Wednesday, January 26, 2011

महंगाई के स्थायी समाधान की सोचें


पिछले तीन वर्षो से महंगाई लगातार बढ़ती ही जा रही है। दिसंबर 2010 में महंगाई की दर 8.43 प्रतिशत दर्ज की गई। यदि पिछले तीन वर्षो का लेखा-जोखा देखा जाए तो महंगाई की दर औसतन 7-8 प्रतिशत तक वार्षिक रही, लेकिन सरकार द्वारा बताई गई मुद्रास्फीति की बढ़ती दर की तुलना में आम आदमी कहीं ज्यादा महंगाई का सामना करना पड़ रहा है। इसका कारण यह है कि अभी तक महंगाई की दर को मापने के लिए थोक मूल्य सूचकांक का ही सहारा लिया जाता है। वर्ष 2004-05 से लेकर 2009-10 के बीच पांच वर्षो के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि थोक कीमतों पर महंगाई की दर और उपभोक्ता कीमतों पर महंगाई की दर में खासा बड़ा अंतर है। हालांकि सरकार द्वारा पिछले पांच वर्षो में औसतन 5.4 प्रतिशत की दर से मुद्रास्फीति दिखाई गई जबकि औद्योगिक श्रमिकों के लिए बनाए गए उपभोक्ता सूचकांक के आधार पर यह मुद्रास्फीति 7.8 प्रतिशत की रही है। यह भी देखा गया है कि उपभोक्ता कीमत सूचकांक से भी खाद्य पदार्थो में महंगाई अधिक होती है। दिसंबर 2010 में जहां महंगाई की दर 8.43 आंकी गई वहीं खाद्य पदार्थो में यह 17 प्रतिशत दर्ज की गई जो सामान्य मुद्रास्फीति से दोगुनी अधिक है। हाल ही में कई बार खाद्य पदार्थो की मुद्रास्फीति 30 प्रतिशत तक जा पहुंची। वास्तव में 80 प्रतिशत देश के बहुत गरीब लोग जो 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजर-बसर करते हैं, उन्हें न तो थोक कीमतों द्वारा मापी गई मुद्रास्फीति और न ही उपभोक्ता कीमतों द्वारा मापी गई मुद्रास्फीति प्रभावित करती है। उन्हें तो खाद्य पदार्थो जैसे- आटा, दाल, चावल, खाद्य तेल और चीनी इत्यादि की कीमतों में होने वाली वृद्धि ही ज्यादा प्रभावित करती है। यही कारण है कि गरीबों की थाली पर महंगाई का असर ज्यादा होता है और उनका भोजन पहले से कम हो जाता है। यहां हमें मुद्रास्फीति के कारणों को भी समझना होगा। दरअसल खाद्य पदार्थो में होने वाली मुद्रास्फीति का मुख्य कारण देश में कृषि उत्पादन का लगातार घटते जाना है। पिछले 10 वर्षो में हमारी जनसंख्या लगभग 20 प्रतिशत बढ़ गई है, जबकि इन 10 वर्षो में खाद्य पदार्थो का उत्पादन जैसे-अनाज, खाद्य तेल, गन्ना, दालों आदि का उत्पादन या तो लगभग स्थिर रहा है अथवा अत्यंत धीमी गति से बढ़ा है। ऐसे में एक तरफ जहां सिकुड़ते उत्पादन की समस्या है, लगातार बढ़ रही जनसंख्या का मामला है जिससे कृषि पदार्थो की मांग बढ़ी है और लोग गैर-कृषि क्षेत्रों में अधिक रुचि ले रहे हैं। नतीजन पिछले 5 वर्षो में थोक कीमतों के आधार पर भी खाद्य पदार्थो में मुद्रास्फीति औसतन 8.2 प्रतिशत के आसपास रही। इसी कालखंड में गैर-पेट्रोलियम औद्योगिक उत्पादों की मुद्रास्फीति मात्र 4 प्रतिशत रही। यह साफ है कि गरीब के लिए आटा, दाल, चावल, तेल, चीनी और सब्जियों के भाव तो आसमान छू रहें हैं, लेकिन कारों, एलसीडी टेलीविजन, एयरकंडिशनरों और अन्य विलासितापूर्ण उपभोग की चीजों के भाव या तो घट रहें हैं या बहुत कम बढ़े हैं। हालांकि पिछले कुछ सप्ताह से प्याज के एकदम बढ़े भावों से सरकार थोड़ी बहुत चिंतित दिखाई देती है, लेकिन अत्यंत दकियानूसी उपाय जैसे-व्यापारियों के ठिकानों पर छापे मारना आदि अपनाए जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि पहले से ही महंगाई से त्रस्त जनता का मन बहलाने के लिए सरकार दिखावटी प्रयासों का नाटक और रिहर्सल कर रही हो। अर्थशास्त्र का एक बहुत पुराना और सटीक सिद्धांत है, जिसके अनुसार मुद्रा की पूर्ति बढ़ने से भी महंगाई बढ़ती है। जब वस्तुओं का उत्पादन न बढ़े या कम बढ़े और मुद्रा की आपूर्ति बाजार में लगातार बढ़ती चली जाए तो महंगाई आना एक स्वाभाविक घटना है, क्योंकि जब थोड़ी वस्तुओं का पीछा ज्यादा मुद्रा करती है तो उन वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। पिछले लगभग 3 वर्षो से सरकार ने अपने ही पूर्व के संकल्पों की धज्जियां उड़ाते हुए अपना राजकोषीय घाटा बहुत अधिक बढ़ा लिया है। सरकार ने एफआरबीएम एक्ट के तहत यह संकल्प लिया था कि वह अपने घाटे को 2.5 प्रतिशत तक सीमित रखेगी, लेकिन पिछले वित्तीय वर्ष में यह घाटा 7 प्रतिशत तक पहुंच गया। बढ़े राजकोषीय घाटे को येन-केन-प्रकारेण पूरा करने के लिए सरकार के निर्देश पर भारतीय रिजर्व बैंक ने भारी मात्रा में मुद्रा छापी। अतिरिक्त मुद्रा छपने के फलस्वरूप देश में मुद्रा की पूर्ति पिछले पांच वर्षो में औसतन 17.1 प्रतिशत की दर से प्रति वर्ष बढ़ी। स्वाभाविक है बढ़ी मुद्रा की उपलब्धता ने मुद्रास्फीति की स्थिति को और भयावह बना दिया। चूंकि औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन पिछले 5 वर्षो में औसतन 8.3 प्रतिशत प्रति वर्ष बढ़ा है इस कारण औद्योगिक वस्तुओं में मुद्रास्फीति की दर कम रही है, लेकिन कृषि उत्पाद और विशेष तौर पर खाद्य पदार्थो में देश इतना भाग्यशाली नहीं रहा और इसका खामियाजा ऊंची खाद्य वस्तुओं की कीमतों के रूप में गरीब आदमी को भुगतना पड़ा। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रास्फीति को रोकने के लिए जो प्रयास होते हैं वे अनुपयुक्त भी हैं और अपर्याप्त भी। ऐसा इसलिए है कि भारतीय रिजर्व बैंक मुद्रा की पूर्ति को कम करने के लिए प्रयास करता है ताकि चिंता का कारण बन रही बढ़ती महंगाई पर लगाम कसी जा सके। आवश्यकता इस बात की है कि खाद्य पदार्थो की कीमतों में मुद्रास्फीति का प्रभाव कम करने के लिए कृषि उत्पादन और विशेष तौर पर खाद्य पदार्थो का उत्पादन बढ़ाया जाए। देश की वर्तमान स्थिति में सरकार की भूमिका भी संदिग्ध दिखाई दे रही है। सरकार में बैठे लोग लगातार विकास की रफ्तार तेज करने की बात करते रहते हैं। सरकार के ताजा बयानों के अनुसार इस वर्ष देश में आर्थिक संवृद्धि की दर 9 प्रतिशत तक रहने का अनुमान है। आर्थिक संवृद्धि को बढ़ाने के इस सरकारी जुनून ने देश की आम जनता को त्रस्त करने का ही काम किया है। वास्तविकता यह है कि सरकार का पूरा ध्यान कृषि को छोड़कर दूसरे क्षेत्रों के विकास में ज्यादा है। इस नीति का असर कृषि में होने वाले पूंजी निवेश पर भी पड़ा है। यही कारण है कि अंतत: हमारा कृषि उत्पादन बढ़ने के बजाय घटने लगा है। कुछ वर्ष पहले तक अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका देश अब फिर से दुनिया के दूसरे मुल्कों से अनाज आयात करने के लिए बाध्य हो रहा है। देश वास्तव में कृषि के संबंध में आपात स्थिति से गुजर रहा है, लेकिन सरकार द्वारा कृषि के विकास की कोई योजना दिखाई नहीं देती, बल्कि आग में घी का काम करते हुए सरकारी नीतियों के तहत ज्यादा से ज्यादा उपजाऊ भूमि को उद्योगपतियों को विशेष आर्थिक क्षेत्र अथवा किसी अन्य नाम से गैर-कृषि कार्यो के लिए दिया जा रहा है। अंतरिक्ष से लिए गए चित्रों के अनुसार हरित भूमि लगातार घट रही है और उस पर कंक्रीट के जंगल बन रहे हैं, लेकिन हमारे नीति निर्माता इस आपातस्थिति से निपटने के लिए तैयार दिखाई नहीं देते। सरकार को यह समझना होगा कि अनाज हो या सब्जियां अथवा चीनी इसमें होने वाली जमाखोरी या कालाबाजारी की समस्या तभी आती है जब उत्पादन कम होता है। व्यापारियों के ठिकानों पर छापे मारने का उपक्रम करके सरकार मुद्रास्फीति का स्थायी हल नहीं खोज सकती अथवा दे सकती। मुद्रास्फीति के स्थायी हल के लिए जरूरी है कि हम देश की खाद्य सुरक्षा के मद्देनजर गरीबों को भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कृषि पर विशेष ध्यान दें। इसके अलावा सरकार अपने फिजूलखर्ची पर अंकुश रखकर राजकोषीय घाटे को नियंत्रण में लाने का प्रयास करे। (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)


No comments:

Post a Comment