खनन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आजीविका और पर्यावरण को देखते हुए खनन नीति सख्त और पारदर्शी होनी चाहिए, लेकिन दोनों ही मामलों में खनन उद्योग का प्रदर्शन निराशाजनक है। खनिज भंडार खत्म होते ही कंपनियां स्थानीय पर्यावरण और प्रभावित लोगों को उनके हाल पर छोड़ देती हैं। पर्यावरण और वन मंत्रालय का कहना है कि मौजूदा औद्योगिक व खनन नीतियों के चलते पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचा है। देर से ही सही मंत्रालय ने कठोर कदम उठाते हुए अब इस सिलसिले पर विराम लगाने की कोशिश की है। उसका कहना है कि नए कोयला क्षेत्रों में खनन की मंजूरी देने से प्रदूषण तो फैलेगा ही, वहां के हरित आवरण का नामोनिशान भी मिट जाएगा इसलिए कोयला क्षेत्रों को गो, नो-गो में बांटने का प्रस्ताव किया गया है। नो-गो एरिया वाले इलाकों को पर्यावरण के हिसाब से संवेदशनील मानते हुए वहां खनन गतिविधियों को पूरी तरह रोकने का सुझाव दिया गया है। गो एरिया में भी सशर्त खनन की मंजूरी देने की बात है। इस समय 203 कोयला ब्लॉकों में खनन इसलिए रोक दिया है कि वे नो-गो एरिया में पड़ते हैं। इन खानों में 60 करोड़ टन का भंडार मौजूद है, जो देश के सालाना उत्पादन 50 करोड़ टन से भी अधिक है। मांग और आपूर्ति की खाई को पाटने के लिए अभी पांच करोड़ टन कोयले का आयात किया जाता है, जिसके 2012 तक के अंत तक बढ़कर 12 करोड़ टन पहुंच जाने की उम्मीद है। लेकिन नई खानों में कोयला उत्पादन पर विवाद बना रहा तो आयात पर निर्भरता और अधिक बढ़ जाएगी जिससे नौ फीसदी की विकास दर हासिल करने में शायद ही सफलता मिले। जबसे पर्यावरण व वन मंत्रालय ने गो और नो-गो की परिभाषा में देश की सभी खनन गतिविधियों को बांटा है, तभी से तमाम मंत्रालय इसके विरोध में उठ खड़े हुए हैं। इससे हालात इतने खराब हो गए हैं कि अब ढांचागत क्षेत्र में निवेश करने वाली कई कंपनियों ने अपनी परियोजनाएं रोक दी हैं। सबसे ज्यादा मार पड़ी है बिजली उत्पादन से जुड़ी कंपनियों पर। इसमें 11वीं व 12वीं पंचवर्षीय योजना में स्थापित होने वाली परियोजनाएं शामिल हैं। दो दर्जन से अधिक कंपनियों को दिए गए कोयले के ब्लॉक इस समय नो गो एरिया में आते हैं। ऐसे में यदि विवादास्पद नीति का समाधान नहीं निकलता है तो निजी क्षेत्र द्वारा किया जाने वाला निवेश प्रभावित हो सकता है। पर्यावरण व वन मंत्रालय देश के कुल कोयला खनन क्षेत्र का 48 फीसदी हिस्सा नो गो के तौर पर घोषित करना चाहता है। यदि प्रस्ताव मान लिया जाता है तो अकेले सीआईएल का 40 करोड़ टन का नुकसान होगा। सीआईएल ने शुरुआती तौर पर वर्ष 2012 के लिए 52 करोड़ टन उत्पादन का लक्ष्य तय किया था, लेकिन पर्यावरण संबंधी बाधाओं के चलते कंपनी ने लक्ष्य को घटाकर 44.7 करोड़ टन कर दिया। घरेलू श्चोतों से कोयला आपूर्ति में हो रही कठिनाइयों को देखते हुए बिजली उत्पादक कंपनियां विदेश स्थित कोयला खानों में हिस्सेदारी की कोशिश में जुटी हैं। देखा जाए तो पर्यावरण विनाश, भ्रष्टाचार, नियम-कानूनों की अनदेखी आदि खनन उद्योग के साथ अनिवार्य रूप से जुड़े रहे हैं। पर्यावरण, विस्थापन आदि की उपेक्षा करके जैसी लूट और अंधेरगर्दी खनन क्षेत्र में रही वैसी शायद ही किसी दूसरे औद्योगिक क्षेत्र में रही हो। इसी को देखते हुए केंद्र सरकार खनन उद्योग पर नजर रखने के लिए एक नियामक आयोग बनाने की योजना पर काम कर रही है। यह इसलिए भी जरूरी है कि भविष्य में होने वाले खनन का एक बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र के जिम्मे है। ऐसे में ठोस निगरानी तंत्र के अभाव में निजी क्षेत्र लुटेरी खनन नीति पर ही काम करेगा। लेकिन यह निगरानी तंत्र तभी प्रभावी ढंग से काम कर पाएगा जब उसे उसी प्रकार की शक्ति और स्वायत्ता मिले जैसी चुनाव आयोग को स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए मिली हुई है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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