अर्थव्यवस्था के डब्ल्यूटीसी या ताज (होटल) को ढहाने के लिए किसी अल कायदा या लश्कर-ए-तैयबा की जरूरत नहीं है। आर्थिक ध्वंस हमेशा देशी बमों से होता है, जिन्हें कुछ ताकतवर, लालची, भ्रष्ट या गलतियों के आदी लोगों का एक छोटा सा समूह बड़े जतन के साथ बनाता है और पूरे देश को उस बम पर बिठाकर घड़ी चला देता है। बड़ी उम्मीदों के साथ नए दशक में पहुंच रही भारतीय अर्थव्यवस्था भी कुछ बेहद भयानक और विध्वंसक टाइम बमों पर बैठी है। हम अचल संपत्ति यानी जमीन जायदाद के क्षेत्र में घोटालों की बारूदी सुरंगों पर कदम ताल कर रहे हैं। बैंक अपने अंधेरे कोनों में कई अनजाने संकट पाल रहे हैं और एक भीमकाय आबादी वाले देश में स्थायी खाद्य संकट किसी बड़ी आपदा की शर्तिया गारंटी है। खाद्य आपूर्ति, अचल संपत्ति और बैंकिंग अब फटे कि तब वाली स्थिति में हैं। तरह तरह के शोर में इन बमों की टिक-टिक भले ही खो जाए, लेकिन ग्रोथ की सोन चिरैया को सबसे बड़ा खतरा इन्हीं धमाकों से है।
जमीन में बारूद
वित्तीय तबाहियों का अंतरराष्ट्रीय इतिहास गवाह है कि अचल संपत्ति में बेसिर पैर के निवेश उद्यमिता और वित्तीय तंत्र की कब्रें बनाते हैं। भारत में येद्दयुरप्पाओं, रामलिंगा राजुओं से लेकर सेना सियासत, अभिनेता, अपराधी, व्यापारी, विदेशी निवेशक तक पूरे समर्पण के साथ अर्थव्यवस्था में ये बारूदी सुरंगें बिछा रहे हैं। मार्क ट्वेन का मजाक (जमीन खरीदो, क्योंकि यह दोबारा नहीं बन सकती) भारत में समृद्ध होने का पहला प्रमाण है। भ्रष्ट राजनेता, रिश्वतखोर अफसर, नौदौलतिए कारोबारी, निर्यातक-आयातक और माफिया ने पिछले एक दशक में जायदाद का गुब्बारा भयानक ढंग से फुला दिया है। अचल संपत्ति काले धन की सबसे बड़ी तिजोरी है और हर बड़ा ताजा घोटाला (2जी, आदर्श सोसाइटी, सैन्यभूमि) जमीन के कारोबार से जुड़ा है। फैलते शहरों के इर्द-गिर्द अचल संपत्ति के भ्रष्टाचार की पूरी आबादी पनप रही है। पिछले पांच वषरें में आवासीय और वाणिज्यिक प्रापर्टी की कीमतें बेतहाशा बढ़ने के पीछे वास्तविक मांग व आपूर्ति का कोई तर्क नहीं है। मुट्ठी भर लोगों की बढ़ी हुई आय या पूंजी के स्रोतों से उनकी निकटता के कारण हम जमीन के जमाखोरों के हाथ फंस गए हैं। जमीन एक कीमती, सीमित और जरूरी संसाधन है, जो कायदे से बंटना चाहिए। विकसित होती अर्थव्यवस्था को सबसे जयादा जरूरत इसी संसाधन की है, वह भी उचित कीमत पर। मगर यहां तो भूमि से जुड़े कानून कीमत बढ़ाने में सहायक हैं। 1997 के पूर्वी एशिया संकट, अमेरिकी सब प्राइम बाजार की तबाही और दुबई से लेकर डबलिन तक अचल संपत्ति ने बर्बादी की कथाएं लिखी हैं। भारत में 400 करोड़ रुपये की मैन्यूफैक्चरिंग परियोजनाएं दुर्लभ हैं, लेकिन 500 से 1,000 करोड़ रुपये के रियल एस्टेट प्रोजेक्ट शहरों के चौराहे पर टंगे हैं। बैंक व वित्तीय संस्थाएं मिलकर इस बम की ताकत बढ़ा रहे हैं। भारत में यह धमाका कभी भी हो सकता है।
विस्फोटक बैंकिंग
माधवपुरा मर्केटाइल बैंक याद है आपको। जमाकर्ताओं के दस अरब रुपये से ज्यादा शेयर बाजार में लुटाने वाली और केतन पारेख जैसों की मददगार बैंकिंग से यह देश का पहला परिचय था। फिर तो सहकारी बैंकों के डूबने का मौसम शुरू हो गया। सहकारी बैंकिंग की साख अब तक नहीं उबरी है। भारत का बैंकिंग उद्योग कई तरह के जोखिम पाल रहा है। विकास के साथ बैंकिंग जटिल होती चली गई है और कंपनियों का दबाव, राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रबंधन की अक्षमताएं बढ़ी हैं। एलआइसी हाउसिंग से लेकर सिटी बैंक तक बैकिंग के दागदार चेहरों की नुमाइश जारी है। कहीं लालची बिल्डरों से रिश्वत लेकर करोड़ों के लोन तो कहीं बैंक अफसर व उद्यमियों का मिलाजुला घोटाला। ये घोटाले तो बैंकों में समस्याओं की शुरुआत भर हैं। सरकारें भी अपनों को कर्ज दिलाने या शेयर बाजार में बैंकों का इस्तेमाल करती हैं। रिजर्व बैंक की बैंक फ्रॉड सूची में कंपनियों को दिए जाने वाले लेटर ऑफ क्रेडिट और लोन सबसे ऊपर हैं। बैंक शेयर बाजार में हाथ जला चुके हैं, अब बारी अचल संपत्ति की है, क्योंकि पिछले एक दशक में बैंकों ने अचल संपत्ति में तगड़ा निवेश किया है। जब यह बम फटेगा तो बैंक भी ढहेंगे। बैंकों में घोटालों की बहुत बारूद जमा है। इसका धमाका बहुत जोरदार होगा।
थाली में धमाके
यह ताकत के आफत बनने की दास्तान है। भारत खाद्य संकट की अभूतपूर्व बारूद से खेल रहा है। भोजन की थाली में गेहूं, चावल, दाल, तेल, सब्जी, दूध, अंडा जैसी सभी जरूरी खाद्य चीजों में महंगाई धमाके कर रही है। करीब सवा अरब की आबादी, जिसमें ज्यादातर गरीब व निम्न आय वाले, ऐसे मुल्क के लिए खाद्य संकट आरडीएक्स का थैला है। बढ़ते शहरीकरण और बढ़ती आय वाले देश के लिए खाने-पीने की चीजों की कमी एक नए किस्म की पेचीदा समस्या है। खाद्य संकट का यह बम खराब होती खेती ने बनाया है। भारत ने उदारीकरण के दो दशकों में खेती में बहुत कुछ खो दिया है। खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति करने वाली भारत की भोजन फैक्ट्री चौतरफा मुश्किलों में है। शहरों के इर्दगिर्द बिल्डरों ने खेतिहर जमीन को निगलकर सब्जियों जैसी दैनिक आपूर्ति को दूर और महंगा कर दिया है। जमीन की कमी बुनियादी समस्या है। निवेश, बीज, तकनीक, बुनियादी ढांचे की कमी, उपज में गिरावट, खेती पर राजनीति और उत्पादों पर बिचौलियों के राज की चर्चा पुरानी है। दरअसल उद्योग, सेवा, वित्तीय बाजार की नीतियों को आए दिन बदलने वाले केंद्र में एक संतुलित कृषि नीति नदारद है और राज्यों में तो खेती किसी खेत की मूली नहीं है। सरकारी कोशिशें सस्ते बैंकिंग कर्ज (बाद में कर्ज माफी) और सब्सिडी व समर्थन मूल्य से बाहर नहीं निकलतीं। जबकि खपत के बदलते ढंग को देखते हुए खेती को न केवल हर साल बदलना, बल्कि चीन की तरह अपने लिए विदेश में उपज (वर्चुअल फार्मिंग) की तरफ बढ़ना चाहिए था। सवा अरब की आबादी का पेट दुनिया का कोई बाजार नहीं भर सकता। भारत को अपने रोटी, दाल, चावल, तेल, सब्जी का जुगाड़ खुद करना होगा, वह भी सस्ती कीमत पर। खाद्य संकट के बम की घड़ी सबसे तेज भाग रही है। संकट के लिए हमें विदेशी बैंक या अंतरराष्ट्रीय घोटालेबाज नहीं चाहिए। यहां तो बिल्डर, बैंकर, नेता और व्यापारी मिलकर संकटों का सिलसिला बना सकते हैं। हम गजब के किस्मती हैं कि बीस साल में हमें किसी बडे़ संकट ने नहीं घेरा। यूं भी कह सकते हैं कि संकटों की बारूद अब तक बन नहीं पाई थी, जो अब तैयार है। हमें विकास के लिए अगर पूंजी, श्रम व मांग तीनों उपलब्ध हैं तो विनाश के लिए लूट, लालच, लापरवाही और महंगाई की भी कमी नहीं हैं। प्रगति और दुर्गति के बीच की विभाजक रेखा बहुत पतली होती है। इस लाइन के पार करते ही बारूदी सुरंगों का इलाका है। इसी विभाजक रेखा पर खड़ी भारत की अर्थव्यवस्था किसी भी समय अपना पैर विस्फोटकों पर रख सकती है।
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