फूड सिक्योरिटी कानून पर बहस हो रही है यह तो अच्छी बात है। लेकिन मेरा मानना है कि बहस इस दिशा में हो कि इसे ठीक से लागू कैसे किया जाए। अगर बहस इसीलिए हो रही है कि इस कानून को कैसे कमजोर किया जाए तो यह अच्छी बात नहीं है। हमने देखा है कि नेशनल एडवायजरी काउंसिल के कदमों का कितना दूरगामी असर हुआ है। मेरा मानना है कि फूड सिक्योरिटी कानून का भी दूरगामी असर होने वाला है
यूपीए के शासनकाल में हुए बड़े फैसलों के पीछे नेशनल एडवाइजरी काउंसिल का हाथ रहा है। सोनिया गांधी के नेतृत्व में काम करने वाली काउंसिल में उनको जगह मिली जिनकी सत्ता में सीधी भागीदारी कम ही थी। कई चिंतकों और समाजसेवियों को इसमें जगह दी गई। पिछले छह साल में इस काउंसिल ने यूपीए सरकार की पॉलिसी को नई दिशा दी है। इसी काउंसिल की पैरवी की बदौलत देश को सूचना का अधिकार जैसा क्रांतिकारी कानून मिला। नेशनल एडवायजरी काउंसिल की ही कोशिश की बदौलत देश को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना मिली, जिसने गांवों की तस्वीर बदल दी है। अब नेशनल एडवायजरी काउंसिल खाद्य सुरक्षा कानून की पैरवी कर रही है। नेशनल एडवायजरी काउंसिल की सिफारिश है कि देश के 75 परसेंट घरों में सरकार हर महीने सस्ता अनाज मुहैया कराए। काउंसिल का सुझाव था कि ज्यादा जरूरतमंद परिवार (गरीबी रेखा से नीचे के परिवार) को हर महीने 35 किलो अनाज मिले। उसको गेहूं 2 रुपये प्रति किलो और चावल 3 रुपये प्रति किलो मिले। बाकी बचे परिवारों को हर महीने सस्ती कीमत पर 20 किलो अनाज दिया जाए। और उनके लिए कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)से आधी हो। लेकिन प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सी रंगराजन की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने काउंसिल के सुझावों में कई संशोधन कर दिए हैं। सी रंगराजन कमेटी का मानना है कि सस्ते अनाज की सुविधा 46 परसेंट ग्रामीण परिवार को और 28 परसेंट शहरी परिवार को ही मिले। कुल मिलाकर सस्ते अनाज की सुविधा सिर्फ 41 परसेंट परिवारों को ही मिले। उनको गेहूं 2 रुपये प्रति किलो और चावल 3 रुपये प्रति किलो के हिसाब से दिया जाए। फिलहाल खाद्य वितरण पण्राली के जरिए देश के करीब साढ़े छह करोड़ परिवारों को हर महीने 35 किलो अनाज दिया जाता है। कम से कम कागजी हकीकत तो यही है। पीडीएस के जरिए गेहूं 4.15 रुपये प्रति किलो और चावल 5.65 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बांटा जाता है। रंगराजन कमेटी का यह भी सुझाव है कि अनाज की कीमत महंगाई दर से जुड़ी हो ताकि महंगाई बढ़े तो अनाज की कीमत भी बढ़ाने की गुंजाइश हो। रंगराजन कमेटी का कहना है कि अगर नेशनल एडवायजरी काउंसिल के सुझावों को माना जाता है तो तत्काल 64 मिलियन टन अनाज की जरूरत होगी, जबकि सारे अनुमान सही निकले तो भी सरकार इस साल 56 मिलियन टन से ज्यादा अनाज की खरीद नहीं कर पाएगी। इतना अनाज इकठ्ठा करने के लिए या तो सरकार को अपनी खरीद बढ़ानी होगी या फिर अनाज का आयात करना होगा। दोनों ही सूरत में बाजार में अनाज की कीमतें काफी तेजी से बढ़ेंगी। महंगाई से जूझ रही सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकती है जिससे खाने-पीने की चीजों की महंगाई और भी बढ़े। रंगराजन क मेटी का यह भी कहना है कि नेशनल एडवायजरी काउंसिल के सुझाव को माना गया तो सरकारी सब्सिडी का बोझ 92 हजार करोड़ रुपये बढ़ जाएगा। सरकारी घाटे को कम करने की कोशिश में जुटी सरकार के लिए यह संभव नहीं है कि सब्सिडी का बोझ इतना बढ़ाए। रंगराजन कमेटी की तीसरी दलील है कि इतना अनाज सस्ते में बांटने के लिए वितरण पण्राली को दुरुस्त करना होगा, साथ ही वेयरहाउस इंफ्रास्ट्रक्चर को भी बढ़ाना होगा। ऐसा नहीं हुआ तो भारी मात्रा में अनाज की बर्बादी होगी और फिर से बाजार में अनाज की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो जाएगी। सी रंगराजन साहब के सारे सुझाव सिर आंखों पर। लेकिन उन्होंने नेशनल एडवायजरी काउंसिल के फूड सिक्योरिटी कानून की हवा ही निकाल दी। अब रंगराजन कमेटी की दलीलों पर नजर डालें। कमेटी की सबसे बड़ी दलील है कि अनाज की सरकारी खरीद बढ़ी तो बाजार में अनाज की कमी होगी और इसका कीमतों पर बुरा असर पड़ेगा। पिछले बासठ सालों का अनुभव बताता है कि सरकारी गोदामों में ज्यादा अनाज रहने से कीमतें स्थिर रहती हैं। व्यापारियों को हमेशा यह खतरा रहता है कि मुनाफाखोरी ज्यादा बढ़ी तो सरकारी अनाज बाजार में आ जाएगा और कीमतें नीचे आ जाएंगी। मतलब यह कि सरकारी गोदाम में रखा अनाज कीमतें बढ़ाता नहीं है उल्टे उस पर नियंतण्ररखने का काम करता है। कमेटी की दूसरी दलील है कि सरकारी गोदामों की क्षमता इतनी नहीं है कि सरकारी खरीद को और बढ़ाया जा सके। हमारी क्षमता इतनी भी नहीं है कि हम हर साल 50 मिलियन टन अनाज को भी ठीक से रख सकें। मेरा मानना है कि सरकार फूड सिक्योरिटी बहाल करे या न करे, हमें अपना डिस्ट्रिब्यूशन नेटवर्क तो ठीक करना ही होगा। इसी गड़बड़ी की वजह से हर साल लाखों टन अनाज बर्बाद हो जाता है और 30 से 40 परसेंट फल और सब्जियां सड़ जाती हैं। फूड सिक्योरिटी के बहाने अगर वेयरहाउसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार हो जाए तो सोने पे सुहागा। यह हमारे देश की जरूरत है। जहां तक सब्सिडी के बोझ का सवाल है तो उस पर मेरा मानना है कि खाद पर हर साल सब्सिडी का बड़ा बिल हमें चुकाना ही पड़ता है। खाद की सब्सिडी को खत्म कर दीजिए और फूड सिक्योरिटी पर ही ध्यान लगाइए। ऐसा होता है तो सब्सिडी का बोझ भी बहुत नहीं बढ़ेगा। वैसे भी खाद पर सब्सिडी का बहुत कम फायदा ही छोटे और मझोले किसानों को मिल पाता है। सस्ते अनाज बांटने का फायदा छोटे और मझोले किसानों को भी होगा। फूड सिक्योरिटी लागू करने का तीसरा फायदा यह होगा कि अनाज की सरकारी खरीद उन इलाकों में भी होगी जहां फिलहाल ऐसा नहीं हो रहा है। ऐसा देखा गया है कि जिन इलाकों में सही तरीके से अनाजों की सरकारी खरीद होती है वहां किसानों को उपज का उचित दाम मिलता है। अगर इसी बहाने किसानों को अपनी उपज के लिए सही कीमत मिलने लगे तो अनाज का उत्पादन अपने आप बढ़ जाएगा। तब न तो कीमत बढ़ने का खतरा होगा और न ही अनाज के आयात की जरूरत होगी। महंगाई भी अपने आप काबू में रहेगी। फूड सिक्योरिटी कानून पर बहस हो रही है यह तो अच्छी बात है। लेकिन मेरा मानना है कि बहस इस दिशा में हो कि इसे ठीक से लागू कैसे किया जाए। अगर बहस इसीलिए हो रही है कि इस कानून को कैसे कमजोर किया जाए तो यह अच्छी बात नहीं है। हमने देखा है कि नेशनल एडवायजरी काउंसिल के कदमों का कितना दूरगामी असर हुआ है। मेरा मानना है कि फूड सिक्योरिटी कानून का भी दूरगामी असर होने वाला है। (लेखक सहारा इंडिया मीडिया के एडिटर एवं न्यूज डायरेक्टर हैं)
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