कुल मिलाकर स्थिति अब ऐसी हो गयी है कि महंगाई पर नीति निर्धारकों के तीन तरह के बयान आते हैं। एक तो इस टाइप के बयान कि अगले महीने या दो महीने के बाद महंगाई कम हो जाएगी। यह महंगाई कम कैसे और क्यों कम हो जाएगी, यह वजह बताने की जरूरत नहीं समझी जाती। दूसरे बयान केंद्र सरकार की तरफ से आते हैं, जिनमें बताया जाता है कि महंगाई मूलत: जमाखोरी की वजह से है। जमाखोरी रोकने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की हैं। भाजपा या गैर कांग्रेसी दलों की राज्य सरकारें महंगाई की वजह के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराती हैं।
मुद्रास्फीति का विमर्श अब राष्ट्रीय स्तर पर नहीं, अंतरराष्टीय स्तर पर होना चाहिए। इसलिए कि अब स्थानीय स्तर पर इसका निदान मुश्किल है। केंद्र सरकार कहती है कि महंगाई के लिए हम जिम्मेदार नहीं है। महंगाई के लिए जमाखोरी जिम्मेदार है। और जमाखोरी रोकने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। महंगाई के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के लगातार बढ़ते भाव जिम्मेदार हैं। कच्चे तेल के भावों पर किसी एक का बस नहीं है। सो कच्चे तेल के भावों के बढ़ने के साथ तमाम आइटमों के भाव बढ़ना लगभग अनिवार्य है। तमाम खाद्य वस्तुओं में थोक की महंगाई का स्तर करीब बीस परसेंट ऊपर जा चुका है। खुदरा स्तर पर तो महंगाई का स्तर बहुत ही ज्यादा है। पर केंद्र और राज्य सरकारें इसी पर मार-काट कर रही हैं कि आखिर महंगाई के लिए जिम्मेदार कौन है। तब क्या महंगाई युद्ध जैसी कोई कोई अंतरराष्ट्रीय समस्या है, जिस पर विमर्श भी अंतरराष्ट्रीय होने चाहिए। अब लगता है कि वक्त आ गया है, जब महंगाई पर अंतरराष्ट्रीय विमर्श हों। दरअसल कच्चे तेल के भावों के चलते महंगाई एक अंतरराष्ट्रीय समस्या बन गयी है।
कच्चे तेल के भावों पर यूं तो ‘ओपेक’ यानी तेल उत्पादक और निर्यातक देशों का वश चलता है। पर सचाई यह है कि उनका वश भी तेल के भावों पर नहीं चलता। तेल के खेल में सट्टा खेलने वाले, तेल में निवेश करने वाले लोगों के अलावा बाजार की स्थिति का सीधा असर तेल के भावों पर पड़ता है। कुछ समय पहले भविष्यवाणी की जा रही थी कि कच्चे तेल के भाव दो सौ डालर प्रति बैरल हो जाएंगे। पर पूरा वि आर्थिक मंदी की चपेट में आया, अमेरिका में ऑटोमोबाइल उद्योग संकट में आया। अमेरिका में और नयी कार खऱीदने के लिए पैसा न रहा। ऐसी सूरत में कच्चे तेल के भाव गिरने लगे। फिलहाल कच्चे तेल के भाव 90 डॉलर प्रति बैरल चल रहे हैं। एक बैरल कच्चे तेल का मतलब मोटे तौर पर करीब 159 लीटर कच्चा तेल होता है। कच्चे तेल के भाव कहां जाएंगे, यह उनको भी नहीं पता, जिनके बारे में आम तौर पर यह माना जाता है कि कच्चे तेल के बारे में वह सब कुछ जानते होंगे। तेल क्षेत्र के बड़े कारोबारी मुकेश अम्बानी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें अभी तक ऐसा बंदा नहीं मिला है, जो यह बता दे कि आने वाले दिनों में तेल के भाव कहां पर जाएंगे। फिर सट्टेबाजों का कच्चे तेल के कारोबार में व्यापक निवेश है। कच्चे तेल के भाव सिर्फ वास्तविक मांग और आपूर्ति से ही प्रभावित नहीं होते। सट्टेबाजी की प्रवृत्तियों का भी उन पर असर पड़ता है। सट्टेबाजों की गतिविधियां किसी की पकड़ से बाहर हैं, पर उनके असर के दायरे में सभी आते हैं। तेल के भाव ऊपर जाएंगे, इस बात को पुष्ट करने के लिए कई तर्क और तथ्य हैं। जैसे एक तथ्य यह है कि चीन और भारत में बहुत तेजी से कारों की संख्या बढ़ रही है। यह संख्या कच्चे तेल के भावों को नरम नहीं रहने देगी। पर एक तथ्य यह भी है कि वि का सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल बाजार ‘अमेरिकन बाजार’ मंदी से जूझ रहा है। इसके चलते कच्चे तेल के भावों में मंदी आ सकती है। मंदी इसलिए भी आ सकती है कि तमाम तेल उत्पादक देशों में आपसी झगड़े हैं। इन आपसी झगड़ों के चलते तेल बाजार में तेल की सप्लाई बढ़ेगी। तेल की सप्लाई बढ़ने से बाजार में कीमतें कमजोर हो सकती हैं। इसलिए दो सौ डॉलर प्रति बैरल के भावों पर जाने के बजाय कच्चे तेल के भाव 90 डॉलर प्रति बैरल पर टहल रहे हैं। पर भारत की तमाम सरकारी तेल कम्पनियों का घाटा लगातार बढ़ रहा है। यह घाटा कम तब ही होगा, जब तमाम पेट्रोलियम उत्पादों के भाव बढ़ेंगे। डीजल और पेट्रोल के भाव और बढ़े तो, तमाम वस्तुओं और सेवाओं की परिवहन लागत बढ़ेगी। इसके चलते भाव बढ़ जाएंगे और जो महंगाई के रूप में दिखायी देंगे। कुल मिलाकर स्थिति अब ऐसी हो गयी है कि महंगाई पर नीति निर्धारकों के तीन तरह के बयान आते हैं। एक तो इस टाइप के बयान कि अगले महीने या दो महीने के बाद महंगाई कम हो जाएगी। यह महंगाई कम कैसे और क्यों कम हो जाएगी, यह वजह बताने की जरूरत नहीं समझी जाती। दूसरे बयान केंद्र सरकार की तरफ आते हैं, जिनमें बताया जाता है कि महंगाई मूलत: जमाखोरी की वजह से है। जमाखोरी रोकने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की हैं। भाजपा या गैर कांग्रेसी दलों की राज्य सरकारें महंगाई की वजह के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराती हैं। इन बातों से यह साफ होता है कि न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार महंगाई के मामले में कुछ ठोस करने में सक्षम है। इस सम्बंध में घोषित तमाम प्रयास भी ठोस रिजल्ट देते हुए प्रतीत नहीं होते। जैसे दिल्ली में सरकार ने दावा किया था कि सस्ते प्याज बेचे जाएंगे 40 रुपये प्रति किलो के भाव पर। पर प्याज बेचे जा रहे हैं सरकारी माध्यमों से पचास रुपये किलो। और इस तरह के प्याज की गुणवत्ता को लेकर भी बहुत सवाल उठाये जा रहे हैं। पाकिस्तान का प्याज इंडिया में आ रहा है, इस खबर से पाकिस्तान में भी प्याज के भाव बढ़ गये। पर प्याज के भाव तो महंगाई का एक पक्ष भर हैं। समस्या यह है कि कच्चे तेल से प्रभावित महंगाई को रोकने के लिए क्या कोई व्यापक अंतरराष्ट्रीय ढांचा नहीं बन सकता? वि महंगाई परिषद जैसी कोई संस्था बनायी जानी चाहिए। जिसमें तमाम विकसित और विकासशील देशों की सरकारों से सब्सिडी वसूल कर तेल निर्यातक और तेल उत्पादक देशों को दी जानी चाहिए, ताकि ये तेल उत्पादक हर देश की गरीब जनता को ध्यान में रखते हुए तेल की कुछ मात्रा सस्ते भावों में बेचें। इन सस्ते भावों के चलते महंगाई नहीं बढ़ेगी औऱ देश की गरीब आबादी तेल की मार से बच जाएगी। वि महंगाई परिषद का सुझाव अभी भले ही अगम्भीर लग सकता है। पर एक जमाने में संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी किसी संस्था का विचार भी अगम्भीर लगता था। कुल मिलाकर जो स्थितियां हो गयी हैं, उनमें महंगाई को लेकर अंतरराष्ट्रीय विमर्श होना जरूरी है।
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