भारत में विदेशी रिटेल कंपनियों का आना मना है। तीन करोड़ दुकानदारों की रोजी-रोटी का हवाला देते हुए यह कह दिया जाता है कि अपने देश में बड़े रिटेलर्स आए तो इन दुकानदारों का धंधा बंद हो जाएगा। मतलब यह कि दुकानदारों के हित को ढाल बनाकर हमें महंगाई झेलने पर मजबूर किया जा रहा है
क्या इस सिस्टम से किसी का भला हो रहा है? अगर सच में सरकार महंगाई रोकने के लिए गंभीर है तो डिस्ट्रीब्यूशन के तौर-तरीकों को बदलना होगा
आर्थिक मोच्रे पर नए साल की शुरुआत अच्छी नहीं रही है। पहले हफ्ते में ही सेंसेक्स 4 परसेंट लुढ़क गया। विदेशी निवेशक बिकवाली के मूड में हैं। विदेशी ब्रोकरेज फर्म को लग रहा है कि भारत की विकास दर में कमी हो सकती है। सब कुछ जब ठीक हो रहा था तो फिर मूड बदलने की क्या वजह है। पिछले एक महीने से यह लग रहा है कि भारत में महंगाई बेकाबू हो गई है। और महंगाई इसी तरह से बढ़ती रही तो ग्रोथ पर ब्रेक लग सकता है। और महंगाई सच में विकराल रूप लेती जा रही है। 25 दिसम्बर को खत्म हुए हफ्ते में खाने-पीने के सामान की महंगाई दर 18 परसेंट को पार कर गई। यह तो सरकारी आंकड़ा है। जमीनी हकीकत तो इससे भी भयावह है। प्याज एक ही महीने में 100 परसेंट महंगी हो गई है। लहसुन और टमाटर की कीमतों में आग लगी हुई है। अंडा, दूध, आटा, दाल, चावल, पेस्ट, साबुन, बिस्कुट-सब कुछ महंगा हो गया है। यह सब तब हो रहा है जब खाने-पीने के सामान की कीमत में कमी का अनुमान लगाया जा रहा था। इतना ही नहीं, स्टील कंपनियों ने भी साल के पहले हफ्ते में ही कीमतों में करीब 5 परसेंट की बढ़ोतरी कर दी। रियल एस्टेट की कीमत तो लगातार बढ़ ही रही है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का कहना है कि तेजी से बढ़ती महंगाई की दो वजहें हैं। पहली बात तो यह कि सप्लाई में बाधा की वजह से दाम तेजी से बढ़ रहे हैं। दूसरी वजह यह है कि लोगों की आमदनी में हो रही बढ़ोतरी का भी कीमतों पर असर हो रहा है। वित्तमंत्री की दलील बिल्कुल सही है। लेकिन अब सवाल यह है कि इस महंगाई को काबू कैसे किया जाए? शुक्रवार को कृषि क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाला एक ग्रुप वित्तमंत्री से मिला और उस ग्रुप के कुछ प्रतिनिधियों का मानना है कि रिजर्व बैंक के ब्याज दर बढ़ाने से महंगाई को कुछ काबू में लाया जा सकता है। उनका यह कहना है कि महंगाई की वजह उत्पादन में कमी नहीं है। प्याज क अलावा किसी भी फल या सब्जी के उत्पादन में कमी नहीं हुई है। े
फिर भी दाम बढ़ रहे हैं जो चिंता का विषय है। गौरतलब है कि 2010 में रिजर्व बैंक ने 6 बार ब्याज दरें बढ़ाई। जानकारों को आशंका है कि महंगाई को काबू करने के लिए रिजर्व बैंक ने तेजी से ब्याज दर बढ़ाए तो ग्रोथ पर सचमुच ब्रेक लग सकता है। तो क्या सचमुच कोई दूसरा रास्ता है जिससे महंगाई पर काबू किया जा सकता है? मेरे ख्याल से और भी रास्ते हैं। इसके लिए हमें खाने- पीने के सामान के डिस्ट्रीब्यूसन चेन पर नजर डालना होगा। अगर किसानों को सब्जी के एक किलो के लिए 10 रुपये मिलते हैं तो मंडी आते-आते इसकी कीमत 15 रुपये हो जाती है। मंडी में होल सेलर का कमीशन डेढ़ से दो रुपये। जब ठेले वाले से ग्राहक सब्जी खरीदता है तो वह अपना साढ़े चार से पांच रु पये कमीशन जोड़ देता है। मतलब यह कि किसान को जिस सामान के लिए 10 रुपये मिलते हैं, ग्राहक तक पहुंचते- पहुंचते उसकी कीमत कम से कम 20 रुपये तो हो ही जाती है। बिना कोई वैल्यू जोड़े लाखों लोगों की करोड़ों की कमाई। सालों से यही सिस्टम चल रहा है। जैसे ही इसे बदलने की बात होती है, चौतरफा विरोध शुरू हो जाता है। इस सिस्टम की खामियां देखिए। दुकानदार मनमाफिक मुनाफा कमा सकता है। जमाखोरी, कालाबाजारी पर कोई रोक नहीं। दुनिया में हम फलों और सब्जियों के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक हैं, इसके बावजूद हमारे यहां फल और सब्जी लगातार महंगे होते जा रहे हैं। सिस्टम में खामियां इतनी हैं कि 35 से 40 परसेंट फल और सब्जी तो बाजार पहुंचने से पहले ही सड़ जाते हैं। देश में गिनती के ही कोल्ड स्टोरेज हैं। और जहां कोल्ड स्टोरेज हैं भी वहां उनको चलाना दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले 100 परसेंट महंगा है। देश में इतने खाद्य पदार्थ बर्बाद हो जाएंगे तो खाने-पीने के सामान महंगे होंगे ही। क्या इसको ठीक करके महंगाई को काबू करने के तरीकों पर विचार नहीं किया जा सकता है। डिस्ट्रीब्यूशन को दुरुस्त करने के कई रास्ते भी हैं। हमारे पड़ोसी देश चीन में जो हो रहा है उससे ही सबक लेने की जरूरत है। 2007 में दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनी वॉलमार्ट ने चीन के कृषि और वाणिज्य मंत्रालय के साथ मिलकर डायरेक्ट फॉर्म प्रोग्राम शुरू किया। इस प्रोग्राम के तहत वॉलमार्ट किसानों से सीधे फल, सब्जी और अनाज खरीदती है और उन्हें अपने स्टोर्स में बेचती है। इसकी वजह से किसानों को अच्छी कीमत मिल रही है और कंज्यूमर को बाजार से सस्ता सामान। इसके अलावा वॉलमार्ट किसानों को खेती के आधुनिक तरीकों के बारे में ट्रेनिंग देती है। साथ ही किसानों को यह भी बताया जाता है कि वे अपने खेतों की उर्वरा लंबे समय तक कैसे बचाकर रख सकते हैं। तीन साल में करीब दो लाख किसान इस प्रोग्राम से जुड़ चुके हैं। मतलब यह कि किसान को सही कीमत, मुफ्त की ट्रेनिंग और पर्यावरण का संरक्षण बोनस में। है ना सबकी बल्ले-बल्ले। इतना ही नहीं, वॉलमार्ट चीन के करीब 100 शहरों में स्टोर चला रहा है। जिसमें करीब एक लाख लोगों को रोजगार भी मिले हैं। इसके साथ-साथ कारफूर और टेस्को जैसे दूसरे रिटेलर्स के भी स्टोर्स चल रहे हैं जिनमें हजारों लोगों को नौकरी मिली है। किसानों का फायदा तो हो रहा है, संगठित क्षेत्र में रोजगार के मौके भी बन रहे हैं। लेकिन भारत में विदेशी रिटेल कंपनियों का आना मना है। तीन करोड़ दुकानदारों की रोजी-रोटी का हवाला देते हुए यह कह दिया जाता है कि अपने देश में बड़े रिटेलर्स आए तो इन दुकानदारों का धंधा बंद हो जाएगा। मतलब यह कि दुकानदारों के हित को ढाल बनाकर हमें महंगाई झेलने पर मजबूर किया जा रहा है। क्या इस सिस्टम से किसी का भला हो रहा है? अगर सच में सरकार महंगाई रोकने के लिए गंभीर है तो डिस्ट्रीब्यूशन के तौर-तरीकों को बदलना होगा। नहीं तो कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए कीमतें इसी तरह बढ़ती रहेंगी और हम महंगाई डायन के अत्याचार का रोना रोते रहेंगे।
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