मंहगाई थामने के नाम पर तीन दिन तक चले विचार मंथन के बाद वही अमृत निकला जो मनमोहन सिंह सरकार बीते डेढ़ साल से जनता को बताती आ रही है कि मंहगाई रोकने पर उसका बस नहीं है और यह कि वे इसे जान बूझकर बढ़ने दे रहे हैं। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की सोच का यह निष्कर्ष है जिनका मानना है कि देश के मध्यम वर्ग को छठा वेतन आयोग देने के बाद अब उनका हक बनता है कि सरकार उसकी जेब से पैसे निकाले और उसे गरीबों को दे जिससे उनका जीवन भी आर्थिक रूप से मजबूत हो और बदले में वे उन्हें वोट दें। प्रधानमंत्री यह फार्मूला कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी को भी समझाने में कामयाब रहे हैं। जो राष्ट्रीय सलाहकर परिषद के माध्यम से अपनी सहृदय आत्मा को संतुष्ट करती रहती हैं कि वह देश के गरीब लोगों के लिए कुछ कर रही हैं। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री उनकी किसी भी सिफारिश को नहीं मानते हैं चाहे मनरेगा के मजदूरों के वेतन में बढ़ोतरी को थोक मूल्य सूचकांक के हिसाब से बढ़ाने की बात हो या फिर एपीएल परिवारों को 35 किलोग्राम अनाज देने की बात हो। प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों के वित्त और संसाधन को लेकर अपने तर्क हैं तो सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद के सामाजिक कल्याण के तरफदारों के अपने तर्क, लेकिन इस आर्थिक उद्धार कार्यक्रम और कल्याणकारी सोच के बीच में आम आदमी पिस रहा है और बुरी तरह पिस गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को शायद इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि दुनिया भर की मंदी और उनके दस फीसदी विकास के इस महंगाई वाले फार्मूले के कारण भारत से अत्यंत गरीबों की एक पूरी नस्ल गायब हो गई है। मंदी के समय जब सूरत की कपड़ा मंडियों से बिहार के बेरोजगार मजदूरों से भरी रेलगाडि़यां बिहार जा रही थीं तो तत्कालीन श्रम मंत्री ऑस्कर फर्नाडीज ने कहा कि दुनिया भर में मंदी है और वह कुछ नहीं कर सकते हैं। यह सब तब हुआ था जब सरकार ने दावा किया कि मंदी से निपटने के लिए उसने बाजार में पौने चार लाख करोड़ रुपये झोंके हैं। ये पैसे और छूट किसको और कहां से मिली यह सरकार ही बता सकती है, क्योंकि आंकड़ों की बाजीगरी और उसे परिभाषित करने में सरकार माहिर है जैसे अब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी कर रहे हैं। महंगाई दर बीते दिसंबर में एक फीसदी बढ़कर 8.43 प्रतिशत हुई तो प्रणब मुखर्जी ने कहा कि नवंबर के मुकाबले भले ही महंगाई दर एक फीसदी बढ़ी हो, लेकिन यह अक्टूबर के मुकाबले घटी है। प्रणब मुखर्जी ही नहीं इस सरकार में सभी मंत्री और कांग्रेस पार्टी के सदस्य महंगाई के आंकड़ों को जायज ठहराने में माहिर हैं। यही नहीं वे हर बार यह कहने से भी नहीं चूकते हैं कि वे महंगाई रोकने के लिए गंभीर प्रयास कर रहे हैं। सरकार के इन गंभीर प्रयासों का ही नतीजा था कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित जो महंगाई दर का आंकड़ा पहले हर हफ्ते आता था अब वह मासिक आधार पर आता है ताकि हर हफ्ते सरकार को फजीहत न उठानी पड़े। यह सरकार महंगाई दर के बढ़ने से विकास दर के बढ़ने में यकीन रखती है। चीन में महंगाई दर डेढ़ से दो फीसदी के बीच रहती है और विकास दर भी 10 फीसदी रहती है, लेकिन प्रधानमंत्री को यह फार्मूला समझ में नहीं आता है। दरअसल, बात समझ में आने या न आने की नहीं है। बात नीयत और इच्छाशक्ति की है। भारत में डेढ़ और दो फीसदी की महंगाई दर के साथ 10 फीसदी की विकास दर हासिल की जा सकती है, लेकिन इसके के लिए सदृढ़ और दूरगामी उपाय करने होते हैं। आधारभूत ढांचागत क्षेत्रों में तेजी से विकास करना होता है और यह सब करने के लिए चाहिए मजबूत इच्छाशक्ति और मजबूत क्रियान्यवयन एजेंसियां। भारत में ये सारी स्थितियां हैं, लेकिन उन्हें करने वाला कोई नहीं है। सरकार को इसकी जरूरत ही महसूस नहीं होती है, क्योंकि इनके किए बिना ही उसकी झोली भर रही है। तीन साल पहले तक सरकार के गल्ले में प्रत्यक्ष कर (आयकर) से 1.32 लाख करोड़ रुपये जाते थे और बीते वित्तीय वर्ष में यह तीन गुना बढ़कर 3.78 लाख करोड़ हो गया है। इस वित्तीय वर्ष में सरकार ने 4.3 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा तो हाल ही में सरकार ने प्रत्यक्ष कर संग्रह में 24 फीसदी की बढ़ोतरी होते देख यह लक्ष्य 20 हजार करोड़ रुपये और बढ़ाकर इसे 4.5 लाख करोड़ रुपये कर दिया है। सरकार जब यह कहती है कि देश में मंहगाई नहीं है। लोग अब दूध, मांस, अंडा, दाल, सब्जी आटा, चावल ज्यादा खाने लगे हैं इसलिए इन चीजों के दाम बढ़ रहे हैं तो सरकार गलत नहीं कहती है, क्योंकि उसके खजाने के आंकड़े तो यही कहते हैं। सरकार का मानना है कि अगर वाकई महंगाई जमाखोरों और उसकी गलत नीतियों से बढ़ती है तो उसके खजाने में 4.5 लाख करोड़ रुपये क्यों आ रहे होते हैं। मतलब साफ है कि लोगों के पास पैसा है और वे उसे खर्च भी कर रहे हैं। दरअसल सरकार कर संग्रह की इस गणित में भूल जाती है कि यह प्रत्यक्ष कर हो या कारपोरेट कर, सभी में यह बढ़ोतरी छठे वेतन आयोग की देन है। वेतन आयोग की सिफारिशों की लाभ सीमा में नौकरी पेशा मध्यम वर्ग और उच्च-मध्यम वर्ग तो आता है, लेकिन वो किसान, मजदूर और आम-आदमी नहीं आता है जो रोजाना जीतोड़ मेहनत करके भी अपने को मरने से नहीं बचा पा रहा है और न उसकी ग्रेच्युटी कटती है और न ही पीएफ। उसे न तो किसी तरह का मेडिक्लेम मिलता है और न ही कोई छुट्टी। सरकार का भी इस पूरे वर्ग के लिए एक शानदार तर्क है। मनरेगा, राशन की दुकान, इंदिरा आवास योजना और कई फ्लैगशिप योजनाएं। सरकार कहती है कि उसने मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर 100 से 125 रुपये कर दी है। राशन की दुकानों से गरीबों को सस्ता अनाज मुहैया कराया जा रहा है। इंदिरा आवास योजना से सस्ते घर और केंद्र की अन्य कई फ्लैगशिप योजनाओं के कारण गरीबों की खर्च करने की क्षमता बढ़ी है। वह पहले से ज्यादा खाने, पहनने और ओढ़ने लगी है, लेकिन सरकार यहां भूल जाती है कि साल में 365 दिन होते हैं 100 दिन नहीं। मनरेगा में मात्र 100 दिन के लिए काम मिलता है और आज के दिन देश में किसी भी व्यक्ति को मनरेगा में 100 से 125 रुपये की निर्धारित राशि शायद ही किसी को मिली हो, क्योंकि यह सब मिलती है तो सिर्फ कागजों में। कोई भी व्यक्ति शत-प्रतिशत काम कभी नहीं कर सकता और यह राशि शत-प्रतिशत काम करने पर ही दी जाती है। राशन की दुकानों का क्या हाल है यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। इंदिरा आवास के 18 हजार रुपये के मकान के लिए गरीब को कितने हजार रुपये की रिश्वत देनी होती है और इन आवासों की क्या गुणवत्ता होती है यह भी किसी से छिपा नहीं है। दरअसल सरकार को इस सबसे फर्क नहीं पड़ता है। वह अपनी बैलेंसशीट देखती है। वह यह देखती है कि इस साल उसके पास कितने लाख करोड़ रुपये आ रहे हैं। वह देखती है कि देश की विकास दर कितनी तेजी से आगे बढ़ रही है। वह देखती है कि वित्तीय घाटे का प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद से ज्यादा न हो। इसे रोकने के लिए वह सार्वजनिक उपक्रमों के शेयर या दूरसंचार में स्पेक्ट्रम लाइसेंस बेचने के उपाय करती है। सरकार यह मानती है कि चूंकि उसके पास पैसा ज्यादा आएगा तो वह मनरेगा में इस बार 40 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में 12 हजार करोड़ रुपये ज्यादा और राहुल गांधी के लिए इस बार 3 हजार करोड़ रुपये (पिछली बार वह बुंदेलखंड के लिए दो हजार करोड़ रुपये ले गए थे), मिड-डे मील, सर्वशिक्षा अभियान और तकरीब उन सभी कल्याणकारी योजनाओं में पैसा बढ़ा पाएगी जो उसने गरीबों के उत्थान के लिए जनकल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं। यह सब करके सरकार गरीबों को बताना चाहती है कि वह उनके लिए काम कर रही है इसलिए उन्हें उसे ही वोट देना चाहिए। यही कारण है कि इस अच्छी बैलेंसशीट के चक्कर में न वो शहरी मध्यम वर्ग के महंगाई के आंसुओं को देखती है और ना ही देश के दूर-दराज गांवों में रह रहे व्यक्ति के पेट और कमर के बीच की कम होती दूरी को देख पाती है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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