हो गया है। जिस राज्य के 67 प्रतिशत भू-भाग पर जंगल है वहां पर गैस का सिलेंडर 600 रुपये तक की बोली पर भी उपलब्ध नहीं हो रहा है। गरीब की दाल पहले ही ‘पतली’ हो गयी थी, लेकिन गैस के दाम बढ़ने के बाद उसका चूल्हा भी बुझ गया। आसमानी पानी पर निर्भर पहाड़ के खेत-खलिहान समय पर बारिश न होने से बंजर हो गये हैं। धान की खेती आपदा अपने साथ बहा लेकर चली गयी थी और गेहूं की फसल बिना पानी के सूख गयी है। गेहूं के साथ जो मटर, लैया-राड़ा (सरसों) की फसल बोयी गयी थी, उसे बंदर और सूअर चौपट कर गये हैं। देहरादून की मंडी में Rs80 प्रति किलो बिक रहा प्याज यहां से 200 किमी से अधिक दूर जोशीमठ, लामबगड़, गोपेर जैसे शहरों में किस भाव बिक रहा होगा, इसका खुद ही अंदाजा
लगाया जा सकता है। इस पहाड़ी प्रदेश का दुर्भाग्य यह है कि यहां खाने-पीने का सारा सामान मैदानी इलाकों से पहाड़ के छोटे शहरों व कस्बों में पहुंचता है। पेट्रोलियम पदाथरे के मूल्यों में जिस तरह से विगत छह महीनों में Rs20 प्रति लीटर तक की वृद्धि हो गयी, उससे माल भाड़े और यात्रा किराये में 50 प्रतिशत की वृद्धि इस व्यवसाय से जुड़े लोगों ने अपनी मर्जी से कर दी। राज्य के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल (आंशिक) में जहां ट्रैक्टर आधारित खेती है, वहां पेट्रोल व डीजल के दाम बढ़ने का असर यह हुआ कि Rs100 बीघा होने वाली ट्रैक्टर की जुताई सीधे 150 रुपये बीघा हो गयी। खाद और पानी भी महंगा हो गया। गेहूं-धान निकालने की जो मशीनें Rs 400 प्रतिघंटा किराये पर चल रही थीं, वे सीधे Rs 500 घंटे हो गयी हैं। गेहूं-धान के एक बीघा की कटाई Rs200 से 250 तक हो जाती थी जो Rs 300 से 350 प्रति बीघा तक जा पहुंची है। जाहिर है कि काश्तकार का एक फसल पर प्रति बीघा Rs 500 से अधिक का खर्च बढ़ गया है तो बाजार में खाने-पीने के सामान के भाव भी उस अनुपात से ज्यादा बढ़ गये हैं। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि नदी-नालों से भरपूर इस प्रदेश में भवन निर्माण के लिए रेत-बजरी दूसरे राज्यों में बहने वाली गंगा- यमुना से लानी पड़ रही है। राज्य में खनन नीति न बन पाने और खनन पर सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध का असर यह है कि Rs1800 से 2500 में मिलने वाली रेत-बजरी की ट्रॉली पांच हजार व ट्रक लगभग Rs17 हजार तक में मिल रहे हैं। भवन निर्माण में इस्तेमाल होने वाली एक ईट गोपेर में Rs10 तक में बिक रही है। यही ईट देहरादून में Rs3 और श्रीनगर में Rs5 में बिक रही है। माल भाड़े में 50 प्रतिशत तक की वृद्धि के कारण सरिया व सीमेंट के भाव भी आसमान पर हैं। महंगाई ने गरीब की झोपड़ी का तिरपाल ही नहीं उड़ाया बल्कि मध्यम वर्ग को किराये के दो कमरों से उठाकर एक कमरे में शिफ्ट कर दिया है। छह महीनों में मकान मालिकों ने दो कमरे के सेट के किराये में Rs500 से 1000 तक की वृद्धि की है। मैदानी क्षेत्रों में सारा पहाड़ उतर आया है क्योंकि गांव में भी खाने-पीने का सामान रुपये देकर ही मिल रहा है। सस्ता खाने के चक्कर में लोग पलायन कर मैदानी और छोटे पहाड़ी कस्बों शहरों-देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी श्रीनगर, पौड़ी, गोपेर, चमोली, टिहरी में आ गये हैं। जिस कारण मकान मालिक भी भाड़ा वसूलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। महंगाई पर काबू के लिए राज्य स्तर पर अभी तक कोई पहल नहीं हुई। राज्य सरकार महंगाई बढ़ाने का ठीकरा केंद्र के सिर फोड़ रही है। राज्य के दूरस्थ क्षेत्र के लोग कोदे (मंडुए) की रोटी को नमक के साथ खाकर गुजर-बसर कर रहे हैं। जो लोग राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों में हैं वहां रोजगार तो दूर की बात आवागमन के भी कोई साधन नहीं हैं।
लगाया जा सकता है। इस पहाड़ी प्रदेश का दुर्भाग्य यह है कि यहां खाने-पीने का सारा सामान मैदानी इलाकों से पहाड़ के छोटे शहरों व कस्बों में पहुंचता है। पेट्रोलियम पदाथरे के मूल्यों में जिस तरह से विगत छह महीनों में Rs20 प्रति लीटर तक की वृद्धि हो गयी, उससे माल भाड़े और यात्रा किराये में 50 प्रतिशत की वृद्धि इस व्यवसाय से जुड़े लोगों ने अपनी मर्जी से कर दी। राज्य के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल (आंशिक) में जहां ट्रैक्टर आधारित खेती है, वहां पेट्रोल व डीजल के दाम बढ़ने का असर यह हुआ कि Rs100 बीघा होने वाली ट्रैक्टर की जुताई सीधे 150 रुपये बीघा हो गयी। खाद और पानी भी महंगा हो गया। गेहूं-धान निकालने की जो मशीनें Rs 400 प्रतिघंटा किराये पर चल रही थीं, वे सीधे Rs 500 घंटे हो गयी हैं। गेहूं-धान के एक बीघा की कटाई Rs200 से 250 तक हो जाती थी जो Rs 300 से 350 प्रति बीघा तक जा पहुंची है। जाहिर है कि काश्तकार का एक फसल पर प्रति बीघा Rs 500 से अधिक का खर्च बढ़ गया है तो बाजार में खाने-पीने के सामान के भाव भी उस अनुपात से ज्यादा बढ़ गये हैं। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि नदी-नालों से भरपूर इस प्रदेश में भवन निर्माण के लिए रेत-बजरी दूसरे राज्यों में बहने वाली गंगा- यमुना से लानी पड़ रही है। राज्य में खनन नीति न बन पाने और खनन पर सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध का असर यह है कि Rs1800 से 2500 में मिलने वाली रेत-बजरी की ट्रॉली पांच हजार व ट्रक लगभग Rs17 हजार तक में मिल रहे हैं। भवन निर्माण में इस्तेमाल होने वाली एक ईट गोपेर में Rs10 तक में बिक रही है। यही ईट देहरादून में Rs3 और श्रीनगर में Rs5 में बिक रही है। माल भाड़े में 50 प्रतिशत तक की वृद्धि के कारण सरिया व सीमेंट के भाव भी आसमान पर हैं। महंगाई ने गरीब की झोपड़ी का तिरपाल ही नहीं उड़ाया बल्कि मध्यम वर्ग को किराये के दो कमरों से उठाकर एक कमरे में शिफ्ट कर दिया है। छह महीनों में मकान मालिकों ने दो कमरे के सेट के किराये में Rs500 से 1000 तक की वृद्धि की है। मैदानी क्षेत्रों में सारा पहाड़ उतर आया है क्योंकि गांव में भी खाने-पीने का सामान रुपये देकर ही मिल रहा है। सस्ता खाने के चक्कर में लोग पलायन कर मैदानी और छोटे पहाड़ी कस्बों शहरों-देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी श्रीनगर, पौड़ी, गोपेर, चमोली, टिहरी में आ गये हैं। जिस कारण मकान मालिक भी भाड़ा वसूलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। महंगाई पर काबू के लिए राज्य स्तर पर अभी तक कोई पहल नहीं हुई। राज्य सरकार महंगाई बढ़ाने का ठीकरा केंद्र के सिर फोड़ रही है। राज्य के दूरस्थ क्षेत्र के लोग कोदे (मंडुए) की रोटी को नमक के साथ खाकर गुजर-बसर कर रहे हैं। जो लोग राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों में हैं वहां रोजगार तो दूर की बात आवागमन के भी कोई साधन नहीं हैं।
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